इसराइल और हमस के बीच टकराव ऐन उस मौके पर हुआ है, जब लग रहा था कि पश्चिम एशिया में स्थायी शांति के आसार पैदा हो रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि अरब देशों का इसराइल के प्रति कठोर रुख बदलने लगा था। तीन देशों ने उसे मान्यता दे दी थी और सम्भावना इस बात की थी कि सऊदी अरब भी उसे स्वीकार कर लेगा। इस हिंसा से उस प्रक्रिया को धक्का लगेगा। अब उन अरब देशों को भी इसराइल से रिश्ते सुधारने में दिक्कत होगी, जिन्होंने हाल में इसराइल के साथ रिश्ते बनाए हैं। पर वैश्विक राजनीति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आने वाला है। इस हिंसा के दौरान इसराइल के समर्थक देशों का रुख भी साफ हुआ है।
इस महीने के पहले
हफ्ते में इसराइली सुरक्षा बलों ने यरूशलम के दमिश्क गेट पर फलस्तीनियों
को जमा होने से रोका, जिसके कारण यह हिंसा भड़की है। इस
घटना में काफी लोग घायल हुए थे। इसके बाद उग्रवादी संगठन हमस को आगे आने का मौका
मिला। उन्होंने इसराइल पर रॉकेटों से हमला बोल दिया, जिसका जवाब इसराइल ने बहुत
बड़े स्तर पर दिया है। इन दिनों इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू अपने
देश में राजनीतिक संकट में थे। इस लड़ाई से उनकी स्थिति सुधरेगी। दूसरी तरफ हमस का
प्रभाव अब और बढ़ेगा। जहाँ तक भारत का सवाल है, हमारी सरकार ने काफी संतुलित रुख
अपनाया है। इस टकराव ने इस्लामिक देशों को इसराइल के बारे में किसी एक रणनीति
को बनाने का मौका
भी दिया है। एक तरफ मुस्लिम देशों का नया ब्लॉक बनाने की बातें हैं, वहीं सऊदी
अरब और ईरान के बीच रिश्ते सुधारने के प्रयास भी हैं। तुर्की भी इस्लामिक
देशों का नेतृत्व करने के लिए आगे आया है।
हालांकि इस टकराव को युद्ध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें आसपास का कोई देश शामिल नहीं हैं पर इससे वैश्विक-राजनीति में आ रहे परिवर्तनों पर प्रभाव पड़ेगा। खासतौर से अरब देशों और इसराइल के रिश्तों में आ रहे सुधार को धक्का लगेगा। इस परिघटना का असर अरब देशों और ईरान के बीच सम्बंध बेहतर होने की प्रक्रिया पर भी पड़ेगा।
वर्तमान संकट
प्रत्यक्ष रूप से फलस्तीनियों और इसराइल का टकराव लगता है, पर वस्तुतः यह सऊदी अरब
और ईरान, सऊदी अरब और कतर तथा मिस्र और तुर्की के टकरावों की परिणति इसके साथ ही
इसके पीछे फलस्तीनियों के फतह गुट और हमस के बीच की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी
इसके पीछे है। हमस सुन्नी मुसलमानों का संगठन है, पर उसे ईरान का समर्थन हासिल है।
उसके पास जो हथियार हैं, उनमें से काफी ईरान से मिले हैं। हमस ने गज़ा पट्टी में महमूद
अब्बास के नेतृत्व वाले फतह को पीछे कर दिया है, जिसके कारण इसराइल के साथ समझौता
करना मुश्किल हो गया है।
कैसे
रुके टकराव
फिलहाल दुनिया की
दिलचस्पी टकराव को रोकने में है। अमेरिका ने इसराइल में अपना दूत भेजा है। अमेरिकी
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि हम सऊदी अरब और मिस्र से संपर्क में हैं, ताकि
तनाव को कम करने का कोई रास्ता निकाला जा सके। रविवार को सुरक्षा परिषद की विशेष
