कांग्रेस के लिए
आने वाला साल चुनौतियों से भरा है। चुनौतियाँ बचे-खुचे राज्यों में इज्जत बचाए
रखने और अपने संगठनात्मक चुनावों को सम्पन्न कराने की हैं। साथ ही पार्टी के भीतर
सम्भावित बगावतों से निपटने की भी। पर उससे बड़ी चुनौती पार्टी के वैचारिक आधार को
बचाए रखने की है। इस हफ्ते अचानक खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से
कहा है कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप
में देखी जा रही है। लगता है कि राहुल का आशय केवल हिन्दू विरोधी छवि के सिलसिले
में पता लगाना ही नहीं है, बल्कि पार्टी की सामान्य छवि को समझने का है। राहुल ने
यह काम देर से शुरू किया है। खासतौर से पराजय के बाद किया है। इसके खतरे भी हैं।
पिछले तीनेक दशक में कांग्रेस संगठन हाईकमान-मुखी हो गया है। कार्यकर्ता जानना
चाहता है कि हाईकमान का सोच क्या है। पार्टी के भीतर नीचे से ऊपर की ओर
विचार-विमर्श की कोई पद्धति नहीं है। यह दोष केवल कांग्रेस का दोष नहीं है। भारतीय
जनता पार्टी से लेकर जनता परिवार से जुड़ी सभी पार्टियों में यह कमी दिखाई देगी।
आम आदमी पार्टी ने इस दोष को रेखांकित करते हुए ही नए किस्म की राजनीति शुरू की
थी, पर कमोबेश वह भी इसकी शिकार हो गई।
बहरहाल पार्टी ने
कश्मीर और झारखंड का चुनाव हार जाने के बाद अपनी छवि की और ध्यान दिया है तो यह
बात राजनीतिक प्रेक्षकों का ध्यान खींचती है। कांग्रेस क्या वास्तव में अपनी
बिगड़ती छवि से परेशान है? या इस बात से कि उसकी
छवि बिगाड़ कर ‘हिन्दू विरोधी’ बताने की कोशिश
की जा रही हैं? पर उससे बड़ा सवाल यह है कि वह अपनी बदहाली के
कारणों को समझना भी चाहती है या नहीं? छवि वाली बात कांग्रेस
के आत्ममंथन से निकली है। पर क्या वह स्वस्थ आत्ममंथन करने की स्थिति में है? आंतरिक रूप से कमजोर संगठन का आत्ममंथन उसके संकट को बढ़ा
भी सकता है। अस्वस्थ पार्टी स्वस्थ आत्ममंथन नहीं कर सकती। कांग्रेस लम्बे अरसे से
इसकी आदी नहीं है। इसे पार्टी की प्रचार मशीनरी की विफलता भी मान सकते हैं। और यह
भी कि वह राजनीति की ‘सोशल इंजीनियरी’ में फेल हो रही है।
‘हिन्दू विरोधी’ होने का आरोप नया नहीं
यह मामला केवल ‘हिन्दू-विरोधी छवि’ तक सीमित नहीं
है। पचास के दशक में जब हिन्दू कोड बिल पास हुए थे तबसे कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी
होने के आरोप लगते रहे हैं। पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई। साठ के
दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिन्दू विरोधी साबित नहीं कर सका। तब जब
शंकराचार्य तक आंदोलन पर उतर आए थे। अस्सी के दशक में मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण
के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी छवि हिन्दू-मुखी बनाने का बाकायदा प्रयास किया। उनके
उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि आंदोलन का रुख अपनी और मोड़ने की कोशिश
भी की। अयोध्या में ताला खुलवाने और शिलान्यास कराने के कार्यक्रम कांग्रेस सरकार
के इशारे पर ही हुए थे। उस दौर में भाजपा ने अपनी ताकत बढ़ाई, पर कांग्रेस की छवि ‘हिन्दू-विरोधी’ नहीं थी। उत्तर
