न्यूज़वीक का पहला अंक |
‘दिनमान’ ज्यादा वक्त चला नहीं। जब चलता था तो उसकी ‘टाइम’ या ‘न्यूज़वीक’ से तुलना की जाती थी। ‘दिनमान’ को पूरी तरह विकसित होने का या पूरी तरह समाचार पत्रिका बनने का मौका ही नहीं मिला। जब वह बंद हुआ तब तक दुनिया में समाचार पत्रिकाओं पर संकट के बादल नहीं थे। हिन्दी के अखबारों का तो विकास ही तभी से शुरू हुआ था। हांगकांग से निकलने वाली ‘फार ईस्टर्न इकोनॉमिक रिव्यू’ दिसम्बर 2009 में बंद हो गई। ‘एशियावीक’ बंद हुई। बहरहाल जिन समाचार पत्रिकाओं को हम मानक मान कर चलते थे, उनके बंद होने का अंदेशा कुछ सोचने को प्रेरित करता है।
अमेरिका की प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका ‘न्यूज़वीक’ का सौदा हो गया। इसे ख़रीदने वाले 91 साल के सिडनी हर्मन हैं जो ऑडियो उपकरणों की कंपनी हर्मन इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक हैं। वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी, जिसने ‘न्यूज़वीक’ को बेचा, ‘न्यूज़वीक’ अपने आप में और इसे खरीदने वाले सिडनी हर्मन तीनों किसी न किसी वजह से महत्वपूर्ण हैं। कैथरीन ग्राहम जैसी जुझारू मालकिन के परिवार के अलावा वॉशिंगटन पोस्ट के काफी शेयर बर्कशर हैथवे के पास हैं, जिसके स्वामी वॉरेन बफेट हैं। ‘न्यूज़वीक’ को ख़रीदने की कोशिश करने वालों में न्यूयॉर्क डेली न्यूज़ के पूर्व प्रकाशक फ्रेड ड्रासनर और टीवी गाइड के मालिक ओपनगेट कैपिटल भी शामिल थे। पर सिडनी हर्मन ने सिर्फ 1 डॉलर में खरीदकर इसकी सारी देनदारी अपने ऊपर ले ली है।
बताते हैं कि अब ‘न्यूज़वीक’ को मुनाफे के लिए प्रकाशित नहीं किया जाएगा। तो क्या घाटे के लिए प्रकाशित किया जाएगा? सिडनी हर्मन मशहूर दानी भी हैं। पर क्या वे किसी पत्रिका को घाटे में चलाकर अपने दान को पूरा करेंगे? न्यूज़वीक ही नहीं ‘टाइम’ पर भी संकट के बादल हैं। इसका प्रसार 42 लाख से घटकर 33 लाख पर आ गया है। इसके प्रकाशक टाइम वार्नर आईएनसी ‘टाइम’ को ही नहीं खुद को यानी पूरे प्रकाशन संस्थान को बेचना चाहते हैं।
‘न्यूज़वीक’ हर हफ़्ते प्रकाशित होती है। जैसाकि इसका नाम है यह खबरों से जुड़ी पत्रिका है। 17 फरवरी 1933 को जब यह शुरू हुई थी इसका नाम ‘न्यूज़-वीक’ था। न्यूज़ और वीक। 1937 में ‘टुडे’ नाम की पत्रिका इसमे समाहित हो गई। नया नाम हुआ ‘न्यूज़वीक’। 1961 में जब वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी ने इसे खरीदा तब खबरों को लेकर दुनिया बेहद संज़ीदा थी। कम्पनी ने 1982 में न्यूज़वीक ऑन एयर नाम से रेडियो प्रोग्राम भी शुरू किया, जो इस साल जून में बदल कर ‘फॉर योर ईयर्स ओनली’ कर दिया गया है। 2003 के बाद से ‘न्यूज़वीक’ के प्रसार मे कमी आने लगी। उस वक्त इसका सर्कुलेशन 40 लाख से ज्यादा था। अमेरिकी संस्करण के अलावा इसका एक अंतरराष्ट्रीय संस्करण है। साथ ही जापानी, कोरियन, पोलिश, रूसी, स्पेनिश, अरबी और तुर्की संस्करण भी हैं।
सन 2008 में पत्रिका का प्रसार 31 लाख से घटकर 26 लाख हुआ। जुलाई 2009 में 19 लाख और जनवरी 2010 में 15 लाख। इन दिनों और कम हुआ होगा। विज्ञापन मेंभी इसी तरह की गिरावट है। 2008 में इसका ऑपरेटिंग घाटा 1.6 करोड़ डॉलर था जो 2009 में बढ़कर 2.93 करोड़ डॉलर हो गया। 2010 के पहली तिमाही में यह 1.1 करोड़ डॉलर था। पत्रिका के संचालकों को लगा कि अपने आप में कुछ बदलाव करके शायद बचाव का रास्ता मिल जाय। इसलिए 14 मई 2009 के अंक से इसमें नाटकीय बदलाव किया गया। इसमें लम्बे लेखों की संख्या बढ़ाई गई। हार्ड न्यूज़ की जगह कमेंट्री और विश्लेषण को बढ़ाया गया। बहरहाल गिरावट रुकी नहीं।