बैठक भी हुई, जिसके नाम अपने संदेश में संरा महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने इस लड़ाई
को अत्यन्त दर्दनाक बताया और कहा, लड़ाई
तुरन्त बन्द करनी होगी। इसे तत्काल रोका जाना होगा।
हालांकि बैठक में कोई
प्रस्ताव पास नहीं हुआ, पर इस टकराव को रोकने के प्रयास तेज कर दिए गए हैं। बैठक
में शामिल होने के बाद भारत के दूत टीएस तिरुमूर्ति ने कहा कि भारत हर तरह की
हिंसा की निंदा करता है। यानी इसराइली कार्रवाई और हमस के हमले दोनों को रोकने की
अपील भारत ने की। भारत ने गज़ा पट्टी से हो रहे रॉकेट हमलों की निंदा भी की है। भारतीय
दूत ने कहा कि तत्काल तनाव घटाना समय की माँग है, ताकि स्थिति न बिगड़े और
नियंत्रण से बाहर न हो जाए।
इस्लामिक देशों के
संगठन ने इसराइल को गम्भीर परिणामों की चेतावनी दी है। यह चेतावनी इससे पहले भी दी
जाती रही है। ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी ने रविवार को हुई
आपात बैठक में फ़लस्तीनियों पर हमलों के लिए इसराइल की आलोचना की। बैठक के बाद
ओआईसी के बयान में कहा गया है कि "अल-क़ुद्स (यरूशलम) और अल-अक़्सा मुसलमानों
के पवित्र स्थान हैं। इस्लामी दुनिया के लिए यह लाल रेखा है। इसराइल इस रेखा को
पार करेगा, तो इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
इस वर्चुअल बैठक में
इसराइल के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी कार्रवाई की मांग भी की गई है। इस हिंसा
से उन देशों को ख़ासी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है जिन्होंने इसराइल से
रिश्ते सामान्य करने की कोशिशें की थीं। इनमें सूडान, मोरक्को, यूएई और बहरीन शामिल हैं। बैठक के दौरान
फ़लस्तीनी क्षेत्र के विदेश मंत्री रियाद अल-मलिकी ने इसराइल के साथ रिश्ते
सामान्य करने वाले अरब देशों को भी आड़े हाथों लिया।
अमेरिका
की भूमिका
इस टकराव को रोकने
में वास्तविक भूमिका अमेरिका की ही हो सकती है, जो इसराइल का सबसे बड़ा पक्षधर है।
अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यरूशलम को इसराइल की राजधानी बनाने
का खुला समर्थन किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि हम अपने दूतावास को यरूशलम में
स्थानांतरित करेंगे। हालांकि जो बाइडेन का वर्तमान प्रशासन उस हद तक इसराइल का
समर्थक नहीं है, पर संरा सुरक्षा परिषद में जरूरी हुआ, तो उसके हितों की रक्षा
करेगा। इस टकराव के संदर्भ में भारत के रुख को लेकर भी कई प्रकार के कयास लगाए गए
हैं। एक बात साफ है कि भारत इसराइली कार्रवाई का खुलकर समर्थन नहीं करेगा, साथ ही
हम हमस की आतंकी गतिविधियों के समर्थक भी नहीं हैं। भारत के रिश्ते इसराइल और
फलस्तीनी प्रशासन दोनों के साथ अच्छे हैं और हम इस क्षेत्र में स्थायी समाधान में
महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
टकराव
की पृष्ठभूमि
अधिकतर इसराइली
यरूशलम को अपनी अविभाजित राजधानी मानते हैं। हाल में इसराइली सुप्रीम कोर्ट ने
पूर्वी यरूशलम के शेख जर्राह इलाके में चार फलस्तीनी परिवारों को जमीन से बेदखल
