नंदन नीलेकनी ने हाल में एक टीवी चैनल पर कहा कि
भ्रष्टाचार किसी एक कानून के बन जाने से खत्म नहीं हो जाएगा। मैं इस आंदोलन में
शामिल लोगों की फिक्र से सहमत हूँ, पर यह नहीं मानता कि कोई जादू की गोली इसका
इलाज है। संयोग से नंदन नीलेकनी के इनफोसिस के पुराने मित्र मोहनदास पै एक और चैनल
पर इस आंदोलन को जनांदोलन बता रहे थे और इसे दबाने की सरकारी कोशिशों का विरोध कर
रहे थे। जिन दो मित्रों के बीच एक कम्पनी और कार्य-संस्कृति का विज़न एक सा था, वे
इस मामले में एक तरह से क्यों नहीं सोच पा रहे हैं? शायद नीलेकनी का पद आड़े
आता है। या वे वास्तव में इस मसले की तह तक जाकर सोचते हैं और हम बेवजह उनके
सरकारी पद को इस मसले से जोड़कर देख रहे हैं। यह सिर्फ नीलेकनी और पै का मामला
नहीं है।
जैसे-जैसे अन्ना हजारे के आंदोलन का आधार व्यापक
हो रहा है वैसे-वैसे उसे लेकर अंतर्विरोधी विचार सामने आ रहे हैं। इस आंदोलन में
दलित कहाँ है? पिछड़ा वर्ग नहीं है, मुसलमान नहीं है। शर्मिला इरोम के
अनशन के बारे में इनकी राय क्या है? आंदोलन पर भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने
कब्जा कर लिया है। अन्ना के पास देश के बाबत कोई वहत् राजनैतिक विचार नहीं है।
आर्थिक और औद्योगिक-नीति पर कोई साफ दृष्टिकोण नहीं है वगैरह। शनिवार की शाम को
टीम अन्ना के खुले संवाददाता सम्मेलन में इस किस्म के सवाल भी उठाए गए। हालांकि
अन्ना और प्रशांत भूषण ने इसका जवाब देने की कोशिश की, पर बात वहीं की वहीं है।
कांग्रेस ने ही नहीं, सभी राजनैतिक दलों ने
अन्ना के आंदोलन की अपील का अनुमान नहीं लगाया था। इस वजह से शुरुआत से ही इसने राजनीति-विरोधी
आंदोलन की शक्ल ले ली थी। अप्रेल के जंतर-मंतर अनशन के दौरान कुछ राजनैतिक नेताओं
को मंच से लौटा दिया गया। इस दौरान आंदोलनकारियों और सरकार दोनों का नौसिखियापन
सामने आया है। संयुक्त प्रारूप समिति (जेडीसी) के गठन में विरोधी दलों को न तो
शामिल किया गया और न उनसे राय ली गई। सरकार की ओर से यह दूसरी नासमझी थी। पहली
नासमझी जेडीसी में दिखाया गया सरकारी एरोगैंस था। बाबा रामदेव से सफलतापूर्वक
निपटने के बाद सरकारी पक्ष के कुछ लोगों के दिमाग आसमान पर थे।
सरकार और आंदोलनकारी दोनों कह रहे हैं कि हम बात
करने को तैयार हैं, पर लगता है मामले को सुलझाने के लिए कोई बात हो नहीं रही है।
सरकार क्या अपने बिल को संसद से पास करा पाने की स्थिति में है? बावजूद पर्याप्त बहुमत के यूपीए के लिए लोकसभा में ही इसे पास कराना आसान
नहीं होगा, राज्यसभा में दिक्कत और ज्यादा है। इस आंदोलन के दौरान टीम अन्ना ने
राजनैतिक दलों से एक बड़ी स्पेस छीन ली है। क्या यह किसी नए राजनैतिक संगठन की आहट
है? शनिवार की शाम अरविन्द केजरीवाल ने कहा, नहीं हम कोई
राजनैतिक दल नहीं बना रहे हैं। और किसी सरकार को गिराना नहीं चाहते। इसमें दो राय
