Friday, February 10, 2012

हाइपर मीडिया और हमारे स्टार


अभी पिछले दिनों यह खौफनाक खबर आई कि युवराज के सीने में कैंसर पनप रहा है। साथ में दिलासा भी थी कि इस बीमारी का इलाज संभव है। एक बेहतरीन खिलाड़ी, जिसने देश का सम्मान कई बार बनाया और बचाया अचानक संकट में आ गया। हम सब हैरान और परेशान हैं। इस हैरानी के बरक्स अचानक युवराज खबरों में आ गए। युवराज ही नहीं उनके फिजियो, फिजियो की डिगरी, युवराज के पिताजी, जोकि खुद भी क्रिकेटर रह चुके हैं और डॉक्टर तमाम लोग टीवी पर शाम के शो में उतर आए। और उसके बाद? उत्तर प्रदेश में मतदान की खबरें आने लगीं। कैमरा पैन कर दिया गया। विषय बदल गया, सरोकार बदल गए। युवराज की खबर पीछे चली गई, और सियासी समर की खबरें परवान चढ़ने लगीं।


हममें से बहुतों को याद होगा कि 1982 में अमिताभ बच्चन एक शूटिंग के दौरान घायल हो गए थे। तब इतने सारे टीवी चैनल नहीं थे, वह दूरदर्शन का ब्लैक ऐंड ह्वाइट जमाना था। अमिताभ तब तक इतने प्रसिद्ध हो चुके थे कि वे जब ठीक होकर घर आए, तो सैकड़ों की भीड़ रास्ते के दोनों ओर खड़ी थी। पर अमिताभ तब भी आज जैसे महानायक नहीं थे। इसके बाद वह राजनीति में गए और विफल होकर वापस लौट आए। उनके पराभव का वह दौर था। वर्ष 2000 में कौन बनेगा करोड़पति ने जब अमिताभ को रिइनवेंट किया, तब तक हम ग्लोबलाइज हो चुके थे। और आज अमिताभ ही नहीं, मोतिहारी के सुशील कुमार भी अपने इलाके की सेलिब्रिटी हैं, जिन्होंने केबीसी के पिछले संस्करण में पांच करोड़ का इनाम जीता।

मार्शल मैकलुहान के एक सिद्धांत के सहारे गढ़कर निकली है, ‘फिफ्टीन मिनिट्स ऑफ फेम’ की अवधारणा। आने वाले वक्त में लोग अपने महानायक जल्दी-जल्दी बदलेंगे। और वे पंद्रह मिनट के लिए फेमस होंगे। फेमस होने की तमाम नई कामनाएं कतार में होंगी। महानायक शब्द पुराना पड़ चुका है। अब सेलिब्रिटी हैं, और उनके शो हैं। जिनमें वे एक-दूसरे को गरियाते, धकियाते, खुशामद करते और फजीहतें उछालते हैं।

'मीडिया डेमोक्रेसी' हाल में गढ़ा गया शब्द है। यह अवधारणा नहीं, असलियत है, जिससे हम अकसर रूबरू होते हैं। हमारी प्राथमिकताएं, पसंद-नापसंद अब हमारी नहीं हैं। मीडिया ने हमारे लिए मुकर्रर की हैं, हमारे सहयोग से। एसएमएस वोटिंग में बेसुरा गानेवाला अकसर अच्छे गायकों को हराता है। गाने-बजाने, नाचने और चुटकुले सुनाने वालों का फैसला आप अपने मोबाइल फोन से करते हैं।

हमारी 65 फीसदी जनसंख्या नौजवान है। इन नौजवानों का शहरी संस्करण किसी भी तरह आकर्षक और प्रसिद्ध बनना चाहता है, ताकि वह स्टारों की तरह भीड़ खींचे और पैसा भी कमाए। बॉलीवुड, क्रिकेट, पेज थ्री और रैम्प-संस्कृति की यह देन है, जिसका दायरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। गलत या सही, इस पर राय भिन्न हो सकती है, पर वह है। मध्यवर्गीय परिवार शूटिंग, क्रिकेट या छोटे परदे के कलाकारों के रियलिटी शो देखने के लिए बेहिसाब पैसा खर्च करने में संकोच नहीं करते।

