उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन हो गया है। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को नरेन्द्र मोदी की विजय के रूप में भाजपा प्रचारित कर रही है। और लालकृष्ण आडवाणी की और रथयात्रा पर निकलने वाले हैं। अमेरिकी संसद के एक पेपर के निहितार्थ को लेकर विशेषज्ञ प्राइम टाइम को धन्य कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, सपा और बसपा की गतिविधियाँ तेज़ हो गईं हैं। इस इतवार को शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक समिति के चुनाव में कांग्रेस और अकाली दल की ताकत का पंजाब में पहला इम्तहान होगा। 2012 के विधान सभा चुनाव पर इसका असर नज़र आएगा। कांग्रेस इस चुनाव में औपचारिक रूप से नहीं उतरी है, पर उसके प्रत्याशी और नेता मैदान में हैं। उत्तर भारत के इन तीन राज्यों के अलावा मणिपुर और गोवा में भी अगले साल चुनाव हैं। इन पाँचों राज्यों से लोकसभा की 100 सीटें है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मसले अलग और वक्त भी अलग है, पर कहीं न कहीं वोटर के मिजाज़ का पता लगने लगता है। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद पहली बार देश के बड़े हिस्से के लोगों की राजनीतिक राय सामने आएगी। हर लिहाज़ से ये चुनाव महत्वपूर्ण साबित होंगे।
इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उत्तर प्रदेश का चुनाव। मई 2007 के चुनाव में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी की हार एक राजनीतिक गणित के सहारे हो पाई थी। उत्तर प्रदेश के सवर्णों का एक बड़ा तबका, खासतौर से ब्राह्मण, मुलायम सिंह से नाराज़ थे। वे कांग्रेस का पहले ही साथ छोड़ चुके थे। भाजपा को भी उन्होंने नामंजूर कर दिया। ऐसे में बसपा ने सर्वजनसमाज का नारा देकर इस वर्ग का समर्थन हासिल किया। उत्तर प्रदेश का यह नया जातीय समीकरण सफल साबित हुआ और 1991 के बाद पहली बार प्रदेश में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। क्या यह अगले साल भी सम्भव है?
देश के किसी दूसरे राज्य के मुकाबले उत्तर प्रदेश की राजनीति सबसे जटिल है। यहाँ की सामजिक और राजनीतिक इंजीनियरिंग को समझना आसान नहीं है। इसलिए हमेशा यह उम्मीद रहती है कि विधानसभा त्रिशंकु होगी। पिछले चुनाव में बसपा को स्पष्ट बहुमत मिला, पर वह बहुमत के करीब ही था। चूंकि दूसरे नम्बर की पार्टी सपा के सदस्यों की संख्या बसपा के सदस्यों से आधी भी नहीं और विपक्ष एक साथ नहीं है इसलिए बसपा को सरकार चलाने में दिक्कत नहीं हुई। बाद में हुए उपचुनावों में जीतकर बसपा ने अपनी ताकत को बेहतर भी कर लिया।
उत्तर प्रदेश की जातीय संरचना ऐसी है कि यहाँ कोई एक धड़ा बहुमत हासिल नहीं कर सकता। जब तक दो या तीन राजनीतिक दल एक साथ न आएं लखनऊ की कुर्सी पर कब्जा सम्भव नहीं। बसपा की सरकार भी एक प्रकार का गठबंधन है। पार्टियों का नहीं जातीय समूहों का गठबंधन। एक ज़माने तक कांग्रेस भी इसी प्रकार का गठबंधन थी। कांग्रेस अपने उस आधार को फिर से पाना चाहती है। पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मामूली सफलता से कांग्रेस उत्साहित है। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस ने किसी अपरिभाषित सूत्र के आधार पर मान लिया कि 2012 में उसकी सरकार आ जाएगी। राहुल गांधी के दौरों से कांग्रेस की उपस्थिति नज़र तो आने लगी है, पर बाकी कोई संकेत ऐसा नहीं है जो इस अनुमान को सही साबित करे।
उत्तर प्रदेश का ग्रामीण वोटर आज भी बिचौलियों की समझ से एकमुश्त वोट देता है। बिचौलियों का एक अर्थ है पार्टी संगठन। कांग्रेस का संगठन और नेतृत्व टूट चुका है। पार्टी के पास एक भी कद्दावर नेता नहीं है। जनता से जुड़े लोग भी नहीं हैं। राहुल गांधी के सम्पर्क में आने के लिए जिस सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की ज़रूरत होती है, वह सबके बस की बात नहीं। यही बात पार्टी को जनता से जुड़ने में अवरोध पैदा करती है। किसी भी चुनाव के पीछे दस-दस साल का सतत प्रयास होता है। बंगाल में ममता बनर्जी ने तकरीबन पन्द्रह साल काम किया तब जाकर सत्ता में आ पाईं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 1990 के बाद खुद को क्षेत्रीय छत्रपों के हवाले कर दिया। पार्टी के स्थानीय नेतृत्व की अनदेखी करते हुए। फिर मंडल और कमंडल के दौर में कांग्रेस के पास आकर्षण का कोई बिन्दु नहीं था। केन्द्र में यूपीए-1 की सरकार आने के बाद से आर्थिक विकास के नाम पर शहरी वोटरों का एक तबका कांग्रेस के साथ आ गया था। उसकी ताकत 2009 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिली थी। इधर अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद यह वर्ग भी कांग्रेस से नाराज़ नज़र आता है। चुनाव पर अन्ना प्रभाव उत्तर प्रदेश में ही नहीं हर जगह देखने को मिलेगा।
