Sunday, February 8, 2015

दिल्ली की विजय-पराजय के माने

दिल्ली विधानसभा के एग्जिट पोल आम आदमी पार्टी के सामान्य बहुमत से लेकर दो तिहाई बहुमत तक के इशारे कर रहे हैं। उनके अनुसार बीजेपी के वोट प्रतिशत में सन 2013 के मुकाबले बढ़ोत्तरी होगी और 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में कमी होगी। इस लिहाज से इसे नरेंद्र मोदी सरकार और व्यक्तिगत रूप से मोदी को लोकप्रियता में गिरावट के रूप में भी देखा जा रहा है। शायद इसी वजह से काफी विश्लेषकों को यह चुनाव महत्वपूर्ण लगता है। पर यह चुनाव केवल इतना ही मतलब नहीं रखता। आम आदमी पार्टी सामान्य राजनीतिक संस्कृति से ताल्लुक नहीं रखती। कम से कम उसका दावा इसी प्रकार का है। उसका साथ देने वाले सामान्य नागरिक है और उसके कार्यकर्ता आमतौर पर शहरी युवा हैं। यह शहरी युवा मोदी सरकार का समर्थक माना जा कहा था। एक धारणा है कि मोदी सरकार के समर्थकों ने हिन्दुत्व से जुड़े संकर्ण मामलों को उठाकर युवा वर्ग का मोहभंग किया है। दूसरी धारणा यह है कि मोदी सरकार ने बड़े-बड़े वादे कर दिए थे जो अब पूरे नहीं हो रहे हैं। एग्जिट पोल के बाद अब 10 फरवरी को परिणाम आने के बाद ही इस बारे में कोई राय कायम करना बेहतर होगा, पर चुनाव परिणाम ऐसा ही रहा तब भी उसके अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग माने होंगे। रोचक बात यह है कि आम आदमी पार्टी के पक्ष में ममता बनर्जी के साथ-साथ प्रकाश करात ने भी अपील की थी। क्या आम आदमी पार्टी वामपंथी पार्टी है? क्या वह उस युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर खरी उतरती है जो आम आदमी पार्टी के साथ है? क्या आम आदमी पार्टी के आर्थिक दृष्टिकोण से वह परिचित है? दूसरी ओर आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों, दलितों और मुस्लिम समुदाय का समर्थन भी नजर आता है। बीजेपी का पीछे मध्य वर्ग का समर्थन है। क्या यह वर्गीय ध्रुवीकरण है? आम आदमी पार्टी के कामकाज में यह ध्रुवीकरण किस रूप में नजर आएगा इसे समझना होगा। यदि मुस्लिम समुदाय ने आम आदमी के पक्ष में टैक्टिकल वोटिंग की है तो क्या इसका प्रभाव बिहार ौर यूपी के चुनाव में भी पड़ेगा? ऐसे कई सवाल सामने आएंगे।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव एक लिहाज से कोई माने नहीं रखते। बावजूद इसके यह चुनाव राष्ट्रीय महत्व रखता है तो सिर्फ इसलिए कि पिछले कुछ साल से दिल्ली की राजनीति ने पूरे देश को प्रभावित किया है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के तकरीबन छह महीने पहले हुए दिल्ली के चुनाव ने कांग्रेस और भाजपा के भीतर हलचल मचा दी थी। दोनों पार्टियों ने आम आदमी पार्टी के पीछे नागरिकों की ताकत को महसूस किया था। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद लगता है राष्ट्रीय दलों ने आम आदमी फैक्टर पर ध्यान देना बंद कर दिया था। खासतौर से भारतीय जनता पार्टी अपनी जीत के जोश में तेजी से उड़ चली थी। दिल्ली के चुनाव ने उसकी तंद्रा भंग की है। बहरहाल वोट पड़ चुके हैं, परिणाम का इंतजार है। पर यह चुनाव अपने परिणामों के अलावा कुछ दूसरे कारणों से भी महत्वपूर्ण साबित होने वाला है।

