नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा
का महत्वपूर्ण पहलू है कुछ कठोर बातें जो विनम्रता से कही गईं हैं। भारत और चीन के
बीच कड़वाहट के दो-तीन प्रमुख कारण हैं। एक है सीमा-विवाद। दूसरा है पाकिस्तान के
साथ उसके रिश्तों में भारत की अनदेखी। तीसरे दक्षिण चीन तथा हिन्द महासागर में
दोनों देशों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा। चौथा मसला अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का है। भारत
लगातार आतंकवाद को लेकर पाकिस्तानी भूमिका
की शिकायत करता रहा है। संयोग से पश्चिम चीन के शेनजियांग प्रांत में इस्लामी
कट्टरतावाद सिर उठा रहा है। चीन को इस मामले में व्यवहारिक कदम उठाने होंगे।
पाकिस्तानी प्रेरणा से अफगानिस्तान में भी चीन अपनी भूमिका देखने लगा है। यह
भूमिका केवल इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि अफगान सरकार और
तालिबान के बीच मध्यस्थता से भी जुड़ी है।
चीन के
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में मोदी ने चीन से उन कुछ मुद्दों पर अपने
रुख पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया, जिनके कारण दोनों देशों का सहयोग पूरी शिद्दत
से सामने नहीं आ रहा है। इस संबंध में वास्तविक नियंत्रण रेखा के प्रति स्पष्टता
महत्वपूर्ण है। दोनों देशों ने अपनी सेनाओं के बीच सीमा-सम्बद्ध बैठकों की संख्या
बढ़ाने का निर्णय किया। साथ ही सीमा पर शांति और स्थिरता बनाए रखने की जरूरत को
रेखांकित किया। पिछले साल सितम्बर में राष्ट्रपति शी चिनफिंग की यात्रा के बाद
जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया था कि अब दोनों सरकारों का ध्यान सीमा के मसलों
को सुलझाने पर केंद्रित होगा. भारत-चीन सीमा-वार्ता का अठारहवाँ दौर मार्च के
महीने में दिल्ली में हुआ है। दोनों देश चाहते हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को
परिभाषित करके समाधान के दूसरे चरण की ओर बढ़ा जाए।
मोदी ने चीन को उन
बातों पर अपने रुख पर पुनर्विचार की सलाह दी है, जो आँख की
किरकिरी हैं। इनमें अरुणाचल प्रदेश के लोगों को नत्थी वीजा देने का मामला सबसे आगे
है। भारत ने अपने राजनयिक चैनल से चीन के सामने ‘चीन-पाकिस्तान कॉरीडोर’ को लेकर आपत्तियाँ दर्ज
कराई हैं। चीन अरुणाचल और जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानता है। इसलिए वह
स्टैपल्ड वीजा जारी करता है। पर वह कश्मीर के रास्ते से कॉरीडोर बनाने का समझौता
भी करता है। यह इलाका विवादित है तो पाकिस्तान से समझौता कैसा?
