Friday, February 17, 2012

पश्चिम एशिया के क्रॉस फायर में भारत

बुधवार को ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेज़ाद ने तेहरान के रिसर्च रिएक्टर में अपने बनाए नाभिकीय ईंधन के रॉड्स के इस्तेमाल की शुरूआत करके अमेरिका और इस्रायल को एक साथ चुनौती दी है। इस्रायल कह रहा है कि पानी सिर से ऊपर जा रहा है अब कोई कड़ी कारवाई करनी होगी। ईरान ने नाभिकीय अप्रसार संधि पर दस्तखत कर रखे हैं। उसका कहना है एटम बम बनाने का हमारा इरादा नहीं है, पर ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारे एटमी कार्यक्रमों को रोका नहीं जा सकता। इसके साथ ही खबरें मिल रही हैं कि दिल्ली में इस्रायली दूतावास की कार पर हुए हमले का सम्बन्ध बैंकॉक की घटनाओं से जोड़ा जा सकता है।

दिल्ली में इस्रायली दूतावास की गाड़ी में हुआ विस्फोट क्या किसी बड़े वैश्विक महाविस्फोट की भूमिका है? क्या भारतीय विदेश नीति का चक्का पश्चिम एशिया की दलदल में जाकर फँस गया है? एक साथ कई देशों को साधने की हमारी नीति में कोई बुनियादी खोट है? इसके साथ यह सवाल भी है कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर क्यों है? दिल्ली के सबसे संवेदनशील इलाके में इस्रायल जैसे देश की अरक्षित कार को निशाना बनाने में सफल होना हमारी विफलता को बताता है। चिन्ता की बात यह भी है कि प्रधानमंत्री निवास काफी करीब था।


इस मामले के तमाम पहलू एक साथ सामने आए हैं। ईरान अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का क्या नया केन्द्र बन रहा है? भारत में इसके पहले ईरान से जुड़े या किसी भी शिया संगठन की आतंकी घटना के विवरण नहीं मिलते हैं। नब्बे के दशक में बैंकॉक और ब्यूनस आयर्स की कुछ घटनाओं का रिश्ता हिज़बुल्ला से जोड़ा जाता है। तिबलिसी में भी उसके समर्थकों का बेस है, पर भारत में उसके सक्रिय होने की कोई जानकारी नहीं है। नब्बे के दशक में कश्मीर में कुछ शिया संगठन भी हिंसा में शामिल थे, पर वे बेहद सामान्य बातें थीं। अल कायदा भी भारत में सक्रिय नहीं रहा है। भारत में इस्रायली प्रतिष्ठानों पर खास बड़े हमले भी कभी नहीं हुए। मुम्बई में 26 नवम्बर के हमलों के दौरान नरीमन हाउस में रहने वाले एक इस्रायली परिवार पर हमला पहली बड़ी घटना थी। उसका भी ईरान से कोई सम्बन्ध नहीं था।

इस्रायली सरकार ने घटना के फौरन बाद जिस गति से ईरान पर आरोप लगाया उससे लगता है कि पृष्ठभूमि में कुछ और बातें भी हैं। सोमवार को भारत और जॉर्जिया की घटनाओं के बाद मंगलवार को बैंकॉक में विस्फोट की एक घटना हुई जिसमें ईरानी नागरिकों के नाम सामने आए हैं। इसके कुछ रोज पहले बैंकॉक और ब्यूनस आयर्स में दो कोशिशें विफल कर दी गईं। इन आतंकी हमलों का समय भी कुछ घटनाओं से जुड़ता है। पिछले साल इन्हीं दिनों दो ईरानी वैज्ञानिकों की मौत लगभग इसी तरह के हमलों में हुई थी। चार साल पहले हिज्बुल्ला के एक सीनियर नेता का कत्ल भी इन्हीं दिनों हुआ था। तो क्या ईरान ने बदले की कारवाई की है? ईरान ने इन मामलों में अपना हाथ होने से न सिर्फ साफ मना किया है बल्कि कहा है कि ये घटनाएं इस्रायलियों की करामात हैं। भारत सरकार ने भी ईरान पर उंगली नहीं उठाई है।

भारत के लिए यह दुविधा की घड़ी है। इस्रायल और ईरान के साथ हमारे रिश्ते हैं। ईरान से हम तेल लेते हैं। यों भी मौके-बेमौको ईरान हमारा साथ देता रहा है। पाकिस्तान के बरक्स अंतरराष्ट्रीय डिप्लोमेसी में कई मौकों पर उसने हमारी मदद की है। पाकिस्तान के रास्ते भारत तक आने वाली पाइप लाइन की योजना अमेरिकी दबाव में रुक गई अन्यथा हमारी ऊर्जा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिहाज से वह बेहद ज़रूरी परियोजना थी। दूसरी ओर इस्रायल के साथ राजनयिक सम्बन्धों के भी दो दशक पूरे हुए हैं। इस दौरान हमने सुरक्षा से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर मिलकर काम किया है।

