देश में कोरोना के नए मामलों की संख्या में आ रही गिरावट में उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है। उत्तर भारत में गिरावट जारी है, पर केरल में एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। वहाँ नौ जिलों में वैक्सीन की दोनों डोज ले चुके लोग बड़ी संख्या में कोविड पॉजिटिव पाए गए हैं। पिछले कुछ दिनों में संक्रमण के ऐसे 40,000 केस सामने आ चुके हैं। इनमें भी पथनामथिट्टा की रिपोर्ट बहुत चिंताजनक है। वायनाड में करीब-करीब सौ फीसदी टीकाकरण हुआ है, पर ब्रेकथ्रू के मामले वहां भी हैं।
दूसरी डोज के बाद कुल ब्रेकथ्रू इंफेक्शन के 46
प्रतिशत केस केरल में आए हैं। केरल में
करीब 80 हजार ब्रेकथ्रू इंफेक्शन (टीका लेने के
बाद संक्रमण) के मामले सामने आए हैं। इनमें करीब 40 हजार दूसरी डोज के बाद के हैं।
इतने ज्यादा मामलों को देखते हुए केंद्र ने राज्य सरकार से सभी मामलों की जीनोम
सीक्वेंसिंग कर पता लगाने को कहा कि कहीं नया वेरिएंट तो यह सब नहीं कर रहा।
ब्रेकथ्रू-इंफेक्शन
अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, ब्रेकथ्रू इंफेक्शन उसे कहते हैं जब वैक्सीन की दोनों डोज लेने के 14 दिन या उससे ज्यादा समय बाद कोई व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव पाया जाए। ऐसे में पहला शक होता है कि कहीं ऐसा कोई वेरिएंट तो नहीं फैल रहा जो टीके से हासिल इम्यूनिटी को ध्वस्त कर रहा हो। केरल में छह सदस्यीय केंद्रीय टीम भेजी गई थी जिसने अपने शुरुआती आकलन में बताया कि ब्रेकथ्रू इंफेक्शन कोवैक्सीन और कोवीशील्ड दोनों ही वैक्सीन लगवाने वाले लोगों में मिले हैं।
टीम ने वैक्सीन लगने के बाद भी इंफेक्शन के
पीछे वायरस के नए म्युटेशन की आशंका भी जताई है जो लोगों की इम्युनिटी कमजोर कर
रहा है। केरल के संक्रमण को देखते हुए यह सुझाव भी दिया जा रहा है कि देश में
कोवीशील्ड के टीकों के अंतराल को कम करके फिर से 28 दिन कर दिया जाए। यह केरल की
ही नहीं दुनियाभर की समस्या है। हमारे देश में केरल में यह असाधारण है।
वायरस लोड बढ़ा
विशेषज्ञ मानते हैं कि वैक्सीनेशन का उद्देश्य
संक्रमण के प्रसार को रोकने के साथ-साथ संक्रमणों की गम्भीरता को कम करना है, ताकि
मृत्यु की सम्भावना कम हो। हाल में स्वास्थ्य से जुड़े प्रतिष्ठित जरनल ‘लैंसेट’ में ऑक्सफोर्ड विवि
के एक अध्ययन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, जिसके अनुसार जिन लोगों का पूरी तरह
वैक्सीनेशन हो चुका है, उनके शरीर में वायरस लोड अनवैक्सीनेटेड व्यक्तियों के
मुकाबले 251 गुना तक ज्यादा हो सकता है।
वैज्ञानिकों ने यह
अध्ययन उन हैल्थकेयर कार्यकर्ताओं पर किया था, जिन्हें सबसे पहले एस्ट्राजेनेका
वैक्सीन दी गई थी। सम्भवतः इन कार्यकर्ताओं ने वैक्सीन लगने के दो महीने बाद अपने
दूसरे सहयोगियों से वायरस के डेल्टा वेरिएंट को या तो ग्रहण किया या उन्हें
संक्रमित किया। ब्रेकथ्रू इंफेक्शन सबसे ज्यादा हैल्थकेयर कार्यकर्ताओं में हैं,
क्योंकि सबसे पहले उन्हें ही वैक्सीन लगी है।
नए अध्ययन
इस बात से वैक्सीन की
उपयोगिता को लेकर सवाल उठे हैं। निष्कर्ष यह है कि वैक्सीन संक्रमण को रोकने से
ज्यादा संक्रमण की भयावहता को कम करने का काम कर रही है। ऑक्सफोर्ड
के वैज्ञानिक कोएन पॉवेल्स के नेतृत्व में गत 19 अगस्त को जो रिपोर्ट जारी हुई है,
वह ब्रिटेन के करीब पाँच लाख लोगों पर किए गए सर्वे के आधार पर तैयार की गई है। इन
लोगों का नियमित रूप से कोविड-19 परीक्षण होता है। इनकी आयु और वैक्सीनेशन की अवधि