नहीं कि यह आंदोलन कांग्रेस विरोधी है। तब क्या इसका फायदा विरोधी दल उठाएंगे? गैर-एनडीए दलों ने 23 को और एनडीए ने 25 से विरोध आंदोलन शुरू करने की घोषणा
की है। शरद यादव ने एक समन्वित आंदोलन का सुझाव दिया था, पर वैसा हो नहीं पाया।
मसले को सुलझाने में जितनी देर होगी कांग्रेस को
उतना नुकसान होगा। एक बड़ा तबका महसूस करता है कि सरकारी लोकपाल विधेयक कमज़ोर है।
इधर हर्ष मंदर और अरुणा रॉय की संस्था एनसीपीआरआई ने भी अपना मसौदा आगे बढ़ाया है।
अप्रेल में जब जेडीसी बनाई जा रही थी, तब अनुमान था कि सरकार शायद राष्ट्रीय
सलाहकार परिषद के मार्फत इस मसौदे को सामने रख सकती है। यह मसौदा अन्ना टीम के
मसौदे से काफी मिलता-जुलता है। ये लोग पहले आपस में बैठकर काम करते भी थे। बहरहाल
अब सरकार के पास फेस सेविंग के लिए कुछ नहीं है।
अन्ना आंदोलन क्या प्रतिगामी है? नहीं है तो जनांदोलन के पक्षधर इससे सकुचा क्यों रहे हैं? ‘काफिला’ में निवेदिता मेनन ने लिखा है, ‘वी शुड बी देयर-द लेफ्ट एंड द अन्ना मूवमेंट’। आप कहते हैं कि अन्ना की
पीठ पर बैठकर संघी लोग आगे आ रहे है। तब आपको किसने रोका? जैसे ही संघ के लोग किसी आंदोलन में शामिल होते हैं आप हट क्यों जाते हैं? इसमें दो राय नहीं कि यह मध्य वर्ग का आंदोलन है। पर मध्य वर्ग जनता का
दुश्मन नहीं होता। वह अपने से नीचे के वर्गों के पक्ष में लड़ता है। हमें अपने
मध्य वर्ग से शिकायत रही है कि वह मौज-मस्ती में मसरूफ है। जनता की समस्याओं के
लिए लड़ने के वास्ते आगे नहीं आता। मोमबत्ती वालों का मज़ाक बनाने से क्या चीजें
ठीक हो जाएंगी? ऐसे लोग भी हैं, जिनका मानना है कि इस आंदोलन के पीछे
प्रफेशनल नौजवानों का होना बताता है कि सरकार अपने उदारीकरण के कार्यक्रम से पीछे
हट गई और नरेगा, राइट टु फूड और शिक्षा के अधिकार जैसे कार्यक्रमों मे लग गई। वे
यह नहीं समझ पाते कि इस नए वर्ग की जड़ें गाँवों और कस्बों में हैं। यह नया वर्ग
अमेरिका से उड़ता हुआ नहीं आया है।
ऑफीशियल वामपंथी पार्टियों ने इस बात को समझा है
और लगभग सभी ने बदले माहौल का फायदा लेने के लिए अन्ना-आंदोलन को प्रत्यक्ष या
परोक्ष समर्थन देने का फैसला किया है। वाम पंथी छात्र संगठन इसके समांतर अपने
आंदोलन शुरू कर रहे हैं। मेधा पाटकर के नेतृत्व में नेशनल एलायंस ऑफ पीपुल्स
मूवमेंट ने आंदोलन को समर्थन देने का फैसला किया है। पर यह आंदोलन वामपंथी आंदोलन
नहीं है। और न वाम-व्यवस्था इनका सपना है। पर केवल लोकपाल बिल भी इनका सपना नहीं
है। शनिवार को किरन बेदी ने कहा, यह रोलर की तरह काम करेगा। एक कानून के बाद दूसरा
कानून आएगा। यह बदलाव के पहिए को घुमाएगा।
यह वैकल्पिक राजनीति का आंदोलन नहीं है। हाँ इसे
वैकल्पिक राजनीति की बुनियाद डालने का आंदोलन बनाया जा सकता है। इससे लगभग वे सारे
मसले जो राष्ट्रीय महत्व के हैं। पर यह व्यापक मोर्चा है। इसमें यूथ फॉर इक्वैलिटी
है तो आइसा भी है। इसे संसदीय राजनीति के लिए खतरनाक कहा जा रहा है। पर क्यों? आंदोलन ने संसद की अवमानना नहीं की। और न ऐसा कहा गया है कि संसद को कानून