मोदी ने चीन से यह
भी कहा है कि वह सुरक्षा परिषद और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत की सदस्यता
के दावे का समर्थन करे। पहली बार चीन ने भारत के इस दावे का औपचारिक रूप से उल्लेख
किया है। सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में चीन को छोड़कर शेष चार भारत की
सदस्यता का समर्थन कर चुके हैं। केवल चीन ने ही समर्थन नहीं किया था। उसकी
शब्दावली में ‘समर्थन’ शब्द आज भी नहीं है, पर पहली बार उसने 48 सदस्यीय एनएसजी का सदस्य बनने के
भारत के हित का संज्ञान लिया है। सुरक्षा परिषद के बाबत उसका कहना है कि वह विश्व
निकाय में बड़ी भूमिका निभाने की भारत की आकांक्षा का समर्थन करता है।
बहरहाल वैश्विक राजनीति
तेजी से करवटें ले रही है। हमें पश्चिमी देशों के साथ अपने रिश्तों को परिभाषित
करना है तो चीन और रूस की विकसित होती धुरी को भी ध्यान में रखना है। मोदी की चीन
यात्रा के ठीक पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की रूस यात्रा की ओर भी नज़र डालनी
चाहिए। द्वितीय विश्वयुद्ध में नाज़ी जर्मनी पर मित्र राष्ट्रों की विजय की 70वीं
वर्षगाँठ के मौके पर हुई विशाल परेड में वे विशेष अतिथि थे। भारतीय सेना का एक
दस्ता भी उस परेड में शामिल हुआ। भारत के अलावा चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग भी
उस परेड में विशेष अतिथि थे। पश्चिमी देशों का कोई बड़ा राष्ट्रीय नेता इस परेड का
अतिथि नहीं था। भारतीय सेना की टुकड़ी के अलावा चीन के एक फौजी दस्ते ने भी परेड
में हिस्सा लिया। यह पहला मौका था जब भारतीय सेना ने रूसी और चीनी सेना के साथ कबायद
की।
इस परेड के बरक्स उभरते ‘रूस-भारत-चीन’ त्रिकोण की तरफ
अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों का ध्यान गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का इस
साल 26 जनवरी की परेड में शामिल होना जहाँ एक महत्वपूर्ण घटना थी, वहीं मोदी की
चीन यात्रा दूसरी महत्वपूर्ण घटना है। राजनयिक घटनाक्रम लगातार बदल रहा है। हाल में एक चीनी पहल ने
वैश्विक आर्थिक संरचना में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दी है। अक्तूबर 2014 में चीन
की पहल पर एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) के गठन की घोषणा की
गई थी। भारत भी इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है। वस्तुतः यह बैंक विश्व बैंक,
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियाई विकास बैंक के समांतर एक नई संस्था के रूप में
सामने आया है। इसमें अमेरिका, कनाडा और जापान को छोड़ दुनिया के ज्यादातर देशों ने
सदस्य बनने की अर्जी दी है।
भारत की विदेश
नीति धीमी गति से चलती है और उसमें निरंतरता होती है। वह अचानक पलटी नहीं खाती।
साथ ही किसी खास धुरी में शामिल नहीं होती। फिलहाल इतना लगता है कि भारत सरकार
आर्थिक समीकरणों का फायदा उठाने की कोशिश करेगी। इसके लिए वह क्षेत्रीय संगठनों
में शामिल होगी। हाल में अमेरिकी साप्ताहिक ‘टाइम’ के साथ इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि हम चीन के
साथ सहयोग बढ़ाना चाहेंगे। यह अमेरिका के लिए संदेश है, पर भावी वैश्विक तस्वीर
में अमेरिका के प्रतिस्पर्धी के रूप में चीन और मित्र के रूप में भारत उभर रहा है।
यह तस्वीर न तो दो रोज़ में बनेगी और न दो रोज में बिगड़ेगी।
सीमा और सामरिक प्रश्नों से
ज्यादा बड़े सवाल आर्थिक रिश्तों से जुड़े हैं। चीन हमारे प्रमुख व्यापारिक सहयोगी
देशों में से एक है। तकरीबन सत्तर अरब डॉलर से ऊपर का हमारा सालाना व्यापार है जो
100 अरब को छू जाता, पर भारत ने इसमें हाथ खींचना शुरू कर दिया है। कारण है वह
असंतुलन जो बढ़ता जा रहा है। आयात ज्यादा है और हमारा निर्यात कम। भारत चाहता है
कि चीन भी हमारे लिए अपना बाज़ार खोले। हमारी दवाइयों, आईटी सेवाओं और औद्योगिक
उत्पादों को जगह दे।
भारत को अपने
आधार ढाँचे के विकास के लिए तकरीबन एक लाख करोड़ डॉलर (1 ट्रिलियन) की जरूरत है जिसे विश्व बैंक और
एडीबी पूरा नहीं कर सकते हैं। नए एशिया इंफ्रास्ट्रक्चर विकास बैंक से भारत के लिए
नए विकल्प खुलेंगे। चीनी पूँजी के निवेश के लिए दूसरे देशों के मुकाबले भारतीय
अर्थ-व्यवस्था सुरक्षित और स्थिर साबित होगी। बावजूद इसके भारत अपनी भावी रक्षा
रणनीति के मद्देनज़र अमेरिका-जापान और ऑस्ट्रेलिया के सम्पर्क में बना रहेगा।
जी
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