Friday, October 12, 2012

तोता राजनीति के मैंगो पीपुल

भारतीय राज-व्यवस्था के प्राण तोतों में बसने लगे हैं। एक तोता सीबीआई का है, जिसमें अनेक राजनेताओं के प्राण हैं। फिर मायावती, मुलायम सिंह, ममता और करुणानिधि के तोते हैं। उनमें यूपीए के प्राण बसते हैं। तू मेरे प्राण छोड़, मैं तेरे प्राण छोड़ूं का दौर है। ये सब तोते सात समंदर और सात पहाड़ों के पार सात परकोटों से घिरी मीनार की सातवीं मंजिल में सात राक्षसों के पहरे में रहते हैं। तोतों, पहाड़ों और राक्षसों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, और राजकुमार लापता हैं। तिरछी गांधी टोपी सिर पर रखकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में कटी बत्तियाँ जोड़ रहे हैं। हाल में उन्होंने गांधी के हिन्द स्वराज की तर्ज पर एक किताब लिखी है। टोपियाँ पहने  आठ-दस लोगों ने एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की है। पिछले 65 साल में भारतीय राजनीति में तमाम प्रतीक और रूपक बदले पर टोपियों और तोतों के रूपक नहीं बदले। इस दौरान हमने अपनी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और नेताओं की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। आम आदमी ‘मैंगो पीपुल’ में तब्दील हो गया है। संज़ीदगी की जगह घटिया कॉमेडी ने ले ली है। 
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बुधवार को सीबीआई तथा भ्रष्टाचार विरोधी सरकारी संगठनों के अधिकारियों की बैठक में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वे कॉरपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार को भी भ्रष्टाचार निवारण कानून में शामिल करने की सलाह दे रहे हैं। उनकी इस बात पर यकीन किया जाना चाहिए कि नई आर्थिक नीतियों ने पुराने तरीके के भ्रष्टाचार को कम किया है तो उसकी जगह नए तरीके के भ्रष्टाचार ने ली है। सन 1991 में जब पहली बार उर्वरक पर सब्सिडी खत्म करने की घोषणा की थी, उस वक्त देश की हजारों ऐसी कम्पनियों का पता लगा जो न तो खाद बनाती थीं और उन्हें बेचती थीं। बस सब्सिडी लेती थीं। गायों के कान काटकर बीमे की राशि वसूलने का प्रसंग खासा चर्चित है। सरकारी राशन की दूकानों से लेकर रेलवे रिज़र्वेशन के काउंटर तक भ्रष्टाचार का जो रूप था वह कम हुआ है, पर टू-जी और सीडब्ल्यूजी जैसे नए रूपों में उभर कर आया है। इधर सरकारों ने तमाम कार्यों से हाथ खींचकर निजी क्षेत्र को आगे आने का मौका दिया है। इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, पेयजल और सामाजिक सेवा के काम शामिल हैं। ये काम निजी क्षेत्र को मिले हैं तो उसकी जवाबदेही भी बढ़नी चाहिए। 

प्रधानमंत्री ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही कि हमें नकारात्मकता से बचना चाहिए। देश में सरकार और व्यवस्था को लेकर गहरी नकारात्मक समझ है। क्या वास्तव में सब चोर हैं? ऐसा होता तो व्यवस्था कब की बैठ चुकी होती। पिछले दो साल से कई तरह के घोटालों और अनियमितताओं की खबरों ने हमारे देश के माहौल में सनसनी पैदा कर रखी है। अर्थव्यवस्था अभी बदलाव के संधिकाल में है। हमारी तुलना चीन से होती है, पर सरकार की बनावट और सामाजिक बुनावट में हम चीन से काफी फर्क देश हैं। चीन की सरकारी संरचना और व्यापारिक रूपांतरण में काफी फर्क है। पर हमारे यहाँ मीडिया के खुलेपन के कारण चीन जैसी स्थिति नहीं है। हमारे यहाँ का मीडिया घोटालों का लाइव प्रसारण करता है। इतने खुले मीडिया के बरक्स हमारी सरकारी संस्थाएं खुली नहीं हैं। हमने जनता को जानकारी पाने का अधिकार तो दे दिया, पर सरकारी मशीनरी को उसके अनुरूप तैयार नहीं किया है। फिर भी बदलाव की अनिवार्य शर्त है कि होना इसी व्यवस्था के तहत है, इसलिए चोर-चोर का शोर मचाकर इसे बदनाम करने के बजाय इसे सुधारने की कोशिश की जाए। 

सन 1991 के बाद अर्थव्यवस्था के जितने सेक्टर खुले हैं सब में किसी न किसी किस्म की शिकायत है। सबसे पहले सुखराम और कुछ सरकारी अधिकारियों को सजा मिली। उसके बाद ए राजा को जेल जाना पड़ा। कलमाडी जेल गए। और अभी अनेक राजनेता जाएंगे। व्यवस्था को इसके लिए तैयार होना है। पर उसे सड़क पर नहीं सुधारा जा सकता। उसके लिए संसद का सहारा चाहिए। पर यह ज़माना गठबंधन सरकारों का है। गठबंधन सरकारें पहली नज़र में खतरनाक लगती हैं, पर उतनी खतरनाक होती नहीं हैं। सरकारों का बेहद ताकतवर होना भी खतरनाक होता है। चीन की ताकतवर सरकार जो चाहे कर सकती है, पर जिस दिन वहाँ की व्यवस्था पारदर्शी होगी उस दिन वहाँ भी पुराने प्रसंग उठेंगे। पश्चिमी देशों का लोकतंत्र इस दौर से गुजर चुका है। कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा कानून बन गया तो दिल्ली और मुम्बई के कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स जेलों में तब्दील हो जाएंगे। सन 1991 के उदारीकरण के बाद से घोटालों का आयाम अचानक बढ़ा है। पहले लाख-दस लाख के होते थे, फिर करोड़ों के होने लगे। अब अरबों के होते हैं। हर्षद मेहता का शेयर बाजार घोटाला इनमें पहला था। क्या यह उदारीकरण की देन है?  मामले आज खुल रहे हैं तो इनका ठीकरा उदारीकरण के सिर नहीं फोड़ना चाहिए। उदारीकरण की अनिवार्य शर्त है व्यवस्था का पारदर्शी होना। इसे पारदर्शी बनाने की कोशिशों को ज़री रखना चाहिए।   

