Monday, June 18, 2012

चुनौतियाँ शुरू होंगी राष्ट्रपति चुनाव के बाद

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
राष्ट्रपति पद के चुनाव का पहला दौर कांग्रेस ने आसानी से पार कर लिया। पार ही नहीं किया बल्कि जीत भी लिया है। यह फौरी जीत मुलायम और ममता बनर्जी की जल्दबाजी के कारण हासिल हुई है। पर राष्ट्रपति चुनाव अंतिम जीत नहीं है। अलबत्ता इससे कांग्रेस के रणनीतिकारों को बल मिलेगा। अभी तमाम रहस्य शेष हैं। यह साफ नहीं हुआ है कि सोनिया गांधी प्रणव मुखर्जी को वास्तव में प्रत्याशी बनाना चाहती थीं या नहीं। बहरहाल अब यूपीए को नए वित्तमंत्री, तमाम ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के अध्यक्ष, लोकसभा में सदन के नेता और पार्टी के सबसे बड़े ट्रबुल शूटर की तलाश करनी होगी। कांग्रेस के सामने जो समस्याएं सामने आने वाली हैं वे लोकसभा के अगले चुनाव के बाबत हैं। ममता बनर्जी कब तक यूपीए में बनी रहेंगी और क्या मायावती और मुलायम सिंह एक ही घाट का पानी पिएंगे?


आज रिज़र्व बैंक मौद्रिक नीति की समीक्षा पेश करने वाला है। शायद बैंक की ब्याज दरें कम की जाएं उद्योगों और उपभोक्ताओं के पास पूँजी आए। इससे आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाई जा सकती है। पर इससे मुद्रास्फीति भी बढ़ेगी। अभी तक समझ में नहीं आ रहा कि इस साल मॉनसून कैसा रहेगा, पर रुपए की कीमत, विदेशी निवेश में कमी और विदेश व्यापार में बढ़ता घाटा परेशानी पैदा करने वाला है। आज ग्रीस के चुनाव परिणाम भी आने वाले हैं, जिनसे पता लगेगा कि यूरोप का संकट किस दिशा में जाएगा। इतना ज़रूर है कि यूरोप को होने वाला हमारा निर्यात कम हो रहा है साथ ही भारत के शेयर बाजार में लगा डॉलर यूरोप के निवेशक निकाल रहे हैं।

इन सब बातों से ज्यादा बड़ा असर उन नीतियों और कानूनों पर पड़ेगा जो किसी न किसी वजह से रुके पड़े हैं। अंततः सारी बातें देश की राजनीति पर आकर रुकेंगी, जिसे वर्तमान संकट का बड़ा कारण माना जा रहा है। पिछले एक साल में देश की राजनीति ने विकास के रास्ते खोलने के बजाय बन्द किए हैं। मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश को लेकर सर्वानुमति नहीं है। बेहतर है कि पहले राजनेता इसपर सर्वानुमति बनाएं।

दुनिया के पाँच सबसे बड़े खुदरा बाजारों में भारत का शुमार होता है, पर हमारा पूरा कारोबार छोटे स्तर के निजी दुकानदारों के हाथों में है। इस बाजार को खोलने में सबसे बड़ी दुविधा इन लाखों-करोड़ों कारोबारियों के हितों की रक्षा को लेकर है। पिछले कुछ साल में बिग बाजार, रिलायंस, स्पेंसर्स, मोर और ईज़ी डे जैसी रिटेल चेन सामने आई हैं, पर इसी दौरान सुभिक्षा जैसी चेन पूँजी की कमी के कारण डूब गई। खुदरा बाजार की नीति में दुकानदारों और किसानों के हितों में टकराव है। पंजाब सरकार चाहती है कि रिटेल में विदेशी निवेश की अनुमति मिले। देश में लगभग तीस फीसदी खाद्य सामग्री सड़ती और गल जाती है। इसके भंडारण के लिए जिस स्तर की तकनीक और पूँजी चाहिए वह हमारे पास उपलब्ध नहीं है। सवाल यह भी है कि इस तकनीक के आ जाने से किसानों का हित होगा भी या नहीं। उत्तर प्रदेश के आलू किसानों की शिकायत रहती है कि बाजार में कीमत बढ़ने पर फायदा हमें नहीं मिलता, वह तो कोल्ड स्टोरेज में माल खरीदकर रखने वाले का होता है। बाजार के नियमों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें जब पूरी तरह लागू होने दिया जाए तो संतुलन अपने आप कायम हो जाता है। खुदरा बाजार में किसानों और विक्रेताओं के अलावा उपभोक्ताओं के हित भी जुड़े हैं।

