देश में हर रोज नए संक्रमितों की संख्या चार लाख पार कर गई है। वैश्विक संख्या से यह आधी से कुछ कम है। देश में 32 लाख से ऊपर लोग बीमार है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार करीब साढ़े तीन हजार लोगों की हर रोज मौत हो रही है और करीब तीन लाख लोग हर रोज संक्रमण-मुक्त हो रहे हैं। करीब 16 साल बाद स्थिति ऐसी आई है, जब हमें दूसरे देशों से सहायता को स्वीकार करना पड़ा है, पर यह हमारी विफलता नहीं है। यह वक्त की बात है। सहायता लेने के पहले हमने सहायता दी भी है। यह पारस्परिक निर्भरता वाली दुनिया है। ऐसी घटनाएं सदियों में एकाध बार ही होती हैं। पिछले साल हमने अमेरिका को सहायता दी थी।
भारतीय आँकड़ों को
लेकर पश्चिमी देशों के मीडिया ने जो संदेह व्यक्त किया है, उसपर विचार करने की
जरूरत है। आँकड़ों की पारदर्शिता और सरकारी व्यवस्थाओं को लेकर देश में भी सवाल
उठाए गए हैं। श्मशानों पर दाह-संस्कार जितने होते हैं, उतनी संख्या सरकारी रिपोर्टों में नहीं
होती। सही जानकारी होगी, तो
स्थिति पर काबू पाने में मदद मिलेगी। अस्पतालों में बिस्तरों, ऑक्सीजन और दवाओं का इंतजाम उसी हिसाब
से होगा।
जवाबदेह-व्यवस्था
लोग परेशान हैं। खबरें हैं कि लोगों ने जब शिकायत की तो उन्हें गिरफ्तार करने की धमकियाँ मिलीं। ऐसे तो समस्या का समाधान नहीं होगा। जिम्मेदार वे लोग हैं, जिन्होंने मंजूरशुदा ऑक्सीजन संयंत्र लगाने में देरी की या जिन्होंने अतिरिक्त टीकों की जरूरत का ध्यान नहीं रखा। विकसित समाज जिस जवाबदेही और व्यवस्थागत निगरानी में काम करते हैं, वह नहीं होगा, तो हम अपने को आधुनिक लोकतांत्रिक देश कैसे कहेंगे?
दूसरी तरफ भय और आतंक
का माहौल बनाने में गैर-जिम्मेदार मीडिया-कवरेज का हाथ भी है। न्यूयॉर्क टाइम्स की
रिपोर्ट के अनुसार डेटा छिपाने के लिए राज्यों पर केंद्र सरकार का दबाव है। यह बात
किस आधार पर लिखी गई है, इसे
रिपोर्ट में स्पष्ट नहीं किया गया है। यह बताने की कोशिश भी नहीं की गई है कि
केंद्र को इससे क्या मिलेगा। केंद्र और राज्य में अंतर को रेखांकित करने से इसके
पीछे की राजनीतिक-दृष्टि उजागर जरूर हुई है।
भारतीय पत्रकारों ने
भी श्मशान घाटों पर लोगों से बात करके निष्कर्ष निकाला है कि सरकारी आँकड़ों से
ज्यादा मौतें हुई हैं। वस्तुतः श्मशानों पर कागजों में मृत्यु के कारण दर्ज करने
की व्यवस्था बहुत दुरुस्त नहीं है। तमाम अंतिम संस्कार कोविड-प्रोटोकॉल में होते
हैं, पर कोविड-टेस्ट नहीं
होने के कारण उनके कारण दर्ज नहीं होते। हमारे यहाँ मृत्यु के डेटा के तुलनात्मक
अध्ययन की न तो व्यवस्था है और न कोई पद्धति है। ऐसा डेटा नगरपालिकाओं और
नगर-निगमों वगैरह के पास होना चाहिए।
विदेशी
मीडिया के हमले
न्यूयॉर्क टाइम्स ने
अपने पहले पेज पर दिल्ली में जलती चिताओं की एक विशाल तस्वीर छापी। टाइम का कवर भी
चिताओं पर है। लंदन के गार्डियन ने लिखा, द सिस्टम हैज़ कोलैप्स्ड। लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर
मोदी-सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे ऑस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा
और उस खबर को ट्विटर पर बेहद कड़वी भाषा के साथ शेयर किया। बड़ी संख्या में ऐसी
रिपोर्टें हैं, जिनमें
समस्या की गम्भीरता और उससे बाहर निकलने के रास्तों पर विमर्श कम, भयावहता की तस्वीर और नरेंद्र मोदी पर
निशाना ज्यादा है।
मिशीगन यूनिवर्सिटी
की महामारी-विशेषज्ञ भ्रमर मुखर्जी का कहना है कि हमने जितने मॉडल बनाए हैं,
उनके आधार पर हमारा विश्वास है कि भारत
में बताई जा रही संख्या से दो से पांच गुना तक अधिक मौतें हुई हैं। साप्ताहिक
इकोनॉमिस्ट ने जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय, इम्पीरियल कॉलेज लंदन और इंस्टीट्यूट फॉर हैल्थ मीट्रिक्स एंड
हैल्थ इवैल्युएशन के मॉडलों के साथ भारतीय आँकड़ों की तुलना करते हुए कहा है कि
बीमारों और मृतकों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा होनी चाहिए।