‘न्यूज़वीक’ के स्वामी इसकी रक्षा करना चाहते थे, पर इसके लिए वे जो भी कदम उठा रहे थे वे उल्टे पड़ रहे थे। इसलिए इसे बेचने का फैसला कर लिया गया। वॉशिंगटन पोस्ट के मुख्य कार्यकारी डॉनल्ड ग्राहम ने कहा, "हमें न्यूज़वीक के लिए एक ऐसा ख़रीददार चाहिए था जो उच्चस्तरीय पत्रकारिता की अहमियत उसी तरह महसूस करता हो जैसे हम करते हैं।" न्यूज़वीक के साथ 300 कर्मचारी जुड़े़ हुए हैं। विज्ञापनों में कमी और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध खबरों के ‘न्यूज़वीक’ को भारी नुक़सान हुआ।
कारोबार के मामले में ‘न्यूज़वीक’ हमेशा ‘टाइम’ से पीछे रही, पर उसकी अलग तरह की अंतरराष्ट्रीय छवि है। इन दोनों अमेरिकी पत्रिकाओं के मुकाबले इंग्लैंड की पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ की पहचान अलग तरह की है। फ्री ट्रेड और वैश्वीकरण के पक्ष में उसका एक वैचारिक स्टैंड है, जिसपर वह काफी ज़ोर देती है। उसकी खासियत है कि उसमें एक भी बाइलाइन नहीं होती। इसके संचालकों की मान्यता है कि हमारे स्टैंड सामूहिक हैं। इसके सम्पादक को केवल एक बार, जब वह रिटायर होने वाला होता है, अपने नाम से लिखने का मौका मिलता है। विशेष सर्वे और बाहर से आमंत्रित लेखों पर ही लेखक का नाम दिया जाता है। ‘इकोनॉमिस्ट’ अपने आप को ‘न्यूज़पेपर’ कहता है मैगज़ीन नहीं।
‘न्यूज़वीक’ के बारे में अच्छी बात यह है कि उसे सिडनी हर्मन ने खरीदा है, जो लालची दुकानदार नहीं हैं। हो सकता है कि वे पत्रिका को बचा लें। इससे क्या होगा? कुछ लोगों की नौकरियाँ बचेंगी। यह बात अपनी जगह ठीक है। पर क्या वे ‘न्यूज़वीक’ के पुराने स्वरूप को बचा पाएंगे? हालांकि वह रूप बदल चुका है, पर अब भी वह समाचार पत्रिका है। पाठकों को क्या समाचार पत्रिका नहीं चाहिए? न्यूज़ मैगज़ीन केवल खबर ही नहीं देती विचार भी देती है। इंटरनेट पर समाचार और विचार काफी उपलब्ध है, पर वह बिखरा हुआ है। उसे सुगठित और साखदार होने में समय लगेगा। उसका आसान रास्ता यही है कि प्रिंट की साखदार संस्थाएं जल्द से जल्द नेट पर आएं।
‘इकोनॉमिस्ट’ को पढ़ने वाले उसे उसके वैचारिक दृष्टिकोण के कारण पढ़ते हैं। वैसे ही जैसे ‘मंथली रिव्यू’ या ‘ईपीडब्ल्यू’ को पढ़ते हैं। सामग्री कागज़ पर मिले या नेट पर इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है जब किसी संस्था के साथ समाज के अंदर से एक परम्परा ग़ायब होने लगती है। ‘दिनमान’ के दौर में एक पीढ़ी तैयार हुई। जब तक यह पीढ़ी आगे कुछ करती ‘दिनमान’ नहीं बचा। ‘इकोनॉमिस्ट’, ‘ईपीडब्ल्यू’ ‘मंथली रिव्यू’, ‘न्यूयॉर्कर’ और ‘न्यू स्टेट्समैन’ नेट पर भी उपलब्ध हैं। तकनीक शायद और बदलेगी, पर मनुष्य की बुनियादी बैचारिक चाहत कहीं न कहीं कायम रहेगी। ‘न्यूज़वीक’ और ‘टाइम’ को भी अपने आर्थिक मॉडल बदलने होंगे। अच्छी बात यह है कि इन संस्थाओं को बचाने वाली ताकतें इन देशों में हैं। हमारे देश में भी ऐसी ताकतों को होना चाहिए, जो वैचारिक कर्म की अवमानना रोकें। हमें वैचारिक कर्म की ज़रूरत है। वही हमें गलत रास्ते पर जाने से बचाएगा।
समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित
समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित
पीढियाँ के साथ परंपराएं भी बदलती जाती हैं। परिवर्तन को स्वीकार तो करना ही पड़ता है। खोजपरक और ज्ञानवर्द्धक जानकारी दी है आपने।
ReplyDeleteinformative post. thanks.
ReplyDelete21 vi sadi mediya ke vartman paridrashay k ke vividh sarokar ki jankari mili
ReplyDeleteall right ,hame vaicharik karmo ki aavshykta hai