बनाने का अधिकार नहीं है। संसदीय व्यवस्था के व्यावहारिक पहलुओं की ओर ध्यान
खींचने में क्या कुछ गलत है? संसद अपनी पहल पर विधेयक पास नहीं करती। आमतौर
पर सरकार विधेयक पेश करती है। सरकार पर दबाव बनाना संसदीय राजनीति की मान्य
परम्परा है। इंग्लैंड में राजशाही के मुकाबले संसदीय व्यवस्था जनता के दबाव में ही
कायम हुई। हाल में नेपाल में जनता का शासन इसी तरह आया।
इस आंदोलन का दबाव
है या कांग्रेस और भाजपा के समझौते का परिणाम है, पिछले कुछ समय से संसद में
गम्भीर बहस हो रही है। एक अरसे से संसद के सत्र निरर्थक साबित हो रहे थे। अन्ना की
गिरफ्तारी के बाद सरकार संसदीय आलोचना के दबाव में आ गई। लोकपाल बिल पर खुली बहस
सिर्फ एक मसले पर केन्द्रित नहीं रहेगी। तमाम मसले उसमें शामिल होंगे। पर क्या यह
बहस होगी?
लोकपाल बिल की
विधायी प्रक्रिया के बारे में सर्वदलीय सहमति की ज़रूरत है। उसके पहले विधेयक के
मूल-स्वरूप पर विचार करना होगा। टीम अन्ना की माँग है कि इस बिल को वापस लेकर
जन-लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया जाए। क्या ऐसा सम्भव है? गेंद विपक्षी दलों के पाले में है। समय है कि सारे राजनैतिक दल मिलकर इस
कानून को उपादेय बनाएं। सवाल केवल अन्ना या सरकार की प्रतिष्ठा का नहीं है।
राजनैतिक दल विधेयक की बुनियादी बातों पर एकमत नहीं हैं। संसद की स्थायी समिति के
बाहर भी इस विषय पर बैठकर बात की जा सकती है। और यह बात होनी चाहिए।
क्या यह आंदोलन
यूपीए सरकार के नेतृत्व में भी बदलाव करेगा? कोई आश्चर्य नहीं। पिछले
कुछ महीनों में सरकारी छवि में जबर्दस्त गिरावट आई है। सब ऐसे ही चलता रहा तो अगले
विधान सभा चुनाव पार्टी के गले की हड्डी बनेंगे। राहुल को 2014 में प्रधानमंत्री
बनाने की बात तब होगी, जब पार्टी जीतेगी। प्रणब मुखर्जी को छोड़ दें तो उसके शीर्ष
नेताओं में राजनैतिक पृष्ठभूमि के लोग ही नहीं हैं। अजब एरोगेंस इसके नेताओं में
है। जेपी आंदोलन की तरह अन्ना आंदोलन का असर उत्तर भारत में ज्यादा है। और
कांग्रेस पार्टी के पास उत्तर भारत के नेताओं का टोटा है। नेतृत्व संकट भाजपा के
सामने भी है। वामपंथी पार्टियाँ इस इलाके से अपना बिस्तर समेट चुकी हैं। इसलिए
यहाँ क्षेत्रीय छत्रप ही प्रभावशाली हैं। और फिलहाल रहेंगे।
बिलकुल।
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लो जी, मैं तो डॉक्टर बन गया..
क्या साहित्यकार आउट ऑफ डेट हो गये हैं ?
ये क्या कम बड़ा बदलाव है कि जो युवा क्रिकेट के पीछे पगलाया सा घूमता था आज अपने आप अन्ना की आवाज़ से अपनी आवाज़ मिला रहा है.
ReplyDeleteजय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
वैकल्पिक राजनीति का आंदोलन तो नहीं है .. पर जनता की जागरूकता तो बढ गयी है इससे .. आपके इस खास लेख से हमारी वार्ता समृद्ध हुई है!!
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