भारत के राज्य मंडल राजनीति से प्रभावित थे और कांग्रेस की जमीन जनता परिवार के
उत्तराधिकारियों ने छीन ली। तबसे कांग्रेस के सिर पर सोशल इंजीनियरी की तलवार लटकी
है।
वस्तुतः इसे
कांग्रेस के नेतृत्व, संगठन और विचारधारा के संकट के रूप में देखा जाना चाहिए. एक
मोर्चे पर विफल रहने के कारण पार्टी दूसरे मोर्चे पर घिर गई है। कांग्रेस की
रणनीति यदि साम्प्रदायिकता-विरोध और धर्म निरपेक्षता की है, तो वह उसे साबित करने में
विफल रही। उसने अल्पसंख्यकों से रिश्ता बनाने की कोशिश जरूर की, पर इसमें भी सफलता
नहीं मिली। जिन दिनों शाहबानो मामला चर्चा में था उन दिनों आरिफ मोहम्मद खान जैसे
प्रगतिशील मुसलमान भी कांग्रेस में थे। उनकी अनदेखी हुई। कांग्रेस उस वक्त जोखिम
उठाती तो शायद वह धर्मनिरपेक्षता की अपनी छवि को बेहतर बना सकती थी। ‘प्याज खाई और जूते भी पड़े’ वाली कहावत उसपर
चरितार्थ हुई। पार्टी को केवल हिन्दू विरोधी छवि के बजाय ‘भ्रष्टाचार और निष्क्रियता’ से जुड़ी अपनी
छवि के बारे में तहकीकात करनी चाहिए। केंद्र में और कई राज्यों में ‘एंटी इनकम्बैंसी’ के कारण वह पहले
से अर्दब में है।
आत्ममंथन में
जोखिम भी है
अब पार्टी
आत्ममंथन के दौर से गुजर रही है। यह उसकी सबसे बड़ी परीक्षा का समय है। सवाल है कि
क्या आत्ममंथन उसके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होगा? यह खुली प्रक्रिया है, इसमें बड़ी संख्या में कार्यकर्ता
शामिल होगा। इसलिए पार्टी नेतृत्व को असमंजस में डालने वाले मौके भी आएंगे।
प्रक्रिया पारदर्शी रही तो स्वस्थ निष्कर्ष भी निकलेंगे, जिनसे पार्टी का ही भला
होगा। पर पार्टी को इससे जुड़े जोखिम को भी उठाना होगा।
अचानक इस खबर का
फैलना कि पार्टी ‘हिन्दू विरोधी’ छवि से परेशान है यह संदेह पैदा करता है कि यह सब उसके
प्रतिस्पर्धियों के प्रचार का हिस्सा है। पर पार्टी ने औपचारिक रूप से अपनी छवि को
लेकर या आत्ममंथन के निष्कर्षों को लेकर कुछ कहा भी तो नहीं है। पिछले साल दिल्ली
विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद राहुल गांधी आम आदमी पार्टी की रीति-नीति से
प्रभावित हुए थे। पर लगता नहीं कि पार्टी नेतृत्व का कार्यकर्ता से कनेक्ट है।
जून में वरिष्ठ
नेता एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों
के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को सुधारना होगा। उनके बयान से लहरें उठी थीं, पर
जल्द थम गईं. मीडिया रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि पार्टी की आंतरिक बैठकों में
यह मसला कई बार उठता रहा है, इसलिए अब पार्टी निचले स्तर के कार्यकर्ता की राय
लेना चाहती है। राहुल गांधी ने सहज भाव से पार्टी के महासचिवों से कहा है कि वे
निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की राय लें कि पार्टी को कैसे आगे ले जाया जा सकता है।
का बरखा जब कृषी सुखाने। हार होने के बाद कार्यकर्ता की याद आना भी कुछ कहता है। ‘हिन्दू विरोधी’ छवि पार्टी की
चिंता का विषय है या विरोधियों के प्रचार का हिस्सा है? विरोधी तो छवि बिगाड़ना ही चाहेंगे, पर क्या पार्टी-कार्यकर्ता
की राय भी यही है?