उत्तर प्रदेश के मुकाबले पंजाब और उत्तराखंड की राजनीति द्विदलीय है। पंजाब में भाजपा और अकाली दल का गठबंधन तमाम तल्खियों के बावजूद जारी रहेगा। सिखों के मन में कांग्रेस के प्रति बैठी नाराज़गी काफी हद तक दूर हो चुकी है। अकाली दल पर पारिवारिक वर्चस्व सामान्य वोटर को परेशान करता है। यहाँ भी केरल और तमिलनाडु की तरह सरकारें बदलने की मनोवृत्ति काम कर सकती है। उत्तराखंड में लड़ाई और भी ज्यादा सीधी होती है। उत्तराखंड की विडंबना है कि जिस संगठन ने इस प्रदेश की संकल्पना दी, वह पृष्ठभूमि में है। आम नागरिक उत्तराखंड पाकर हतप्रभ है। सिर्फ राजनेताओं का नया वर्ग उभर कर आया है। नया राज्य होने के कारण जो प्रारम्भिक सुविधाएं मिलतीं हैं, उनसे आर्थिक विकास के कुछ आँकड़े ज़रूर एकत्र हो गए हैं, पर इस प्रदेश ने किसी प्रकार की विशिष्ट राजनीति नहीं दी। उसकी राजनीति दिल्ली से तय होती है। भाजपा ने चुनाव के ठीक पहले नेतृत्व बदलकर छवि सुधारने की कोशिश की है, पर उससे क्या होगा कहना मुश्किल है। कांग्रेस के पास भी नेतृत्व का संकट है। ऐसा न होता तो नारायण दत्त तिवारी पर यह बोझ नहीं डालना पड़ता। यों भी कांग्रेस की नई संस्कृति में देश भर में स्थानीय नेताओं के लिए उभरने की सम्भावनाएं कम हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अपने चेहरे को जनोन्मुखी बनाने की कोशिश में और ज्यादा उलझती जा रही है। लोकपाल मसले को सरकार ने जिस तरह डील किया, उससे लगता नहीं कि उसके नेतृत्व को जानकारी है कि 2012 के चुनाव करीब हैं। बाबा रामदेव के भक्त उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों जगह हैं। उन्हें रामलीला मैदान से उखाड़कर पार्टी नेतृत्व ने अपने लिए मुश्किलें मोल ले लीं है। एनडीए के इंडिया शाइनिंग की पराजय के बाद पार्टी ने गाँवों की ओर देखना शुरू किया। सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गठन के बाद कई तरह के सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारी काम-काज से जुड़ने का मौका मिला है। हालांकि सरकार को यह पसंद नहीं है, पर राजनीति के लिए इसकी ज़रूरत है। अब सरकार कॉरपोरेट हाउसों की और पार्टी सोशल एक्टिविस्टों के साथ है। इससे सरकार नरेगा-फॉर्म्यूला लागू करने का 2009 में फायदा मिला। इसका विस्तार हो रहा है। पार्टी खाद्य सुरक्षा बिल लाना चाहती है, जिसके खर्च को लेकर सरकार परेशान है।
पार्टी के सामाजिक कार्यक्रमों की कीमत महंगाई के रूप में दिखाई पड़ रही है। यदि खाद्य सुरक्षा कानून लागू हुआ तो यह अपने आप में दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। सरकार के पास भूमि अधिग्रहण कानून और साम्प्दायिक हिंसा कानून के मसौदे भी तैयार हैं। इन कानूनों के राजनीतिक निहितार्थ हैं। इनके कारण देश की टैक्स संरचना में बदलाव के कानून, रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए नीति की घोषणा और श्रम कानून में बदलाव का काम पीछे चला गया है। फिर से सुनाई पड़ रहा है कि पेट्रोल की कीमतें बढ़ेंगी। सरकार के सामने वित्तीय घाटे को कम रखने की चुनौती है। मंदी के कारण दो साल पहले उद्योग-व्यापार के लिए घोषित स्टिम्युलस पैकेज नरेगा से भी ज्यादा खर्चीला है। उससे महंगाई बढ़ रही है। दो नावों की सवारी में पार्टी प्याज भी खा रही है और कोड़े भी।
आर्थिक विकास की स्टोरी में पेच आ गया है। ग्रोथ पर वाह-वाह करने वाला मध्यवर्ग सड़क पर उतर आया है। आर्थिक सुधार के दो दशक पूरे होने के बाद राजनीतिक समझ उलझनों में है। 2012 के चुनाव इन उलझनों को और बढ़ाएं तो आश्चर्य नहीं। जनवाणी में प्रकाशित
विनाश काले विपरीत बुद्धि के कारण कहीं लोग अन्ना की आंधी मे बह कर देश की सार्वभौमिकता पर चोट न कर दें।
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