करने के आदेश दिए हैं। यह इलाका 1948 में इसराइल की स्थापना के समय जॉर्डन के अधीन
था। इस इलाके में ज्यादातर लोग अरब मूल के फलस्तीनी हैं, पर इसरायली कानूनों के
मुताबिक यदि कोई यहूदी परिवार यह साबित कर सके कि सन 1948 में इसराइल की स्थापना
के पहले उसकी जमीन यहाँ थी, तो उन्हें उसपर कब्जे का अधिकार दिया जा सकता है। शेख
जर्राह में जो चार सम्पत्तियों के मामले हैं। यह इलाका अनौपचारिक रूप से इसराइली
कब्जे में है, पर यह विवादित क्षेत्र है और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार यह उस
व्यापक फलस्तीन का हिस्सा है, जिसपर अंतिम रूप से कोई फैसला नहीं हो सकता है।
गत 6 मई को यरूशलम
में कुछ फलस्तीनियों ने प्रदर्शन किया। इन प्रदर्शनों ने देखते ही देखते बड़ा रूप
ले लिया। दूसरी तरफ इन्हीं दिनों दक्षिणपंथी यहूदियों का एक प्रदर्शन भी इस इलाके
में होना था, जिसकी अनुमति नहीं दी गई। फिर भी इस दौरान यहूदियों और फलस्तीनियों
के बीच टकराव भी हुए। इसके बाद यहूदियों और मुसलमानों के पवित्र स्थल, टेम्पल
माउंट के परिसर पर इसराइली पुलिस ने धावा बोला। इसे अल-अक्सा मस्जिद परिसर भी कहा
जाता है। वह मुसलमानों के रमज़ान के महीने की कद्र-रात थी और इसराइलियों का राष्ट्रीय
दिवस भी था।
इसराइल
पर रॉकेट प्रहार
दूसरी तरफ 10 मई को
हमस और फलस्तीनी इस्लामिक जेहाद ने गज़ा पट्टी से इसरायल पर रॉकेटों से हमले बोले।
सैकड़ों रॉकेट एकसाथ छोड़े गए, जिनमें से 90 फीसदी को इसराइली सुरक्षा प्रणाली
आयरन डोम ने रोक लिया, पर कुछ रॉकेट नागरिक इलाकों में भी गिरे। इसराइली वायुसेना
ने जवाबी कार्रवाई में गज़ा पट्टी के अनेक ठिकानों को धराशायी कर दिया। हालांकि
गज़ा पट्टी पर दोनों पक्षों के बीच टकराव पहले भी चलता रहा है, पर इसबार की सैनिक
कार्रवाई सन 2000 के बाद से सबसे बड़ी है। इसराइली वायुसेना ने खासतौर से ऐसे
प्रिसीशन बमों का इस्तेमाल किया है, जो अचूक वार करते हैं।
उन्हें इस बात की
सटीक जानकारी थी कि हमस के लड़ाके कहाँ छिपे हैं। उन्होंने उन जगहों पर निशाना
लगाकर वार किया। हमस के सैनिक सड़कों के नीचे बनी सुरंगों में छिपे थे। इसके लिए
विशेष बंकर बस्टर बमों का इस्तेमाल किया गया, जिन्होंने जमीन के नीचे तक गहरे छेद
कर दिए। यह कार्रवाई इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जारी है। लगता नहीं कि यह आसानी
से रुकेगी। इसके रुकने के बाद काफी लम्बे समय तक इससे हुए नुकसानों का पता लगेगा।
इस दौरान हमस के कई सैनिक कमांडर मारे गए हैं।
हमस
की भूमिका
हमस मूलतः उग्रवादी
संगठन है, पर 2005 के बाद से उसने गज़ा पट्टी के इलाके में राजनीतिक प्रक्रिया
में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। वह फलस्तीनी अथॉरिटी के चुनावों में शामिल होने
लगा। गज़ा में फतह को चुनाव में हराकर उसने प्रशासन अपने अधीन कर लिया है। अब फतह
गुट का पश्चिमी तट पर नियंत्रण है और गज़ा पट्टी पर हमस का। अंतरराष्ट्रीय समुदाय
पश्चिमी तट के इलाके की अल फतह नियंत्रित फलस्तीनी अथॉरिटी को ही मान्यता देता है।
हमस की स्थापना सन
1987 में हुई थी। मूलतः इसका चार्टर इसराइल के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता,
