तकरीबन दो हफ्ते की
जद्दो-जहद के बाद दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारियों का
संग्राम अनिर्णीत है। दिल्ली सरकार ने विधान सभा का विशेष सत्र बुलाने, केंद्र की
अधिसूचना को फाड़ने और उसके खिलाफ प्रस्ताव पास करने के बाद अंततः स्वीकार कर लिया
कि वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों के फैसलों पर उप-राज्यपाल की अनुमति
ली जाएगी। यदि एलजी और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद होगा तो संस्तुति राष्ट्रपति को
भेजी जाएगी। राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से फैसला करेंगे। यानी कुल
मिलाकर जैसा केंद्र सरकार कहेगी वैसा होगा। यह भी लगता है कि अंतिम फैसला आने तक
केंद्रीय अधिसूचना जारी रहेगी।
कुल मिलाकर हासिल क्या हुआ? बेहतर होता कि ये मामले समय रहते राष्ट्रपति के सामने उठाए
जाते। या अदालत का दरवाजा खटखटाया जाता। ऐसा नहीं हुआ, जिसके कारण बदमज़गी फैली और
तमाम तबादले और नियुक्तियों में अड़ंगा लगा और सरकारी काम-काज ठप पड़ गया। इससे भी
ज्यादा खराब बात यह हुई कि नौकरशाही का मनोबल गिरा, कुछ अफसरों के आचरण को लेकर
सार्वजनिक रूप से बयानबाज़ी हुई और दिल्ली की सरकार और केंद्र सरकार के रिश्ते
बिगड़े।
ऐसा नहीं कि दिल्ली में
मुख्यमंत्री और एलजी के अधिकारों को लेकर पहले विवाद न हुआ हो। पर ऐसा सांविधानिक
संकट की स्थिति कभी पैदा नहीं हुई। फौरी तौर पर सबसे गहरा असर नौकरशाही पर पड़ा
है। आईएएस अधिकारियों के केंद्रीय सेवाओं से जुड़े संगठन ने 25 मई को अपनी बैठक
करके दिल्ली प्रशासन से जुड़े कुछ अधिकारियों के साथ किए गए असम्मानजनक व्यवहार की
निन्दा की। अधिकारियों का कहना है कि उन्हें अपने कार्य के निर्वाह के लिए
स्वतंत्र, निष्पक्ष और सम्माननीय माहौल मिलना चाहिए।
एसोसिएशन ने जिन तीन मसलों
पर ध्यान दिलाया है उनमें से पहला मसला दिल्ली में उप-राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों
के अधिकार को लेकर पैदा हुए भ्रम के कारण उपजा है। इस दौरान अफसरों की पोस्टिंग का
सवाल ही नहीं खड़ा हुआ, अफसरों की ईमानदारी को लेकर राजनीतिक बयानबाज़ी भी हुई, जो
साफ-साफ चरित्र हत्या थी। दूसरा मसला है आईएएस काडर नियम 1954 का उल्लंघन और तीसरे
सिविल सर्विसेज बोर्ड का गठन न हो पाना। आईएएस अधिकारियों की बैठकें होती रहती हैं
और मसले उठते रहते हैं, पर इस बार बड़ी संख्या में अधिकारी मर्माहत हैं। यह बात
दिल्ली के प्रशासन में नज़र आ रही है।
पिछले बीसेक साल
से दिल्ली में व्यवस्था चल ही रही थी। आज ये बुनियादी सवाल क्यों उठे? निश्चित रूप से इसके
पीछे कोई राजनीति है। हमारी सांविधानिक व्यवस्था में चुनावी चक्रव्यूह को पार करने
वाला खुद को महारथी मान लेता है। इस महारथी-राजनीति के इर्द-गिर्द तमाम स्वार्थ
विचरण करते हैं। ऐसे में स्वतंत्र नौकरशाही से जनता को उम्मीद हो सकती थी। यहाँ
स्वतंत्र का मतलब निर्द्वंद नहीं है। दिक्कत यह है कि रोजमर्रा व्यवस्था को चलाने
वाली नौकरशाही राजनीति के शिकंजे में है या उसका इससे गठजोड़ है।
दिल्ली में
मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारों का विवाद व्यक्तिगत अहं की लड़ाई न
होकर राजनीतिक संकट की एक झलक भर है। यदि केवल अहं की लड़ाई होती तो यह निपट गया
होता। इसमें अंतर्निहित राजनीति भी एक हद तक ठीक थी, पर नौकरशाही पर मोर्चा खोलने
से तस्वीर का बदनुमा चेहरा सामने आया है। अधिकारों का विवाद अदालत में आ जाने के
बाद इस बात की सांविधानिक-व्याख्या होगी कि प्रशासनिक सेवाओं पर किसका नियंत्रण