अफगानिस्तान, इराक और लीबिया में फतह के बाद अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में ईरान ही अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा है। पश्चिम एशिया में पेट्रोलियम का सबसे महत्वपूर्ण देश सऊदी अरब अमेरिका के साथ पहले से है। परमाणु कार्यक्रम के नाम पर ईरान इस वक्त अमेरिका के निशाने पर है। उसके खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के चार प्रस्ताव हैं। इन प्रस्तावों में फौजी चढ़ाई की कारवाई ही बची है, वर्ना हर तरीके के प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं। अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने अपनी तरफ से प्रतिबंध ऊपर से लगाए हैं।

अमेरिका और इस्रायल का आरोप है कि ईरान एटम बम बनाने जा रहा है। पर ये आरोप पूरी तरह निर्विवाद नहीं हैं। सन 2007 में अमेरिका के नेशनल इंटेलिजेंस एस्टिमेट ने ईरानी बम की सम्भावना को बेबुनियाद बताया था। आज भी बराक ओबामा से हिलेरी क्लिंटन तक मानते हैं कि बम बनाने की तकनीक विकसित करने में ईरान को कई साल लगेंगे। पिछले साल आईएईए के निरीक्षकों ने माना था कि ईरान इस मामले में काफी पारदर्शिता बरत रहा है, पर ताज़ा रिपोर्टों में उस पर उंगली उठाई जा रही है। ईरानी एटमी कार्यक्रम पर परोक्ष हमले भी हुए हैं। जैसे कि उसके कम्प्यूटरों में स्टक्सनेट नाम का वायरस डाला गया। इससे उसके रिसर्च कार्यक्रम पर असर पड़ा। इधर खबरें हैं कि ईरान ने इस वायरस को नष्ट कर दिया है औऱ पूरा कम्प्यूटर सिस्टम बदल दिया है।

जैसे आरोप आज ईरान पर लग रहे हैं तकरीबन वैसे ही आरोप इराक पर लगाए गए थे, जो बाद में गलत साबित हुए। तो क्या यह माना जाए कि लीबिया से निपटने के बाद अमेरिका अब ईरान पर हमला बोलने की भूमिका बना रहा है? इतने बड़े संग्राम की सम्भावनाओं को क्या ईरान मामूली आतंकी हमलों से टाल देगा? और क्या अमेरिका और इस्रायल इन आतंकी हमलों से घबरा जाएंगे? लगता यह है कि इनके सहारे वैश्विक जनमत बनेगा। भारत जैसे देशों में अभी तक ईरान की छवि खराब नहीं है। उसे दोस्त देश माना जाता है। आतंकी घटनाओं से उसकी छवि खराब होगी। तब क्या किसी ने ईरान की छवि खराब करने की योजना बनाई है? या इस क्रॉस फायर में भारत को फँसाकर उसकी विदेश नीति को प्रभावित करने की योजना बनाई है?

ईरान का संकट हवाई नहीं है। अपने ऊपर लगे आर्थिक प्रतिबंधों के जवाब में ईरान ने होर्मुज़ स्ट्रेट से जहाजों के आने-जाने पर रोक लगाने की धमकी दी है। उधर ईरानी बैंकों पर अमेरिका और कड़े प्रतिबंध लगाने की कोशिश में है। ईरान के क़ुम स्थित न्यूक्लियर प्लांट पर इस्रायली हवाई हमले को लेकर अटकलें हैं। सारी दुनिया की निगाहें इस तरफ घूम गईं हैं। यह लड़ाई शुरू हुई तो उसके परिणाम दूरगामी होंगे।

दिल्ली में हुए आतंकी हमले का आयाम क्या इतना बड़ा है? ऊर्जा जरूरतें हमारी ही नहीं सारी दुनिया की हैं। अमेरिका और युरोप इस वक्त आर्थिक संकट से घिरे हैं। लड़ाई क्या उनके लिए फायदेमंद होगी? या वे अपने संकट का समाधान इस लड़ाई में देख रहे हैं? अमेरिका का उद्देश्य नाभिकीय अप्रसार ही नहीं है। ऐसा होता तो वह इस्रायली एटमी प्रोग्राम के बारे में सोचता। इस्रायल के पास एटम बम है और उसपर पाबंदियाँ भी नहीं हैं। भारत और पाकिस्तान के अलावा उत्तरी कोरिया भी एटमी धमाके कर चुका है। ईरान ने न सिर्फ एनपीटी पर दस्तखत किए हैं। वह आईएईए के निरीक्षण को तैयार है। पाबंदियों और हमलों के बाद तो वह अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से और दूर चला जाएगा। इस मसले का एक आयाम ईरान में सत्ता-प्रतिष्ठान के विरोधियों से भी जुड़ा है। इन विरोधियों में से कुछ लोग पाकिस्तान में भी हैं। पश्चिम एशिया में ईरान और अरब देशों के बीच भी टकराव है। किसी ने दिल्ली-हमले को लश्करे तैयबा से जोड़ने की कोशिश भी की है। सवाल है कि हमारी खुफिया एजेंसियाँ क्या इस रहस्य को खोल पाएंगी?

बहरहाल किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। अमेरिका-इस्रायल और ईरान दोनों के साथ हमारे रिश्ते हैं। कोशिश यही होनी चाहिए कि मामला जल्द से जल्द सुलझे। पश्चिम एशिया के अंतर्विरोधों में शामिल होने के बजाय उनसे बचे रहने में ही समझदारी है।

जनवाणी में प्रकाशित




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