एक मोटा अनुमान है कि देश में करीब 12 करोड़ प्रवासी
मजदूर काम करते हैं. ये सारे मजदूर किसी रोज तय करें कि उन्हें अपने घर वापस जाना
चाहिए, तो अनुमान लगाएं
कि उन्हें कितना समय लगेगा. हाल में जो रेलगाड़ियाँ चलाई गई हैं, उनमें एकबार में 1200 लोग जाते हैं.
ऐसी एक हजार गाड़ियाँ हर रोज चलें, तो इन सबको पहुँचाने में सौ से सवा सौ दिन लगेंगे.
ऐसा भी तब होगा, जब एक पॉइंट से
चली गाड़ी सीधे मजदूर के घर तक पहुँचाए.
रास्तों और स्टेशनों का व्यापक जाल देशभर में फैला हुआ है.
इतने बड़े स्तर पर आबादी का स्थानांतरण आसान काम नहीं है. यह प्रवासन एक ऐतिहासिक
प्रक्रिया है और दुनियाभर में चल रही है. भारत के बाहर काम कर रहे लोगों के बारे
में तो अभी हमने ज्यादा विचार किया ही नहीं है. कोरोना-दौर में केवल लोगों के
परिवहन की बात ही नहीं है. उनके दैहिक अलगाव, स्वास्थ्य और स्वच्छता सम्बद्ध मानकों का पालन भी
महत्वपूर्ण है. इस अफरातफरी के कारण संक्रमण बढ़ रहा है.
इन बातों का समाधान पहली निगाह में यह सोचा गया था कि
प्रवासी मजदूरों का काम बंद होने से पैदा हुई दिक्कतों का समाधान उनके क्षेत्र के
लोग, कारोबारी स्वामी, स्थानीय निकाय और
एनजीओ वगैरह देखेंगे. ऐसा करने के लिए एक बड़े सामाजिक आंदोलन की जरूरत है. पर हुआ
यह कि मजदूरों के बीच अनिश्चय की भावना बड़े स्तर पर बैठ गई. ऐसा क्यों हुआ, इसपर बहस करने से
फिलहाल कोई लाभ नहीं. उनकी असुरक्षा के पीछे बड़े वाजिब कारण हैं.
कोरोना का पानी उतर जाने के बाद प्रवासी मजदूरों की
व्यवस्था खत्म नहीं हो जाएगी, बल्कि बढ़ेगी. गाँवों में रोजगार नहीं हैं और ऐसी कोई
आर्थिक व्यवस्था नजर नहीं आती, जिससे रोजगारों की गारंटी हो. हाँ स्थानीय स्तर पर ऐसे
औद्योगिक परिसर विकसित जरूर होंगे, जहाँ बाहरी श्रमिकों को काम मिलेगा. कुशल श्रमिकों, अकुशल श्रमिकों
और ह्वाइट कॉलर, ब्लू कॉलर, ग्रे कॉलर जैसे
वर्गीकरण वाले कामगारों के कई स्तर हैं.
अभी ऐसा नहीं है कि 12 करोड़ कामगार भाग रहे हैं. हालांकि मेरे पास कोई स्पष्ट संख्या
नहीं है, पर लगता है कि यह
एक करोड़ भी नहीं है. तमाम लोग अपनी जगह पर रुके हुए हैं, तो इसकी वजह यह
है कि उन्हें स्थिरता देने वाले उपकरण मौजूद हैं. समस्या उनकी है, जिनके न सिर पर
कुछ है और न पैर के नीचे. ऊपर से उनकी बदहाली पर चलने वाली राजनीतिक कबड्डी अलग से
है.
वस्तुतः यह शहरी गरीबी की समस्या है. हमारी राजनीति का सारा
जोर ग्रामीण जीवन पर रहा है. शहरों के मुकाबले गाँव ज्यादा सुरक्षित लगता है. काफी
हद तक है भी, पर वह ज्यादा समय
तक रहेगा नहीं. हमें आर्थिक-सामाजिक धरातल पर ऐसे कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए, जो इतनी बड़ी
आबादी को बुनियादी सुरक्षा दे सके. इन्हें हजार-दस हजार के नोट पकड़ाने से काम
नहीं चलेगा, बल्कि उनकी
सहायता से आर्थिक पहिया तेजी से चलाने की जरूरत है.
कोरोना-दौर में लॉकडाउन से एकबारगी संक्रमण के बढ़ने पर रोक
लगी है, पर यह स्थायी हल
नहीं है. लॉकडाउन का दुष्परिणाम है आर्थिक गतिविधियों का ठप पड़ना, जिसके कारण
कामगार भागे हैं. कोरोना संक्रामक रोग जरूर है, पर वैसा घातक नहीं है, जैसा रोज को आँकड़ों से लगता है. ऐसे आँकड़े हमें
सर्दी-जुकाम और फ्लू और मलेरिया वगैरह के मिलने लगें, तो वे भी हमें
परेशान करेंगे.
सफाई और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में हम यों भी
लापरवाह हैं. इस आपदा ने हमें इस दिशा में सोचने को मजबूर किया है. मुझे याद है
करीब दस-बारह साल पहले जब हाथ धोने से जुड़े अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम पर हमारे सम्पादकीय
विभाग में बात हो रही थी, तब मेरी बात पर
किसी ने ध्यान नहीं दिया था. ज्यादातर लोगों की समझ थी कि यह साबुन बनाने वाली कुछ
कंपनियों का धंधा है. जरूर धंधा होगा, पर इसका सामाजिक संदेश उन्होंने सही समय पर पढ़ लिया
था.
हाथ धोना विश्व सी परंपरागत समझ है. सारे धर्म किसी न किसी
स्तर पर हाथ धोने का आग्रह करते हैं. आधुनिक मेडिकल साइंस ने उन्नीसवीं सदी में
इसके महत्व को पहचान लिया था. इस आपदा ने हमें यह भी बताया है कि हमारा निजी आचरण
अंततः सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा या खराब हो सकता है. हमें अपने साथ-साथ
दूसरों की फिक्र करनी ही होती है. प्रवासी मजदूरों के पलायन की तमाम कहानियों के
बीच आपसी सहयोग और सहायता से जुड़ी बातें हमें बता रही हैं कि अपने खोल से बाहर
निकलिए और पहले सोचिए और फिर कुछ कीजिए.
इस नजरिये से किसी ने सोचा नहीं लगता है। सटीक।
ReplyDeleteपर्तमान को समेटे सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete