यह हफ्ता काफी
नाज़ुक साबित होने वाला है। कांग्रेस पार्टी ने देर से, लेकिन अपेक्षाकृत व्यवस्थित
तरीके से महीने की शुरूआत की है, पर 22 तारीख से शुरू हो रहे संसद के सत्र में साफ
हो जाएगा कि अगले लोकसभा चुनाव 2014 में होंगे या 2013 में। मनमोहन सिंह ने डिनर पर
मुलायम सिंह से और लंच पर मायावती से मुलाकात कर ली है। किसी को भी समझ में आता है
कि बात लोकसभा के फ्लोर मैनेजमेंट को लेकर हुई होगी। मतदान की नौबत आई तो क्या करेंगे? संगठन के स्तर पर भी बात हुई होगी। पर
प्रधानमंत्री की मुलाकात का मतलब समझ में आता है। उन्होंने सरकारी नीतियों को स्पष्ट
किया होगा या गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की होगी। सपा और बसपा पर दारोमदार है।
सहयोगी दलों के अलावा बीजेपी के साथ भी कांग्रेस का बैकरूम संवाद चल रहा है। आर्थिक
उदारीकरण के सवाल पर दोनों पार्टियों में वैचारिक सहमति है।
सरकार को इस सत्र
में अपने फैसलों का बचाव करना है और कुछ कानूनों को पास कराना है। पेंशन और इंश्योरेंस,
जीएसटी और भूमि अधिग्रहण कानून इनमें सबसे प्रमुख हैं। इसके अलावा डीज़ल की कीमतें,
एलपीजी सिलेंडरों की संख्या और खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के मामले हैं। बीजेपी
की घोषित नीति इनका विरोध करने की है। उसे भी अपना राजनीतिक भविष्य देखना है। वॉलमार्ट
ने भारत में प्रवेश के लिए क्या घूसखोरी का सहारा लिया, यह सवाल उठने जा रहा है। सीपीएम
ने घोषणा की है कि हम नियम 184 के तहत एफडीआई पर बहस का नोटिस देंगे। उसका उद्देश्य
है कि मतदान हो जाए। तृणमूल कांग्रेस भी कम से कम इस मामले में सीपीएम से सहमत है।
टू-जी नीलामी में हुई फज़ीहत का रुख सरकार ने सीएजी की ओर मोड़ दिया है, पर बीजेपी
इस मामले में सरकार को नीचा दिखाने की कोशिश करेगी। सरकार की चिंता आर्थिक सुधारों
के इस चरण को पूरा करने की है। यह पूरा हो जाता है तो अगला राजनीतिक चरण है चुनाव पूर्व
की संगठनात्मक कबायद।
संयोग है कि जिस
दिन चीन के नए राष्ट्रपति के नाम की घोषणा हुई उसी रोज़ कांग्रेस पार्टी ने ऐलान किया
कि राहुल गांधी को 2014 के लोकसभा चुनाव की समन्वय समिति का प्रमुख बनाया गया है। 9
नवंबर को सूरजकुंड में पार्टी की संवाद बैठक के बाद सोनिया गांधी ने समन्वय समिति बनाने
का संकेत किया था। इसे पूरा कर लिया गया है। सरसरी निगाह में यह सामान्य औपचारिकता
लगती है, पर गौर से देखें तो समझ में आता है कि कांग्रेस ने संगठित और संस्थागत तरीके
से चुनाव में उतरने का फैसला किया है। इसमे पार्टी की कोर कमेटी की शक्ल भी नज़र आती
है। राहुल औपचारिक रूप से पार्टी में दूसरे नम्बर के नेता हो गए हैं। अभी तक वे युवा
कांग्रेस और एनएसयूआई के काम देखते थे। अब वे अगले चुनाव का एजेंडा, भावी नीतियाँ,
चुनाव घोषणापत्र, पार्टी प्रत्याशियों के नाम, चुनाव पूर्व गठबंधनों, जन-सम्पर्क और
प्रचार के मुद्दों को भी तट करेंगे। राहुल की इस टीम में कुल 27 नेता है, जिनमें से
11 केन्द्रीय सरकार के मंत्री हैं। टीम सोनिया अब टीम राहुल हो गई है। यह राहुल की
वह युवा टीम नहीं है जो अभी तक उनके साथ नज़र आती थी। इन 27 में से केवल छह नेता
50 से कम उम्र के हैं।
नवम्बर के महीने की शुरूआत कांग्रेस ने आक्रामक
अंदाज़ में की है। 4 नवम्बर की रामलीला मैदान की रैली के दो उद्देश्य थे। एक, सरकारी
नीतियों के पक्ष में आक्रामक होना और दूसरे राहुल गांधी को सामने लाना। रैलियों में
संगठन क्षमता का पता लगता है और मीडिया का ध्यान भी बँटता है। रामलीला मैदान की रैली
मतदाता से ज्यादा पार्टी कार्यकर्ता को सम्बोधित थी। यदि उसमें उत्साह कायम है तभी
सफलता की उम्मीद की जा सकती है। इस रैली में दिल्ली की शीला दीक्षित, हरियाणा के भूपेन्द्र
हुड्डा और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत की परीक्षा भी थी। कार्यकर्ताओं के लाने
के साधन इन्हीं के पास थे। पर रैलियाँ चुनाव नहीं जितातीं। कांग्रेस के सामने इन तीनों
राज्यों में एंटी इनकम्बैसी का सामना करना है। उत्तर भारत के शेष राज्यों में उसके
संगठन की स्थिति अच्छी नहीं है। नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच दूरी है।
इस रैली के बाद सूरजकुंड की संवाद बैठक ने
भी मीडिया का ध्यान खींचा। बैठक में शामिल सत्तर नेताओं में से 35 केन्द्रीय मंत्री
थे। ज्यादातर नेता बसों में बैठकर आए थे। यह बस यात्रा भी एक प्रकार की पीआर एक्सरसाइज़
थी। मीडिया और जनता का ध्यान खींचने की कोशिश। सरकार यह भी बताना चाहती थी कि अलग-अलग गाड़ियों से जाने
पर लोगों को ट्रैफिक में दिक्कत होती। पार्टी आम लोगों की परेशानियों का ख्याल रखती
है। पीआर एक हद तक उपयोगी होता है। अंततः प्रतिबद्ध कार्यकर्ता चाहिए। राहुल के पास
डेढ़ साल हैं, इन कार्यकर्ताओं को तैयार करने के लिए। डेढ़ साल तब, जब सरकार इस सत्र
की बाधा को आसानी से पार करे। क्या यह आसान काम है?