साथ ही इस इलाके में शांति-स्थापना के प्रयासों को वक्त की बरबादी और बेहूदगी
मानता था। पर सन 2017 में उसने अपने चार्टर में कुछ बदलाव किया है। अब उसका चार्टर
कहता है कि हमारी लड़ाई यहूदियों से नहीं, बल्कि ज़ियनवादियों के फलस्तीन पर कब्जे
के विरुद्ध है। इसकी पेशकश है कि यदि इसराइल 1967 में के गए कब्जे से पीछे हट जाए,
तो हम शांति-समझौता कर सकते हैं।
इसराइल की स्थापना के
लिए 1948 में संरा ने एक प्रस्ताव तैयार किया था। पर इसे अरब देशों ने स्वीकार
नहीं किया, पर इसराइल ने अपनी घोषणा कर दी। घोषणा होते ही लड़ाई छिड़ गई थी। संघर्ष
विराम होने तक इसराइल का काफी इलाके पर नियंत्रण हो चुका था। जॉर्डन के क़ब्ज़े
वाली ज़मीन को वेस्ट बैंक (यर्दन नदी का पश्चिमी किनारा) और मिस्र के क़ब्ज़े वाली
जगह को गज़ा के नाम से जाना गया। यरूशलम को पश्चिम में इसराइल और पूर्व को जॉर्डन
के बीच बाँट दिया गया।
सन 1967 में अगला युद्ध लड़ा गया, जिसमें इसराइल ने पूर्वी यरूशलम और
वेस्ट बैंक पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। यही नहीं इसराइल ने सीरिया के गोलान हाइट्स,
गज़ा और मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप के
अधिकतर हिस्सों पर भी क़ब्ज़ा जमा लिया। इसराइल दावा करता है कि पूरा यरूशलम उसकी
राजधानी है जबकि फ़लस्तीनी पूर्वी यरूशलम को भविष्य के फ़लस्तीनी राष्ट्र की
राजधानी मानते हैं। अमेरिका उन चंद देशों में से एक है जो पूरे शहर पर इसराइल के
दावे को मानता है। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में यरूशलम को अंतरराष्ट्रीय नगर
के रूप में अलग रखने की व्यवस्था थी।
असहमतियाँ
इसराइल और मिस्र गज़ा
की सीमा का कड़ाई से नियंत्रण करते हैं ताकि हमस तक हथियार न पहुँचें। गज़ा और
वेस्ट बैंक में रहने वाले फ़लस्तीनियों का कहना है कि वे इसराइली कार्रवाइयों और
पाबंदियों से पीड़ित हैं। वहीं, इसराइल
कहता है कि वह फ़लस्तीनियों की हिंसा से ख़ुद को बचा रहा है।
ऐसे कई मुद्दे हैं
जिस पर इसराइली और फ़लस्तीनियों के बीच सहमति नहीं है। जैसे कि फ़लस्तीनी
शरणार्थियों के साथ क्या होना चाहिए, क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियों का क्या किया
जाएगा, वे हटाई जाएँगी या
नहीं। यरूशलम को दोनों पक्ष कैसे बाँटेंगे और इसके साथ ही सबसे मुश्किल समस्या यह
है कि फ़लस्तीनी राष्ट्र इसराइल के साथ बनाया जाएगा या कहीं और।
डोनाल्ड ट्रंप जब
राष्ट्रपति थे तब अमेरिका ने एक शांति समझौता तैयार किया था और ट्रंप ने इसराइल
प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के साथ इसे 'सदी का सौदा' बताया था। फ़लस्तीनियों ने इसे एकतरफ़ा
कहकर ख़ारिज कर दिया था। किसी भी समझौते के लिए दोनों पक्षों को कई जटिल मुद्दों
पर सहमत होना होगा, जो आसान नहीं लगता।
आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है. ऐसे ही आप अपनी कलम को चलाते रहे. Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.
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