खुदरा बाजार के अलावा पेंशन फंडों का मामला लम्बे अरसे से अटका पड़ा है। इस महीने सरकार ने अपने सहयोगी दलों से इस बारे में बात शुरू की तो ममता बनर्जी ने साफ मना कर दिया। उनका कहना है कि पेंशन जैसे मामले में विदेशी कम्पनियों पर भरोसा कैसे किया जा सकताहै? उनकी बात सही हो सकती है, पर भरोसा जब भारतीय कम्पनियों पर हो सकता है तब विदेशी कम्पनियों पर भी किया जा सकता है। इंश्योरेंस और बैंकिंग का बाज़ार हमने आंशिक रूप से खोला भी है और प्रतियोगिता के कारण भारत के जीवन बीमा निगम से लेकर सरकारी बैंकों की तकनीक और कामकाज में सुधार भी हुआ है। ऐसा नहीं हुआ कि विदेशी कम्पनियाँ हम पर हावी हो गईं। शेयर बाजार में संस्थागत निवेशकों के मुकाबले स्थायी रूप से भारत में निवेश करने वालों पर ज्यादा भरोसा किया जा सकता है। संयोग से पिछले एक दशक में भारतीय कम्पनियों का आत्मविश्वास भी बढ़ा और उन्होंने विदेशी कम्पनियों को खरीदना शुरू किया है। ज़रूरत बेहतर नियमन की है।

आर्थिक उदारीकरण की सबसे सफल कहानियों में टेलीकम्युनिकेशंस का उदाहरण लिया जा सकता है। इसके स्पेक्ट्रम बाँटने में घोटालों की कहानियों के पीछे भारतीय राजनीति और कारोबार का जितना हाथ है उतना विदेशी कारोबार का हाथ नहीं है। इसमें खराबियाँ आई तो प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था ने काम भी किया है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट और सीएजी के कारण तमाम मामले उजागर हुए। इन दोषों की वजह उदारीकरण नहीं है। उदारीकरण के कारण कारोबारी लाभ उठाने की जो सम्भावनाएं बन रहीं हैं उनपर नज़र रखने वाली संस्थाओं की ज़रूरत है। और इसका बेवजह विरोध करने की ज़रूरत भी नहीं है। बाबा रामदेव ने कहीं विदेशी पूँजी निवेश को भी ब्लैक मनी बता दिया, जबकि वह साफ-सुथरे ढंग से लगाया गया धन है। उस पर हमारी सरकार को टैक्स भी मिलेगा।

पेट्रोलियम पदार्थ हमारे यहाँ हमेशा से परेशानी का विषय रहे हैं। पिछली सदी में सत्तर के दशक से पेट्रोलियम संकट शुरू होने के बाद से यह कहानी शुरू हुई है। जैसे-जैसे हमारा आर्थिक विकास होगा हमारी ऊर्जा ज़रूरतें बढ़ेंगी। हमारा सबसे बड़ा आयात पेट्रोलियम का है। इसकेदाम बढ़ने का इस वक्त जो कारण है वह यह भी नहीं है कि उसकी अंतरऱाष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ रहीं हैं। डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत घटने के कारण वह हमें महंगा लग रहा है। यह ऐसे मौके पर हुआ है जब सरकार सेट्रोलियम पर सब्सिडी कम करना चाहती थी। पेट्रोल पर सरकारी सब्सिडी कब तक चलेगी और क्यों चलेगी? यह सब गरीबों के हितों के नाम पर है जबकि गरीब पेट्रोल और घरेलू गैस का उपभोक्ता नहीं है। गरीब व्यक्ति के नाम से गैस कनेक्शन नहीं होते। वे बाजार से छोटे सिलंडरों में दुगने दाम देकर गैस खरीदते हैं।