पर मुलायम सिंह
और मायावती का गणित क्या है? क्या
वे सीबीआई और अदालती डोर से नाचते हैं? इसमें कुछ सच्चाई भी होगी, पर सवाल है कि मायावती और मुलायम सिंह
क्या वास्तव में जल्दी चुनाव चाहते हैं। इस साल के शुरू में उत्तर प्रदेश विधान सभा
का चुनाव जीतने के बाद मुलायम सिंह ने घोषणा की थी कि अब जल्द लोकसभा चुनाव के लिए
तैयार रहें। ऐसा पहली बार हुआ है जब उनकी पार्टी ने लोकसभा के प्रत्याशी भी तय कर दिए
हैं। बसपा ने पहले घोषणा की थी कि अक्टूबर के अंत तक हम प्रत्याशियों की सूची जारी
कर देंगे। कुछ जगहों के प्रत्याशियों के नाम औपचारिक-अनौपचारिक रूप से जारी कर भी दिए
हैं। जैसे रायबरेली में सोनिया गांधी के खिलाफ प्रत्याशी का नाम घोषित कर दिया है।
दोनों पार्टियों को जल्दी है तो क्या वे सरकार को इसी सत्र में गिराना नहीं चाहेंगी? ममता बनर्जी भी चाहती हैं कि सरकार जाए।
उन्होंने बंगाल में कांग्रेस के विधायकों को तोड़ना शुरू कर दिया है, पर खतरा उनके
लोकसभा सांसदो के टूटने का भी है। उत्तर प्रदेश में इस बार भी समाजवादी पार्टी को क्या वैसी
ही सफलता मिलेगी जैसी विधानसभा चुनाव में मिली थी? छह महीने में काफी कहानी बदल गई है। यों भी सपा के वोट
प्रतिशत में तीन-चार फीसदी का इज़ाफा हुआ था। बढ़े हुए वोट की प्रकृति स्थायी नहीं
है। ऐसे में वर्तमान सांसदों की साँसत बढ़ाने से क्या फायदा? उनके दुबारा चुनकर आने की गारंटी नहीं
है। कमोबेश यही कहानी बसपा की है। इसलिए लगता है कि दिल्ली में विंटर बारगेन सेल लगेगी।
राहुल गांधी का
ध्यान अभी आने वाले वक्त पर है। सरकार और संगठन के चालू काम निपटाने की जिम्मेदारी
वर्तमान मैनेजरों के हाथ में ही है। पार्टी ने व्यवस्थित तरीके से भविष्य की रूपरेखा
बना ली है, पर भविष्य कितनी दूर है? जहाँ तक आर्थिक उदारीकरण के फैसलों का सवाल है, केन्द्र की भावी
राजनीति करने की इच्छुक पार्टियों को पता है कि यह काम आज नहीं तो कल होना है। बेहतर
है कि कांग्रेस के हाथों हो। राजनीतिक गहमागहमी में कुछ महीने और कट जाएंगे तो चुनाव
की तैयारी हो जाएगी। रोचक बात है कि जब संसद का सत्र चलेगा, गुजरात वोट दे रहा होगा? हमारा ध्यान गुजरात से हट क्यों गया है? लगता है कांग्रेस को भी गुजरात में ताकत
लगाने के बजाय लोकसभा के अगले चुनाव पर ध्यान देना मुफीद लगता है। तब क्या नरेन्द्र
मोदी दिल्ली की ओर रुख करने वाले हैं? संसद के इस सत्र में बीजेपी अपने घायल अध्यक्ष के बचाव में लगेगी।
यह भी कि लोकसभा का अगला चुनाव राहुल बनाम मोदी होगा या नहीं। राजनीति के पिटारे में
अभी काफी रहस्य बंद हैं। इंतज़ार करते रहिए।
No comments:
Post a Comment