इस चुनाव के तीन संभावित परिदृश्य हैं। एक, आम आदमी की जीत हो। दो, भाजपा की सरकार बने। और तीसरे, फिर से त्रिशंकु विधानसभा उभर कर आए। ज्यादातर विश्लेषकों का ध्यान ‘आप’ या भाजपा की जीत पर केंद्रित है। तीसरे परिदृश्य पर ज्यादा ने ध्यान नहीं दिया है। एक वजह यह है कि कांग्रेस पार्टी के प्रदर्शन को लेकर विश्लेषक उत्साहित नहीं हैं। कांग्रेस खुद इस वक्त असमंजस की शिकार है। ज्यादातर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण उत्साही मतदाताओं की राय के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं। वोटरों के एक बड़े हिस्से की राय सामने नहीं आ पाती है।

यदि भाजपा जीतकर आई तो इससे पार्टी केवल पार्टी के उत्साह में ही वृद्धि नहीं होगी, उसकी संगठनात्मक संरचना में मोदी समर्थकों का वर्चस्व और बढ़ जाएगा। आरोप है कि भाजपा नेतृत्व में दंभ पैदा हो गया है। गिने-चुने नेताओं को छोड़ बाकी अलग-थलग पड़ गए हैं। अभी सामने दिखाई नहीं पड़ता है, पर भीतर-भीतर मोदी-विरोध भी कहीं न कहीं मौजूद है। दिल्ली में पार्टी ने अपने अंतर्विरोधों को खुलने से काफी सावधानी से बचा लिया है। चुनाव परिणाम आशानुकूल रहे तो ये अंतर्विरोध दबे ही रहेंगे। पर यदि पार्टी विफल रही तो दबा रोष किसी न किसी रूप में सामने आएगा। 

‘आप’ की जीत हुई तो केंद्र सरकार के लिए परेशानियाँ पैदा होंगी। मोदी और भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए विरोधी दलों की रणनीति सफल साबित होगी। जाहिर है कि इस रणनीति में ‘आप’ की केंद्रीय भूमिका हो जाएगी। शायद इसीलिए प्रकाश करात ने ‘आप’ का समर्थन किया है। देश की राजधानी की सरकार केंद्र सरकार का अंतर्विरोध साबित होगी। इन दिनों एक चुटकुला चल रहा है जो स्थिति को बेहतर तरीके से बताता है। किसी ने अरविन्द केजरीवाल से पूछा, आप की पार्टी चुनाव हारी तो आप क्या करेंगे? जवाब मिला, धरने पर बैठ जाऊँगा। और जीत गए तो? धरने पर बैठ जाऊँगा। अंदेशा है कि ‘आप’ सरकार बनी तो उसका केंद्र से टकराव होगा। यह सिर्फ अंदेशा है। सम्भव है ‘आप’ की चुनावोत्तर रणनीति इस बार वही नहीं हो जैसी 49 दिनी सरकार के दौरान थी।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर डिक्टेटरशिप के जो आरोप लगते हैं वैसे ही आरोप केजरीवाल और उनके करीबी नेताओं पर भी लगते हैं। यह बात ‘आप’ के राजनीतिक दर्शन से मेल नहीं खाती। लगभग दो-सवा दो साल पुरानी इस पार्टी में जिस तरह से टूट-फूट हुई है वह भी सामान्य बात नहीं है। हाल में उसके वरिष्ठ नेता शांति भूषण और प्रशांत भूषण के बयानों से यह बात जाहिर भी हुई। पिछले साल योगेन्द्र यादव और अरविन्द केजरीवाल के पत्र-व्यवहार से भी यह बात उजागर हुई थी। पार्टी के सत्ता में आने के बाद उसपर वादों को पूरी करने का दबाव होगा। साथ ही पार्टी के भीतर वे ताकतें आगे आएंगी जो फायदे उठाने की इच्छा से सामने आई हैं। पार्टी का जनाधार एकदम खुला है और उसकी विचारधारा सबकी समझ में नहीं आती। यह कम विस्मय की बात नहीं कि ‘आप’ को ममता बनर्जी और प्रकाश करात दोनों ने अपना समर्थन दिया है। 