अतिशय
भाजपा-विरोध
भाजपा को
साम्प्रदायिक पार्टी साबित करने के अतिशय उत्साह में तो यह स्थिति पैदा नहीं हुई? इसकी शुरुआत गुजरात से हुई थी। नरेंद्र मोदी को पराजित
करने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर थी उनके पास 2002 के दंगों के बाद बनी मोदी की छवि
का कार्ड था। कांग्रेस की पहली हार गुजरात में हुई। कांग्रेस ने उसे इस तरह पेश
किया मानो वह साम्प्रदायिकता की जीत थी। सन 2007 के चुनाव में जैसे ही सोनिया
गांधी ने उन्हें ‘मौत का सौदागर कहा’ मोदी ने उसे गुजरात की अस्मिता से जोड़ दिया।
मोदी ने अपने प्रचार से हिन्दुत्व को अलग रखा और विकास को मुद्दा बनाया, जबकि
कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता को ही निशाना बनाया। धीरे-धीरे बीजेपी ने कांग्रेस की
जमीन छीन ली। इसके विपरीत कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के संरक्षण
से जुड़े कदम जब भी उठाए भाजपा उन्हें ‘हिन्दू-विरोधी’ साबित करने में सफलता पाती
रही। लगता है कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों के हितों को भी समझ नहीं पाई।
लोकसभा चुनाव के
ठीक पहले सोनिया गांधी का जामा मस्जिद के इमाम से भेंट करने का फायदा नहीं मिला,
उल्टे नुकसान हो गया। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी बांग्लादेशियों के अवैध आगमन और
साम्प्रदायिक हिंसा बिल जैसे कानूनों का मुद्दा उठाते रहे। कांग्रेस के पास इन
मुद्दों के जवाब में कोई कारगर रणनीति नहीं थी। पंद्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र
में यूपीए सरकार ने साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम 2011 को पास कराने की
कोशिश की तो भाजपा ने उसे बहुसंख्यकों के खिलाफ साबित किया. अंततः यह विधेयक ठंडे
बस्ते में चला गया। और अब बीजेपी ने कांग्रेस को धर्मांतरण विरोधी कानून के मसले में
उलझा दिया है।
धर्मांतरण की बहस
सामान्य व्यक्ति
की समझदारी की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है। चूंकि बातें कांग्रेस-भाजपा और
राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ को लेकर हैं इसलिए तात्कालिक राजनीति का पानी इसपर चढ़ा
है। धर्म निरपेक्षता के हामियों का नजरिया भी इसमें शामिल है। हमारा देश
धर्म-निरपेक्ष है, पर वह धर्म-विरोधी नहीं है। संविधान में वर्णित स्वतंत्रताओं
में धर्म की स्वतंत्रता और अधिकार भी शामिल है। इस स्वतंत्रता में धर्मांतरण भी
शामिल है या नहीं, इसे लेकर कई तरह की धारणाएं हैं। देश के पाँच राज्यों में
कमोबेश धर्मांतरण पर पाबंदियाँ हैं। इनके अलावा राजस्थान में इस आशय का कानून
बनाया गया है, जो राष्ट्रपति की स्वीकृति का इंतज़ार कर रहा है। अरुणाचल ने भी इस
आशय का कानून बनाया, जो किसी कारण से लागू नहीं हुआ। तमिलनाडु सरकार ने सन 2002
में इस आशय का कानून बनाया, जिसे बाद में राजनीतिक विरोध के कारण वापस ले लिया
गया। ये ज्यादातर कानून धार्मिक स्वतंत्रता के कानून हैं, पर इनका मूल विषय है
धर्मांतरण पर रोक। संविधान सभा में कांग्रेस ने धार्मिक स्वतंत्रता के अंतर्गत
प्रचार की स्वतंत्रता को शामिल कराया। उसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों की माँग को पूरा
करना था। पर बाद में कांग्रेस सरकारों ने ही धर्मांतरण पर रोक के कानून बनाए। इसकी
शुरूआत सन 1967 सें उड़ीसा से हुई।
सवाल यह भी है कि
क्या धार्मिक स्वतंत्रता का वास्ता सामाजिक शिक्षा, सुधार, आर्थिक विकास और
आधुनिकीकरण से नहीं है? भारत के दलित और जनजातीय
क्षेत्र क्या धार्मिक भरती केंद्र हैं जहाँ विभिन्न धर्मावलम्बी ‘लूट’ मचा रहे हैं, जैसाकि संघ
प्रमुख मोहन भागवत को लगता है? पर हिन्दू धर्म के हित
चिंतकों ने इस मामले में क्या किया? जिन लोगों की ‘वापसी’ की बात हो रही है वे क्या
कुछ सोच-विचार कर गए थे? और क्या अब वे इतने
समझदार हो गए हैं कि स्वेच्छा से वापस आना चाहते हैं?