है। पर इससे नौकरशाही के दुरुपयोग की शिकायत खत्म नहीं होगी।
दिल्ली में इधर
जो कुछ हुआ, वह ज्यादातर राज्यों में होता रहता है। लम्बे अरसे से यह माँग होती
रही है कि प्रशासनिक मशीनरी को अपने रास्ते पर चलने का मौका दिया जाए तभी व्यवस्था
पटरी पर चलेगी। केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार दोनों को इस बात का गुमान है कि
उनके पास भारी जनादेश है। पर केवल जनादेश सारी बात तय नहीं करता। दिल्ली में विवाद
का मूल कारण है इसका पूर्ण राज्य न होना। देश की राजधानी होने के नाते उसे पूर्ण
राज्य बनाना बेहद मुश्किल और जोखिमों से भरा काम है। केंद्र से सीधा टकराव मोल
लेने वाली सरकार को दिल्ली की पूरी गद्दी सौंप देने के निहितार्थ हमें समझने
होंगे। यह पूरी बात का एक पहलू है। दूसरा पहलू है प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप।
दिल्ली की बैठक में अधिकारियों
ने राष्ट्रपति से गुहार की है, जो उनकी नियुक्ति करते हैं। उन्हें इस बात पर
आपत्ति है कि आईएएस काडर के पदों पर गैर-काडर अधिकारियों की नियुक्ति की जा रही
है, जो आईएएस काडर नियम 1954 का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट के अलावा कई राज्यों के
हाईकोर्ट इस बात को रेखांकित कर चुके हैं कि ये नियम सांविधानिक व्यवस्था के
अनुसार बने हैं और किसी भी राज्य सरकार को इनके साथ छेड़छाड़ का अधिकार नहीं है।
शिकायत केवल दिल्ली से ही नहीं है। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ से भी शिकायतें मिलीं
हैं।
प्रशासनिक सुधार
के साथ-साथ हमें राजनीतिक सुधार भी चाहिए। राजनीतिक गोलाबारी में प्रशासनिक मशीनरी
के घिर जाने के बाद हालात खराब हुए हैं। सरकारी अफसर जनता के बीच से चुनकर नहीं
आते, पर वे हमारी संविधानिक व्यवस्था का अंग हैं। उनके चयन, प्रशिक्षण और
कार्य-संचालन की एक सुपरिभाषित प्रणाली है। उसमें कहीं कोई खामी है तो उसे
प्रशासनिक तरीके से ही हल किया जाना चाहिए। राजनीतिक बयानबाज़ी और रैलियों का विषय
इन्हें नहीं बनाया जाना चाहिए।
लगभग डेढ़ साल
पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में सिविल सेवा बोर्ड के गठन, अधिकारियों के कार्यकाल की सुरक्षा और लिखित
रूप में दिशा-निर्देश देने का सुझाव दिया था। सिविल सेवा बोर्ड पारदर्शिता और
मनमानी नियुक्तियों और तबादलों को रोकने के लिए बहुत जरूरी है। उनके कार्यकाल का
निर्धारण इसलिए जरूरी है कि वे जिम्मेदारी के साथ काम करें और उसमें बेवजह सियासी
दखल न होने पाए। लिखित रूप से दिशा-निर्देश पारदर्शिता के लिहाज से जरूरी हैं।
इस मामले में
जनहित याचिका दायर करने वालों में पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम सहित 83
सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी और साथ में 3,000 अन्य व्यक्ति शामिल थे। नौकरशाही के
कामकाज में आमूल सुधारों का सुझाव देते हुए न्यायाधीश के एस राधाकृष्णन की
अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा था कि संसद को एक कानून बनाना चाहिए जो नौकरशाहों की
नियुक्ति, तबादले तथा उनके खिलाफ
अनुशासनात्मक कार्रवाई का नियमन कर सके।
एक तरफ राजनीतिक
नेतृत्व में दोष है, वहीं लगभग पूरे देश में उसने नौकरशाही से गठजोड़ कर लिया है।
व्यवस्था कई तरह के गठजोड़ों के हाथों में चली गई है। इनमें अपराधी और दलाल भी शामिल
है। प्रशासन इनमें सबसे कमजोर कड़ी बनता जा रहा है, जबकि वह सबसे महत्वपूर्ण और
व्यावहारिक ‘कर्ता’ है। इस हाथ को कुशल और मजबूत बनाने की जरूरत है, कमजोर बनाने की नहीं।
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