इस चुनाव के जिस तीसरे पहलू की और ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है वह है कांग्रेस। क्या कांग्रेस पूरी तरह नप गई? दिल्ली में मुसलमान और दलित वोटर की भी उपस्थिति है। मुसलमान एक मुश्त वोट देगा या वह बँटेगा? दोनों बातें दिल्ली से ज्यादा बिहार और यूपी के आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण साबित होंगी। यदि मुस्लिम वोटर मोदी को हराने के लिए एक मुश्त ‘आप’ के साथ गया तो कांग्रेस के लिए मुश्किल हो जाएगा। पर यूपी और बिहार में ध्रुवीकरण का अंदेशा बढ़ जाएगा। यही वजह थी कि चुनाव के ठीक पहले जामा मस्जिद के शाही इमाम के बयान को लेकर विवाद पैदा हो गया। ‘आप’ को मुस्लिम वोट चाहिए, पर उसकी सार्वजनिक घोषणा नहीं चाहिए।
दिल्ली के चुनाव ने भावी राजनीति के एक और अंतर्विरोध को पैदा किया है। ‘आप’ के चंदा प्रकरण ने तस्वीर के दूसरे रुख की ओर भी इशारा किया है। आम आदमी पार्टी अपनी स्वच्छ छवि के साथ मैदान में उतरी थी, पर चंदे की चपेट में वह भी आ गई। इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस-भाजपा और दूसरे राजनीतिक दलों ने चुनाव सुधारों का हमेशा विरोध किया। इसके विकल्प में ‘आप’ एक पारदर्शी व्यवस्था के साथ सामने आई थी। पर यह बात सिर्फ दिखावे की नहीं हो सकती। उसे न सिर्फ पारदर्शी नजर आना होगा, बल्कि हर तरह के स्पष्टीकरण के लिए तैयार रहना होगा। यह अग्नि परीक्षा है। हालांकि रकम ज्यादा बड़ी नहीं है, पर मसला बड़ा है। जून 2013 में मुख्य सूचना आयुक्त ने देश के छह दलों के हिसाब-किताब को सूचना के अधिकार से जोड़ा था। पार्टियों ने इस बात को पसंद नहीं किया। इस बारे में अभी तक विचार-विमर्श ही चल रहा है।
विधि आयोग चुनाव से जुड़े मौजूदा कानूनों में सुधार पर विचार कर रहा है। उसकी रिपोर्ट का इंतजार है। पिछले 64 साल में चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग की पहल पर हुआ या अदालतों के दबाव के कारण। मतदाता पत्र बनाने और प्रत्याशियों के हलफनामे दाखिल कराने की व्यवस्था इसका उदाहरण है। चुनाव की घोषणा के बाद आदर्श चुनाव संहिता लागू करना भी राजनीतिक दलों को पसंद नहीं आता फिलहाल कम से कम तीन ऐसे मामले हैं, जिनसे पार्टियों बचती हैं चुनावी चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाना, दागी प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाना और गलत हलफनामे दाखिल करने पर कार्रवाई करना। राजनीतिक दल चुनाव सुधार से भागते हैं। पर चंदे की पारदर्शी व्यवस्था भी जनता के दबाव में ही लागू होगी। दिल्ली का चुनाव इस लिहाज से राष्ट्रीय चुनाव है।
हरिभूमि मे प्रकाशित





2 comments:

  1. न तो हमारे राजनीतिज्ञों के मन में काले धन को खत्म करने की इच्छा है न वे इसे बाहर से लाना चाहते हैं,अब जिन खातेदारों के नाम आ रहे हैं वे इस बात से साफ़ इंकार करेंगे कि वह उनका कला धन है ,वैसे भी इतने सालों से चल रहे हंगामे के बाद भला उन स्विस खतों में धन बचे रहने की संभावना कम ही है, देश में ही न जाने कितना काला धन पड़ा है ,उसे ही सरकार नहीं निकलवा सकी है तो बाहर से मात्र हवा में ही है जब तक देश की अंदरुनी अर्थव्यवस्था सही नहीं होगी कला धन पनपता ही रहेगा

    ReplyDelete