Monday, June 27, 2011

बदलाव के दो दशक


आज के मुकाबले 1991 के जून महीने का भारत कहीं ज्यादा संशयग्रस्त और बेज़ार था। धार्मिक, जातीय, क्षेत्रीय सवालों के अलावा आतंकवादी हिंसा आज की तुलना में कहीं भयावह थी। अंतरराष्ट्रीय मंच पर रूस के पराभव का हम पर असर पड़ा था। सबसे बड़ी बात आर्थिक मोर्चे पर हमारे अंतर्विरोध अचानक बढ़ गए थे। देश की आंतरिक राजनीति निराशाजनक थी। राजीव गांधी की हत्या के बाद पूरा देश स्तब्ध था। उस दौर के संकट को हमने न सिर्फ आसानी से निपटाया, बल्कि आर्थिक सफलता की बुनियाद भी तभी रखी गई। आज हमारे सामने संकट नहीं हैं, बल्कि व्यवस्थागत प्रश्न हैं, जिनके उत्तर यह देश आसानी से दे सकता है। लखनऊ के जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित लेख। 

पिछले हफ्ते भारत में एक राजनैतिक बदलाव के दो दशक पूरे हो गए। 21 जून 1991 को पीवी नरसिंह राव की सरकार के गठन के बाद एक नया दौर शुरू हुआ था, जिसका सबसे बड़ा असर आर्थिक नीति पर पड़ा। यह अर्थिक दर्शन नरसिंह राव की देन था, कांग्रेस पार्टी की योजना थी या मनमोहन सिंह का स्वप्न था, ऐसा नहीं मानना चाहिए। कांग्रेस के परम्परागत विचार-दर्शन में फ्री-मार्केट की अवधारणा उस शिद्दत से नहीं थी, जिस शिद्दत से भारत में उसने उस साल प्रवेश किया। यह सब अनायास नहीं हुआ। और न उसके पीछे कोई साजिश थी।

भारतीय आजादी के पहले बीस साल आराम के थे। उसके अगले बीस साल संकट से भरे थे। और उसके अगले बीस साल संकटों पर समाधानों की विजय के साल थे। हम उसी दौर में हैं, पर अब राह आसान है। पचास के मध्य दशक से साठ के मध्य दशक तक हमारी अर्थ-व्यवस्था तकरीबन आठ फीसदी की दर से विकास कर रही थी। निजी पूँजी का विकास न होने के कारण औद्योगीकरण का भार सरकार पर था। ग्रामीण क्षेत्र में जबर्दस्त भूमि सुधार तो हमने कर लिए थे, पर उत्पादकता में सुधार नहीं हुआ था। फिर भी संकट नहीं था।
साठ के दशक में एक साथ अनेक समस्याओं से देश का सामना हुआ। 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध का प्रतिफल था अर्थव्यवस्था पर दबाव। दो दशक तक दो फीसदी के भीतर रहने वाली मुद्रास्फीति आठ से दस फीसदी को छूने लगी। विदेशी कर्ज बढ़ने लगा। अर्थव्यवस्था विदेशी मदद के आसरे पर हो गई। एक साथ दो साल तक सूखा पड़ने और व्यापार संतुलन बिगड़ने के बाद मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा। संकट के आर्थिक संकेत ही नहीं थे। 1967 के चुनाव के साथ गैर-कांग्रेसवाद का नया राजनैतिक मंत्र सुनाई पड़ा।
अर्थ-नीति के समानांतर देश की राजनीति के मुहावरे लगातार बदले हैं। दोनों में संरचनात्मक बदलाव भी देखने को मिले हैं। सत्तर में इंदिरा गांधी समाजवाद का जादू लेकर आईं थीं। 1977 की पराजय के बाद जब वे 1980 में वापस आईं तो उनके पास प्रो-बिजनेस लाइन थी। और वही समय था जब विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष वाशिंगटन कंसेंसस के दबाव में आ गए। आर्थिक विकास माने प्राइवेट सेक्टर को खुली छूट का मंत्र 1991 की उदारवादी राजनीति के दस साल पहले भारत में गूँजने लगा था।
वैश्वीकरण की हवा भारत को छूने के पहले कोरिया, सिंगापुर, ताइवान वगैरह को अपनी लपेट में ले चुकी थीं। 1970 में पहले इंदिरा गांधी ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ मोर्चा खोला था, फिर जनता पार्टी का सरकार ने आईबीएम और कोका कोला को देश निकाला दिया था। जबकि उसी दौर में देंग श्याओ पिंग चीनी रास्ते को बदल रहे थे। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के पराभव के बाद भारत के सामने आर्थिक, राजनैतिक और विदेश नीति की चुनौतियाँ थीं। अंदरूनी तौर पर पहले खालिस्तानी आंदोलन, फिर कमंडल और मंडल की राजनीति ने अजब संकट खड़ा कर दिया। 1991 में देश पर 70 अरब डॉलर का कर्ज था। विदेश-व्यापार के लिए हफ्ते-दो हफ्ते की विदेशी मुद्रा बची थी। सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा था।
21 जून 1991 को जब नरसिंह राव की सरकार बनी तब देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा दयनीय थी। 1989 से कश्मीर में खूंरेजी चल रही थी। नवम्बर 1990 में बाबरी मस्जिद पर पहला वार हुआ। मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या से पूरा देश सन्नाटे में आ गया। दिसम्बर 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद देशभर में हिंसा की आग फैल गई। उस दौरान पीवी नरसिंह राव की अल्पमत सरकार देश की निगहबान थी। इस करीबी इतिहास का विवेचन करें तो पाएंगे कि बड़े मुश्किल दौर को हमने आसानी से पार किया।   
भारत ने न तो अतिवादी साम्यवाद देखा और न खुला फ्री-मार्केट देखा। दोनों के नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं को हम बेहतर ढंग से देख पाए हैं। समाजवादी दौर में ऐसा लगता था कि निजी व्यपार कोई अपराध है। इस बात को समझने में करीब दो दशक लगे कि कोटा-लाइसेंस राज से उपजी अकुशलता से बाहर निकलने का रास्ता हमें खोजना चाहिए। पिछले दो दशक में हमने निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के प्रयोग किए। इनका लाभ यह हुआ कि भारत दुनिया की सबसे गति से विकसित हो रही अर्थ-व्यवस्था बनने जा रहा है। पर मूल सवाल वही छह दशक पहले का है। आर्थिक विकास और सम्पदा का न्यायपूर्ण वितरण क्यों नहीं होता?
वैश्वीकरण और उदारीकरण भारत में लोकप्रिय शब्द नहीं है, पर हमने इन्हें अस्वीकार भी नहीं किया है। देश में अबतक तमाम रंगतों की सरकारें बनीं है। सबने इन्हें किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। पर जिस तरह सरकारी जकड़-जाल में फँसी कमांड अर्थ-व्यवस्था अधूरी थी वैसे ही क्रोनी कैपिटलिज्म भी निरर्थक है। हम इस माने में चीन से बेहतर हैं कि एक बहुजातीय, बहुसंस्कृति समाज को बहुदलीय-लोकतंत्र की मदद से आधुनिक विकास के रास्ते पर लाने में हम कामयाब हुए हैं। पर सामान्य नागरिक को जीवन, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की बुनियादी सुविधाएं देने में चीन से पीछे हैं। अगले दशक को भारत का युगांतरकारी दशक बनाने के लिए हमें अपने पिछले दो दशकों का गहराई से विवेचन करना चाहिए। हमारे पास उपलब्धियाँ हैं और निराशाएं भी। हमें दोनों को नहीं भुलाना चाहिए।   

3 comments:

  1. विवेचन के साथ आपका प्रश्न की आर्थिक विकास का न्यायोचित और समान वितरण क्यों नहीं है?यही तो सभी समस्याओं की जद है,इसी का समाधान उत्पादन और वितरण के साधनों पर समाज के नियंत्रण से हो सकता है-चाहे सर्कार द्वारा हो या चाहे सहकारिता के माध्यम से.

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  2. प्रमोद जी, मुझे लगता है कि अक्सर जिसे हम भारी कठिनाई का समय सोचते हैं, उसी में नये निर्णय लिये जाते हैं जिनसे भविष्य की दिशाएँ बदल जाती हैं, और जिन्हें खुशहाली के दिन मानते हैं, उनमें कुछ नया नहीं कर पाते या फ़िर आने वाले बुरे दिनों की नीवें रखते हैं, और यह चक्र चलता रहता है.

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