मृत्यु-पंजीकरण
में खामियाँ
इकोनॉमिस्ट का कहना
है कि भारत में मृत्यु-पंजीकरण प्रणाली बहुत कुशल और चुस्त नहीं है। देश में करीब
एक करोड़ लोगों की सालाना मृत्यु होती है, पर इस सिलसिले में राष्ट्रीय सांख्यिकी जारी होने में दो साल
का विलम्ब होता है। सामान्य परिस्थितियों में सात में से एक मृत्यु की सूचना दर्ज
भी नहीं होती और केवल 22 फीसदी मौतों में डॉक्टर द्वारा प्रमाणित विवरण दर्ज होता
है। पर महामारी के दौरान स्थितियाँ और बिगड़ी हैं।
हालांकि इस समय करीब
15 लाख या उससे ऊपर टेस्ट रोजाना हो रहे हैं, पर बड़े शहरों को छोड़ दें, तो हर जगह ये टेस्ट होते भी नहीं हैं।
आबादी के लिहाज से टेस्टों की यह संख्या काफी कम है। स्थिति यह है कि दिल्ली जैसे
शहर में इन दिनों टेस्ट कराने में दिक्कतें हैं, क्योंकि प्रयोगशालाओं पर बोझ बहुत
ज्यादा है। दिल्ली में जितने टेस्ट हो रहे हैं उनमें से करीब एक तिहाई लोग पॉजिटिव
निकल रहे हैं, जबकि
पूरे देश में पॉज़िटिविटी करीब 21 फीसदी है। कहा जा सकता है कि टेस्टों की संख्या
बढ़े, तो संक्रमितों की
संख्या भी
हाल में जो सेरोसर्वे
हुए हैं, उनसे पता लगता है कि
संक्रमितों की आधिकारिक संख्या और वास्तविक संक्रमण के बीच बड़ा अंतर है। इस मामले
में राजनीति की भूमिका भी है। प्रधानमंत्री ने भी पिछले रविवार को अपने ‘मन की
बात’ में माना कि 'दूसरी
लहर के तूफान ने देश को हिलाकर रख दिया है।' राजनीतिक हालात को देखते हुए उनकी यह
स्वीकारोक्ति मायने रखती है।
बहरहाल इस बात को
स्वीकार करना चाहिए कि सरकार इस संकट का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी। सरकार
केवल केंद्र की ही नहीं होती। राज्य सरकार, नगरपालिकाएं और ग्राम सभाएं भी होती
हैं। जिसकी तैयारी बेहतर होती है, वह
झेल जाता है। केरल में ऑक्सीजन संकट नहीं है, क्योंकि वहाँ की सरकार का इंतजाम बेहतर
है।
कहाँ
कमी रह गई?
दूसरी लहर को रोका
क्यों नहीं जा सका? हमारी
तैयारी में कहाँ पर कमी रह गई थी और हमने आधी लड़ाई जीतने के बाद ही विजय की घोषणा
क्यों कर दी? ऐसे कई सवालों के
जवाब चाहिए। यह आत्मविश्वास केवल केंद्र सरकार का ही नहीं था। राज्य सरकारें दो
कदम आगे बढ़ गईं। पिछले एक साल में कोविड-19 से लड़ने के लिए जो व्यवस्थाएं बनाई
गई थीं, वे गिरा दी गईं।
उनमें काम करने वालों की छुट्टी कर दी गई।
सवाल पूछने का समय भी
आएगा, पर यह समय त्रासदी की
आँच पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का नहीं है। हालात जब सुधरेंगे, तब विवेचन करेंगे। सरकार जिम्मेदार है,
तो इसका मतलब यह नहीं कि विरोधी
जिम्मेदार नहीं। वैक्सीन को लेकर गलतफहमियाँ फैलाने का काम उन्होंने किया था। किसने
कहा था कि यह बीजेपी की वैक्सीन है? उनसे पूछने के लिए भी तमाम सवाल हैं।
नीतिगत
प्रश्न
संक्रमण रोकने का
सबसे प्रभावशाली तरीका वैक्सीनेशन है। केंद्र ने देर से ही सही टीकों की आपूर्ति
बढ़ाने के लिए जरूरी कदम उठाए, पर
उनसे समस्या का समाधान हुआ नहीं। देश में राजनीतिक आमराय नहीं हो तो अराजकता फैलते
देर नहीं लगती। वैक्सीन ही नहीं ऑक्सीजन के मामले में भी ऐसी अराजकता देखी गई है।
राज्यों के लिए टीके की खुली खरीद का विकल्प राजनीतिक कदम है। केंद्र सरकार
राज्यों की भूमिका को रेखांकित करना चाहती है। विरोधी दलों ने भी हर बात के लिए
मोदी को जिम्मेदार ठहराने का ठेका ले रखा है। यह राजनीतिक रस्साकशी अनुचित है।
वायरस से लड़ने के
लिए सबसे बड़ी जरूरत है आँकड़ों की विश्वसनीयता की। प्रधानमंत्री ने बार-बार कहा
है कि आरटी-पीसीआर पद्धति से अधिक से अधिक जांच की जाए। स्पष्ट और विश्वसनीय
अध्ययन हों, ताकि पता लगे कि मौजूदा टीके किस हद तक कारगर हैं। इससे जनता का भरोसा
मजबूत होगा साथ ही यह अनुमान लगाने में आसानी होगी कि कब तक ‘हर्ड-इम्यूनिटी’ हासिल हो सकेगी। और यह भी टीकों की
बूस्टर खुराक पर खर्च करना चाहिए या नहीं।
हरिभूमि
में प्रकाशित
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