को एडजस्ट करने के बाद अल्फा वेरिएंट और डेल्टा वेरिएंट दोनों का अध्ययन किया गया।
सर्वे में पता लगा कि फायज़र वैक्सीन की
एफिकेसी 94 से घटकर 84 फीसदी हो गई और एस्ट्राजेनेका की 86 से घटकर 70 फीसदी रह
गई। इसी तरह इसराइल में हुए एक अध्ययन से पता लगा है कि जिन्होंने जनवरी या फरवरी
में फायज़र का टीका लगवाया था, उनके जून या जुलाई में ब्रेकथ्रू संक्रमण की
सम्भावना उन व्यक्तियों के मुकाबले 50 फीसदी ज्यादा थी, जिन्होंने मार्च-अप्रेल
में टीका लगवाया था।
बूस्टर डोज़ की जरूरत
ऑक्सफोर्ड के अध्ययन का सबसे ज्यादा ध्यान देने
वाला तथ्य यह है कि वैक्सीनेटेड लोगों के अल्फा मामले में ब्रेकथ्रू इंफेक्शन होने
पर वायरस की मात्रा कम पैदा हुई। इसके विपरीत डेल्टा वेरिएंट के इंफेक्शन में वायरल लोड उतना
ही ज्यादा था, जितना पहली बार के इंफेक्शन में होता है। सिद्धांततः इंफेक्शन होने
पर प्रतिरक्षण क्षीण जरूर होता है, पर वैक्सीन द्वारा पैदा हुआ प्रतिरक्षण वायरस
का मुकाबला ज्यादा तेजी से करता है। अब दुनिया में नई बहस इस बात पर है कि क्या एक
और बूस्टर डोज़ की जरूरत है।
गत 18 अगस्त को
अमेरिका के सर्जन जनरल ने घोषणा की है कि पिछले आठ महीनों में जिन लोगों ने
कोविड-19 के दोनों टीके लगवा लिए हैं, वे एक और शॉट ले सकते हैं। इसराइल ने अपने
तमाम नागरिकों को तीसरा टीका लगाना शुरू कर दिया है और फ्रांस तथा ब्रिटेन जैसे
देश इसपर विचार कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जिन लोगों को टीके लग चुके
हैं, उन्हें अब संक्रमण हुआ, तो इतना खतरनाक नहीं होगा कि अस्पताल जाना पड़े।
अलबत्ता लगता है कि उनके शरीर में जो प्रतिरक्षण पैदा हुआ था, उसका क्षरण होने लगा
है।
इस प्रवृत्ति के दो
कारण फिलहाल समझ में आ रहे हैं। एक, शायद डेल्टा वेरिएंट वैक्सीन की मदद से विकसित
प्रतिरक्षण शील्ड को चकमा देने में सफल है। दो, वैक्सीनों का प्रभाव कम हो रहा है।
ऑक्सफोर्ड विवि के अध्ययन से दोनों बातें साबित हो रही हैं। अमेरिकी
खाद्य एवं दवा प्रशासन (एफडीए) ने आधिकारिक तौर पर कमजोर प्रतिरक्षा वालों को
कोरोना की तीसरी खुराक लेने की सलाह दी है।
या नई वैक्सीन?
मिशीगन यूनिवर्सिटी में संक्रामक रोगों के
सहायक प्रोफेसर जोनाथन गोलब का मानना है कि तीसरी डोज़ कमजोर प्रतिरक्षण वाले
लोगों को संक्रमण से बचाव में मदद करेगी। कमजोर प्रतिरक्षा वालों के लिए कोविड-19
वायरस काफी खतरनाक साबित हुआ है। कैंसर, एचआईवी, ऑटोइम्यून बीमारियों, अंग प्रत्यारोपण और गंभीर किडनी संबंधी
रोगों से जूझने वाले लोगों की इम्यूनिटी काफी कमजोर पड़ जाता है। बोन मैरो या बड़े
अंग प्रत्यारोपण के बाद मरीज को हेपेटाइटिस बी जैसे रोग के टीके नियमित लगाए जाते
हैं।
नार्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय के माइक्रोबायोलॉजी
और इम्यूनोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर पाब्लो पेनालोजा-मैकमास्टर ने कहा कि हम यह
पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि नए वेरिएंट पर प्रभावी वैक्सीन कौन-सी हो सकती
है। ऐसा लगता है कि वैक्सीन में न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन मिलाने से वह ज्यादा
ताकतवर हो सकती है।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-09-2021) को चर्चा मंच "भौंहें वक्र-कमान न कर" (चर्चा अंक-4181) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर लाभदायक लेख
ReplyDeleteबहुत सही जानकारी देता लेख !
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