Friday, September 9, 2011

आत्मविश्वास हमारा, या आतंकवादियों का?




दो दिन बाद 9/11 की दसवीं बरसी है। 9 सितम्बर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के अलावा दो और इमारतें ध्वस्त हो गईं थीं। सोलह एकड़ का यह क्षेत्र अमेरिकी जनता के मन में गहरा घर कर गया है। उसी रोज न्यूयॉर्क के मेयर रूडी गुइलानी, गवर्नर जॉर्ज पैटकी और राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने घोषणा की थी कि इन बिल्डिंगों को फिर से तैयार किया जाएगा। इनमें से एक 7 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर 2006 में तैयार हो गई और बाकी दो भी तैयार हो रही हैं।

अमेरिकी मानते हैं कि इन इमारतों को नहीं बनाया जाता तो यह आतंकवादियों की जीत होती। सच यह है कि उस दिन के बाद से न्यूयॉर्क ने आतंकवादियों को दूसरी कार्रवाई का मौका नहीं दिया। अमेरिका आज़ादी का देश था। वहाँ कोई भी अपने ढंग से रह सकता था। पिछले दस साल में यह देश बदल गया। अमेरिकी सरकार ने 400 अरब डॉलर की अतिरिक्त राशि सुरक्षा व्यवस्थाओं पर खर्च की और करीब एक हजार तीन सौ अरब डॉलर इराक और अफगानिस्तान की लड़ाइयों पर, जिन्हें यह देश 9/11 से जोड़ता है। पिछले दस साल में लोगों की व्यक्तिगत आज़ादी कम हो गई है। सारा ध्यान सुरक्षा पर है। वहाँ नागरिक अधिकारों के समर्थक इस अतिशय सुरक्षा का विरोध कर रहे हैं।


सन 1996 से अब तक पन्द्रह साल में दिल्ली में 19 बड़े धमाके हो चुके हैं, जिनमें करीब 172 लोगों की जान गई और 680 घायल हुए हैं। दिल्ली के अलावा मुम्बई, हैदराबाद, कोलकाता, बेंगलुरु, कोयम्बत्तूर, पुणे, हैदराबाद, अहमदाबाद, जयपुर, लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद समेत तमाम शहर धमाकों के शिकार हो चुके हैं। आतंकवादी घटना कहीं भी हो सकती है। हमारे पास अमेरिका जैसे साधन नहीं हैं। हमारे शहरों में बहुत बड़ी भीड़ है। उसके लिए कोई भी सुरक्षा व्यवस्था पर्याप्त नहीं। ऐसे अनेक तर्क हमारे पास हैं। पर इतना काफी नहीं है। दिल्ली और मुम्बई देश के दो सबसे महत्वपूर्ण शहर हैं। और दोनों शहर लगातार दहशतगर्दी के शिकार हो रहे हैं और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। क्यों?

तथ्य यह है कि नवम्बर 2008 में मुम्बई धमाकों और उसके बाद पाँच शहरों में हुए धमाकों में से किसी की तह तक हम नहीं पहुँच पाए। बावजूद इसके कि हमने नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी बनाई है, जिसका काम सिर्फ आतंकवादी मामलों की जाँच करना है। हाईकोर्ट धमाके की जाँच वही करेगी। आमतौर पर धमाकों के पीछे इंडियन मुजाहिदीन या हूजी का हाथ माना जाता है जो प्रकारांतर से लश्करे तैयबा से जुड़ते हैं। हाल में हिन्दुत्ववादी संगठनों का हाथ भी देखा गया है। कुछ गिरफ्तारियाँ हुईं हैं। पर बात आगे नहीं बढ़ी है। असीमानंद की स्वीकारोक्ति के बाद जाँच का दायरा आगे बढ़ता। पर असीमानंद ने भी अपना बयान बदल दिया है।

आतंकवाद से सुरक्षा के दो पहलू हैं। एक है कार्रवाई से पहले की खुफिया सूचना और दूसरा है जाँच। हम दोनों जगह नाकाम हैं। माना जाता है कि खुफिया एजेंसियाँ तमाम मॉड्यूल नष्ट करती रहती हैं। फिर भी एक दो जगह सुप्तावस्था में आतंकवादी बचे रह जाते हैं। हाल में राहुल गांधी ने भुवनेश्वर में कहा कि यूपीए सरकार के खुफिया और पुलिस सुधारों के कारण आतंकवादियों के 99 फीसदी प्रयासों को नाकाम करने में सफलता मिली है। राहुल गांधी की बात को गलत न भी मानें, पर धमाकों के बाद आतंकवादियों का पकड़ में न आ पाने का मतलब तो यही है कि वे हमारी सुरक्षा व्यवस्था से ज्यादा कुशल हैं। पिछले तमाम धमाकों की फाइलें अधूरी पड़ीं हैं।

धमाके कहीं भी हो सकते हैं। आतंकियों ने अमेरिका जैसे देश की सुरक्षा व्यवस्था को भेदकर दिखा दिया। उन्होंने लंदन, मैड्रिड और मॉस्को तक में धमाके किए। पिछले साल मई में न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में एक कार में बम रखा मिला। कार ही नहीं पकड़ी गई, बम रखने वाला भी पकड़ा गया। यह कैसे सम्भव हुआ? इसकी वजह यह है कि उन्होंने एकबार किसी संगठन या समूह को पहचान लिया तो उसकी रेशा-रेशा जानकारी हासिल की। वे अपनी सुरक्षा के लिए चौकस हैं। अक्सर अमेरिकी सुरक्षा कर्मी अभद्रता करते हैं, पर सुरक्षा चूक नहीं करते।