सरकारी खर्च में एक बड़ा हिस्सा एयरलाइंस पर खर्च होता है। सरकारी एयरलाइंस लगातार घाटे में रहती हैं। दूसरी ओर निजी क्षेत्र की एयरलाइंस खड़ी नहीं हो पा रहीं हैं, क्योंकि उनके पास पूँजी की कमी है। लम्बे अरसे से एविएशन में उदारीकरण का काम रुका पड़ा है। देश के हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण का लम्बे समय तक विरोध होता रहा। अंततः 2006 में दिल्ली और मुम्बई हवाई अड्डों के निजी क्षेत्र में आधुनिकीकरण का काम शुरू हुआ। इस समय देश के पाँच हवाई अड्डों का निजीकरण हो चुका है। पर आने वाले वक्त में ज़रूरतें बहुत तेजी से बढ़ेंगी। दिक्कत यह है कि राजनीतिक कारणों से हम बड़े फैसले नहीं कर पा रहे हैं।

लम्बे अरसे से माल और बिक्री पर लगने वाले टैक्सों में सुधार का काम करके उन्हें आसान करने का काम पड़ा हुआ है। दुनिया में 140 से ज्यादा देशों में इस प्रकार का टैक्स सुधार हो चुका है। हमारे यहाँ केन्द्र और राज्यों के बीच गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) पर सहमति बनाने में काफी वक्त लग रहा है। इसी तरह आयकर कानूनों के नए डायरेक्ट टैक्स कोड को लागू करने का काम है। जबसे देश के हर राज्य में स्पेशल एक्सपोर्ट जोन बनाने के नाम पर जमीन के अधिग्रहण का काम शुरू हुआ यह एक राजनीतिक सवाल बन गया है। काफी बहस मुबाहिसे के बाद भूमि अधिग्रहण कानून का प्ररूप तैयार किया गया। उस पर भी ममता बनर्जी ने वीटो कर दिया। इसके अलावा भोजन का अधिकार कानून भी अभी मसौदों के बाहर नहीं आ पा रहा है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और भूमि अधिग्रहण कानून यूपीए की राजनीति के महत्वपूर्ण कारक हैं। रोजगार गारंटी योजना चल रही है, पर फायदों और नुकसानों पर बहस नहीं है। शिक्षा के अधिकार का कानून लागू कर दिया गया है, पर लगता नहीं कि हम हर बच्चे को व्यावहारिक रूप से यह अधिकार दे पाएंगे। इसके लिए साधनों की जरूरत है। और साधन अचानक कम होते जा रहे हैं। सरकार के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती इसी सवाल पर है। और सवाल राजनीतिक है आर्थिक नहीं, जो संसद के अगले सत्र में उभर कर सामने आएंगे।
स्वतंत्र भारत में प्रकाशित

4 comments:

  1. देश के मौजूदा हालात और संभावित परिद्रश्य पर बेहतरीन विश्लेषण किया है आपने... लेख से आपकी पारखी नज़र की झलक साफ़ नज़र आती है...

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  2. @चुनौतियाँ शुरू होंगी राष्ट्रपति चुनाव के बाद


    पारखी नज़र तो नज़र आ रही है पर सरकारी चश्मे से...

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (19-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  4. आपने आने वाले समय कों देख के लिखा है ... पर एक हिसाब से अच्छा है की कोई नया आयगा और नयी नज़र तो मिलेगी ..

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