आधुनिक लोकतंत्र और पूँजीवाद दोनों के विकास पर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि एक ओर व्यवस्था पर कब्जा करने की कुछ ताकतवर लोगों की कोशिशें हैं तो दूसरी ओर इन कोशिशों से लड़ने वाली ताकतें एकताबद्ध होती हैं। कम्पनियों में शेयर होल्डरों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है। अभी तक कोई एक या दो सेठों के परिवार हावी रहते थे। अब आम जनता की हिस्सेदारी बढ़ रही है। छोटे इनवेस्टरों की तादाद बढ़ती जा रही है। कॉरपोरेट गवर्नेंस और सिविल गवर्नेंस दोनों में पारदर्शिता पर जोर है। और यह वैश्विक प्रवृत्ति है, केवल भारत की ही नहीं। भारत में पुराने ज़माने से भ्रष्टाचार चला आ रहा है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में चालीस किस्म के आर्थिक घोटालों का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि यह सम्भव नहीं कि सरकारी कर्मचारी ज़ुबान पर रखी शहद की बूँद का स्वाद नहीं लेगा। यह नज़र रखना मुश्किल है कि मछली कितना पानी पीती है। कौटिल्य ने भ्रष्ट आचरण के खिलाफ बेहद कड़े कानूनों की व्यवस्था की थी। मुगल शासन में सरकारी घोड़ों की खरीद से लेकर राजस्व वसूली तक भ्रष्टाचार था। बख्शीश शब्द मुगल दरबारों से ही आया है। अंग्रेज कम्पनी सरकार ने आधुनिक भ्रष्टाचार की नींव डाली। गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के खिलाफ इसी किस्म के आरोपों को लेकर महाभियोग चला था। इसी तरह पॉल बेनफील्ड नाम के इंजीनियर की कहानी है, जिसे कई बार नौकरी से हटाया गया। वह जब वापस गया तो लाखों की कमाई करके ले गया।

वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में बने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की चौदहवीं रपट गवर्नेंस की नैतिकता पर केन्द्रित है। जनवरी 2007 में पेश की गई यह रपट तमाम सरकारी रपटों की तरह कहीं पड़ी है। इसमें सार्वजनिक भ्रष्टाचार रोकने के ज्यादातर उपाय भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों में बदलाव के बाबत हैं। भ्रष्टाचार रोकने के साथ-साथ जनता की सेवा के कानूनों में भी बड़े बदलाव की ज़रूरत है। पिछले साल दिसम्बर में जब लोकपाल विधेयक पेश किया जा रहा था, दो और कानूनों की चर्चा थी। एक था ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण कानून और दूसरा सिटिज़न चार्टर। यानी सरकारी सेवाओं की समयबद्ध गारंटी। सामान्य व्यक्ति को अपने काम में दिक्कत आती है तब वह परेशान होता है। आज भी ऐसी व्यवस्थाएं नहीं हैं जो जनता के सही काम सही वक्त पर पूरे करने की गारंटी दे सकें। इन कानूनों को पास होना चाहिए। ये पास क्यों नहीं हो पाते हैं? क्या इसके लिए सिर्फ सरकार ज़िम्मेदार है? पिछले साल दिसम्बर में विरोधी दल चाहते तो लोकपाल कानून पास हो सकता था। सीबीआई को स्वतंत्र बनाने के मामले में लगभग सारे दल एकमत हैं कि इसे स्वतंत्र नहीं होना चाहिए। यह सबसे बड़ा पाखंड है। राजनीति के प्राण तोतों में नहीं जनता के दिल में बसने चाहिए। 
जनवाणी में प्रकाशित

2 comments:

  1. Botal me aam peeker mango people ka dil jab Tote tote ho go gaya to ye sthiti to aani hi thi

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  2. अच्छा लेख है! परीकथाओं के पात्र तोते एवं राक्षस को वर्तमान भारत के सन्दर्भ में देखते हुए भ्रष्टाचार के इतिहास को लेखक ने सामने रखा है; विशेषतः कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ४० प्रकार के घोटालों का ज़िक्र अपने आप में आँख खोलने वाला है. सकारात्मकता एवं नकारात्मकता का भी अच्छा अवलोकन है. केवल एक बात पर मैं लेखक से सहमत नहीं हूँ की अरविन्द केजरीवाल की पार्टी केवल १०-१२ टोपी पहने लोगों की पार्टी है. अरविन्द आज एक उम्मीद की किरण हैं जिनसे काफी लोगों को बहुत अधिक उम्मीदें हैं. अब वो ज्यादा लोगों से मीठी मीठी बातें नहीं करते तो मीडिया के कई लोग ये कहने लगे हैं की वे घमंडी हैं, किन्तु मुझे ये बात सही नहीं लगती.
    कंपनियों में छोटे इन्वेस्टरों का हस्तक्षेप बढ़ने की जो बात लेखक ने की है वह भी एक अच्छी बात है, देश के लिए भी और निवेशकों के लिए भी.
    Aashish

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