आईपीएल क्रिकेट में इमीडिएसी है। आपने अकसर एकदम नामालूम खिलाड़ियों को छक्के पर छक्का जमाते देखा होगा। उसके बाद वह कहां चला जाता है, पता नहीं। युवराज खेल के तीनों संस्करणों टेस्ट, वन-डे और ट्वंटी-20 के सफल खिलाड़ियों में गिने जाते हैं। उनके प्रशंसकों की संख्या भी काफी बड़ी है, पर उन्हें सिर्फ खेल की वजह से ही पसंद नहीं किया जाता। वह मैदान में सिर्फ अपने खेल की बदौलत ही नजर आते हैं, किसी अन्य कारण से नहीं। सेलिब्रिटी बनने के नियम उनके लिए अलग नहीं हैं।

संसदीय बहस या मीडिया चौपालों में हास्यास्पद बात करके कई नेता नजरों में बने रहते हैं। वे तभी तक प्रसिद्ध हैं, जब तक नजर आते हैं। महत्वपूर्ण है, लगातार नजरों में चढ़े रहना। अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर सोनिया गांधी तक की बीमारी मीडिया की सुर्खियों में रही। ऐसे मौकों पर अकसर मीडिया प्राइवेसी का उल्लंघन कर जाता है। उसमें रहस्य और सनसनी का तत्व खोजता है। बीमारी मीडिया में नहीं जीवन शैली में है। सेलिब्रिटी शब्द हमारे यहां कुछ देर से आया है।

पुराने नायक या तो राजनेता थे, जैसे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, भगत सिंह, सुभाष बोस। या फिर फिल्मी कलाकार जैसे राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, सुनील दत्त, सायरा बानो, नर्गिस वगैरह। दोनों में नजरों का खेल था। पर खेल की सीमा थी, वह मीडिया में नहीं, मैदान में खेला जाता था। इसीलिए जबर्दस्त उपलब्धियों के बावजूद हॉकी के जादूगर ध्यानचंद सेलिब्रिटी नहीं बने।

अपने वक्त में दुनिया का सर्वश्रेष्ठ टच प्लेयर होने के बावजूद रामनाथन कृष्णन की कलाई का दर्द अखबारों की लीड खबर कभी नहीं बना। वर्ष 1983 में वर्ल्ड कप क्रिकेट जीतने के पहले तक भारतीय मीडिया उस उपलब्धि से परिचित नहीं था। उसका सीधा टीवी प्रसारण तक नहीं हो रहा था। पर उसके बाद खेल का जिम्मा किसी और ने ले लिया।

अब खेल, सिनेमा और संगीत सेलिब्रिटी बनाता है, और जीवन शैली भी। ये मीडिया के केंद्रीय विषय हैं। इनका आपके जीवन के करीब होने से रिश्ता नहीं है। टाइगर वुड्स किस खेल को खेलते हैं और वह खेल होता क्या है, इसे जाने बगैर इनके पोस्टर नौजवान पीढ़ी के कमरों में लगते हैं। माइकेल जॉर्डन और मैजिक जॉनसन के फर्क को जाने बगैर हम इनके प्रशंसक हैं, क्योंकि मीडिया इन्हें फ्लैश करता है। और इनसे जुड़ी खबरें चिल्ला-चिल्लाकर सुनाता है।

ब्रिटनी स्पीयर्स, जूलिया रॉबर्ट्स, जे-ज़ी, लेडी गैगा और ओपरा विनफ्रे के कृतित्व से शायद हम परिचित हैं। पर वे हमारे सेलिब्रिटी इसलिए हैं, क्योंकि हमारे पास उनकी फीड या फुटेज काफी है। किम कार्डेशियन की शानदार लाइफस्टाइल हमारे बिछ जाने के लिए पर्याप्त है। इस साल अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव है। वहां का जोशो-जुनून हमें भी देखने को मिलेगा, जिसे टाइम ने ‘इलेक्टोटेनमेंट’ नाम दिया है। पर देखिए, इस दौरान कहीं हम अपने युवराज को भुला न दें।

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