इस विषय पर बात
शुरू होने से 67 साल पुरानी बहस फिर जिन्दा हो गई है। इस मामले को अधर में छोड़ने
के बजाय तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहिए। इस बहस के कम से कम तीन अलग-अलग पहलू
हैं। पहला धर्म या धार्मिकता से जुड़ा है। दूसरा
राजनीतिक और तीसरा संविधानिक या कानूनी है। इस बहस में धर्मनिरपेक्षता,
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दूसरी अन्य स्वतंत्रताओं को शामिल कर लिया गया है।
मसलन धार्मिक प्रचार की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आती है
या नहीं। विस्मय की बात है कि इक्कीसवीं सदी में, जब धर्मों की व्यक्ति के जीवन
में भूमिका कम होनी चाहिए, धार्मिक विस्तार हमारी चिंता का विषय है। इस बहस में वे
वामपंथी भी शामिल हैं जो धर्म को अनावश्यक मानते हैं। सवाल अल्पसंख्यकों के हितों
का है। अल्पसंख्यक हमारे देश में लोकतांत्रिक शक्ति भी हैं।
मोटे तौर पर यह
सब मानते हैं कि दबाव में, लोभ-लालच देकर या धमकी देकर धर्मांतरण कराना अनुचित है।
गुजरात और मध्य प्रदेश के कानूनों में धर्मांतरण के लिए सरकारी अनुमति लेना भी
आवश्यक है। इसका मतलब यह हुआ कि व्यक्ति यदि अकेले में किसी वक्त तय करे कि मैं इस
धर्म के बजाय दूसरे धर्म के रास्ते पर चलूँगा, तब वह अवैध होगा। बल्कि उसके कारण
उसे सज़ा भी दी जा सकती है। एक सवाल यह भी है कि क्या देश के तमाम आदिवासी हिन्दू
हैं या उनका कोई धर्म नहीं है? और यह भी कि क्या उन्हें
शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन वगैरह की मदद देकर क्या धर्म परिवर्तन कराना उचित है? क्या वे इतने समझदार होते हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता का
मतलब समझते हों? धर्म-परिवर्तन कराने के लिए इतने साधन कहाँ से
आते हैं और क्यों आते हैं?