क्या हमारी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में कोई खोट है जो हमें सख्ती के साथ निपटने से रोकती है? सवाल है कि धमाकों के लिए जिम्मेदार कौन है? कहीं न कहीं किसी किस्म की विफलता है। यह राजनैतिक प्रश्न नहीं प्रशासनिक सवाल है। आमतौर पर होने वाली आतंकी घटनाओं की जाँच होती है और हम कुछ लोगों की पकड़-धकड़ भी करते हैं। इस बात की जाँच नहीं होती कि किस खुफिया एजेंसी या सुरक्षा एजेंसी की चूक से ऐसा हुआ। खुफिया एजेंसियों का कहना है कि हमारी कोई सुनता नहीं। दिल्ली हाईकोर्ट के धमाकों के बाद गृहमंत्री ने कहा कि पिछली जुलाई में दिल्ली पुलिस को खुफिया जानकारी दी गई थी। मई में भी इसी हाईकोर्ट के गेट पर धमाका हुआ था। पुलिस ने सीसीटीवी की सलाह दी, पर धीमी गति से चलने वाली व्यवस्था ने लगने नहीं दिए। अब तक वहाँ सीसीटीवी नहीं लगे हैं। तब काहे का हाई अलर्ट? आमतौर पर सरकार ऐसी जाँच कराने से बचती है। जब सरकार ही एजेंसियों का बचाव करती है, तब जाँच की ज़रूर क्या है? इस किस्म की गफलत अमेरिका या इंग्लैंड की सुरक्षा एजेंसियां नहीं कर सकतीं।

माना कि आतंकवादी हमले नहीं रोके जा सकते। एक-दो लोग कहीं भी घुस सकते हैं। गृहमंत्री ने कहा कि संसद-सत्र के दौरान दिल्ली पर हमले का खतरा रहता है। इधर दिल्ली पुलिस पूरी तरह सतर्क थी। हम वास्तव में खतरनाक दौर से गुज़र रहे हैं। पर लगता है हमने इस मामले में भी नई तकनीक और नए तरीकों को नहीं सीखा है। हाई अलर्ट का मतलब है अब पूरे शहर की नाकाबंदी कर दी जाएगी। जगह-जगह पुलिस के बैरीकेड्स खड़े कर दिए जाएंगे। ट्रैफिक जाम होगा। आज तक इस नाकाबंदी से एक आतंकवादी नहीं पकड़ा गया है, फिर भी यह जारी है।

हाल में सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के भविष्य के परिदृश्य को देखते हुए एक राष्ट्रीय कार्य दल बनाया है जिसकी अध्यक्षता पूर्व कैबिनेट सचिव नरेश चन्द्रा करेंगे। इस कार्य दल में देश की सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े 14 सदस्य अनुभवी हैं। हमने कम्प्यूटर इमर्जेंसी रिस्पांस टीम बना ली। आने वाले समय में सायबर सुरक्षा और एटमी सुरक्षा के काम और ज्यादा महत्वपूर्ण होने वाले हैं। इसके पहले राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मंत्रिसमूह ने सुझाव दिया था कि हमें अपनी सुरक्षा के काम की हर पाँच साल में समीक्षा करनी चाहिए। यह समीक्षा हर साल होनी चाहिए। पर बात यहीं खत्म नहीं होती। 2008 के मुम्बई विस्फोट के बाद हमने जो फैसले किए, उनमें से सिर्फ नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी बना पाए हैं। तमाम जानकारियों के लिए नैटग्रिड और नेशनल काउंटर टैररिज्म सेंटर नहीं बन पाया है। यह सेंटर सन 2010 के अंत तक बन जाना था।

सच यह है कि हमारे पास काउंटर इंटेलिजेंस और इनवेस्टिग्शन का एक अच्छा प्रशिक्षण संस्थान नहीं है। ट्रेनिंग नहीं है। टेक्नॉलजी नहीं है। आज नहीं तो कल के लिए हम नौजवानों की ऐसी टीम तैयार करनी होगी जो आधुनिक तरीकों से जाँच करे। पुलिस आधुनिकीकरण का ढिंढोरा पीटा जाता है, पर राजनीति उसे होने नहीं देती। हमें विचार यह भी करना चाहिए कि क्या आंतरिक सुरक्षा केन्द्रीय विषय बना दिया जाए। मामूली सी जाँच भी इतने राज्यों के इतने संगठनों के बीच से होकर गुजरती है कि उसका रास्ते में ही दम निकल जाता है।

दिल्ली पुलिस ने मामले की जाँच के साथ दो स्केच जारी किए हैं और कई तरह की अवधारणाएं सामने आने लगीं हैं। यह पहला मौका नहीं है जब स्केच जारी हुए हैं। पुलिस की जानकारी और समझदारी का इस तरह मीडिया-विवेचन हमारे देश में ही सम्भव है। बेहतर हो कि पुलिस किसी निष्कर्ष पर पहले पहुँचे। पहली शाम को ही ब्रेकथ्रू की उम्मीद जगाना भी गलत है। आतंकवादियों का इरादा हमारे आत्मविश्वास पर चोट करना है। उनका जवाब तभी दिया जा सकता है, जब हम उनके आत्मविश्वास को तोड़ें।

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