मीनाक्षीपुरम
धर्मांतरण
मतावलम्बियों की
संख्या के हिसाब से ईसाईयत और इस्लाम के बाद दुनिया में हिन्दू धर्म तीसरे नम्बर
पर है। ईसाई धर्मावलम्बी सबसे बड़ी संख्या में है, पर सबसे तेजी से बढ़ता धर्म
इस्लाम है। जन्मदर, धर्मांतरण या दूसरे अन्य कारणों से वैश्विक स्तर पर इस्लाम को
मानने वालों की संख्या बढ़ी है। सन 1910 में दुनिया की आबादी में ईसाई 34.8,
मुसलमान 12.6 और हिन्दू 12.7 फीसदी थे। यह प्रतिशत अब क्रमशः 32.8, 22.5 और 13.8
है। दुनिया के बड़े धनवान देशों के सकल उत्पाद के एक प्रतिशत से थोड़ी कम राशि ‘फेथ बेस्ड’ सहायता के रूप में जाती
है। लगभग इसी प्रकार की सहायता धनवान अरब देशों से भी आती है। फरवरी 1981 में जब
तमिलनाडु में मीनाक्षीपुरम में सैकड़ों दलितों का धर्मांतरण हुआ तब ‘पेट्रो डॉलर’ का प्रसंग भी
उठा था। एक माने में भारत में हिन्दूवादी राजनीति के उभार के पीछे मीनाक्षीपुरम का
धर्मांतरण भी था।
मीनाक्षीपुरम के
धर्मांतरण ने हिन्दू समाज के जातीय अंतर्विरोधों को भी ज़ाहिर किया था। वहाँ यह
बात भी स्थापित हुई थी कि मीनाक्षीपुरम में हिन्दू धर्म को छोड़कर मुसलमान बनने
वाले लोगों ने गरीबी के कारण धर्म नहीं छोड़ा था। इसके पहले थेवरों और दलितों के
बीच टकराव की अनेक घटनाएं हो चुकी थीं। मीनाक्षीपुरम में धर्मांतरित कुछ लोग वापस
अपने धर्म में आ भी गए थे। जो मुसलमान बने रहे उनका कहना है कि अब हम पहले से
ज्यादा सम्मानित और बराबरी पर महसूस करते हैं। संयोग से इस धर्मांतरण ने उस इलाके
में ज्यादा कड़वाहट पैदा नहीं की, पर देश के दूसरे इलाकों में इसे लेकर काफी समय
तक कटुता रही। तमिलनाडु में इस धर्मांतरण के बाद हिन्दू मुन्नानी संगठन बना, जो आज
तक कायम है। तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) का
प्रभुत्व है। दलितों का टकराव प्रायः उनके साथ ही है।
क्या है पार्टी
की समग्र छवि?
दलितों की
सामाजिक दशा को लेकर शिकायतें आज भी कायम हैं। दक्षिण के चारों राज्यों में भारतीय
जनता पार्टी अपनी जगह बना रही है। उसका आधार इसी धार्मिक-सामाजिक टकराव से निकल
रहा है। धर्मांतरण केवल व्यक्ति की अंतःकरण की स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है। इसके
गहरे राजनीतिक फलितार्थ हैं। राजनीतिक दल बहती गंगा में हाथ धोने का काम करते हैं,
उनकी दिलचस्पी सामाजिक सामंजस्य बनाने से ज्यादा वोट पाने में है, जो हमारी
परम्परागत अवधारणा नहीं है, बल्कि पश्चिमी लोकतंत्र से हमने ली है। तमिलनाडु में
ही नहीं देश के दूसरे इलाकों में भी धर्मांतरण ज्यादातर दलितों और आदिवासियों का
होता है, जिसकी वजह है उनकी सामाजिक दुर्दशा। जैसे नक्सलवाद सामाजिक और आर्थिक
भेद-भाव की परिणति है तकरीबन उसी तरह धर्मांतरण इस दुर्दशा का समाधान लेकर आया है,
पर परिणाम उसका भी बहुत अच्छा नहीं है। धर्मांतरित दलित रहते दलित ही हैं। बहरहाल जैसे
नक्सलवाद एक राजनीतिक विचार है तकरीबन उसी तरह धर्मांतरण एक राजनीतिक अवधारणा के
रूप में सामने आया है। कांग्रेस को इस बहस को आगे बढ़ाना चाहिए। साथ ही अपनी
स्थिति को स्पष्ट भी करना चाहिए। पर इसमें वह विफल रही है। दूसरी और वह जिस आर्थिक
नीति का पालन कर रही है और जिसे अपनी राजनीति का विषय बना रही है उसमें अंतर्विरोध
है। वह भारतीय मध्य वर्ग की आकांक्षाओं को समझने में नाकामयाब रही। उसे इन मसलों
की पड़ताल भी करनी चाहिए। उसकी सकल छवि महत्वपूर्ण है। केवल हिन्दू-विरोधी छवि
माने नहीं रखती।
पवन प्रवाह में प्रकाशित
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