Thursday, June 3, 2010

बंगाल में ममता की जीत

बंगाल में ममता बनर्जी ने निरंतर अपने प्रयास से वाम मोर्चे के दुर्ग में दरार पैदा कर दी है। हलांकि ये नगरपालिकाओं के चुनाव थे। इनसे गाँवों की कहानी पता नहीं लगती, पर 2009 के लोक सभा चुनाव में स्पष्ट हो गया था कि तृणमूल पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्र में भी अच्छी घुसपैठ कर ली है। इन परिणामों का संदेश यह है कि वाममोर्चा नैतिक रूप से बंगाल पर राज करने का अधिकार खो चुका है। बेशक वह चाहे तो एक साल तक उसकी सरकार और चल सकती है, पर यह सिर्फ वक्त बिताना होगा। अब जैसे-जैसे दिन बीतेंगे ममता बनर्जी का दबाव बढ़ता जाएगा।

बंगाल पर वाम मोर्चे के शासन के अच्छे और बुरे पहलू दोनों हैं। वाम मोर्चे ने यहाँ तीन दशक से ज्यादा समय तक शासन किया। यह दुनिया के किसी भी इलाके मे लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सबसे पुरानी कम्युनिस्ट सरकार  है। इतने अर्से से शासन में रहने के कारण पूरी व्यवस्था मे एक संगति है। वाम मोर्चे के कार्यकर्ताओं ने प्रदेश में सिर्फ राजनीति ही नहीं की, सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों को चलाया। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने का एक बेहतर तरीका पार्टी के पास था। पर इस परिस्थिति ने पार्टी कार्यकर्ताओं की एक समांतर शक्ति भी तैयार कर दी। पार्टी कार्यकर्ता अगर समझदार और अनुशासित होते तो वाममोर्चे को हरा पाना आसान न होता। अब वाममोर्चा हार चुका है। वाम मोर्चे के कार्यकर्ता इतने ताकतवर थे कि कोई दूसरा गाँवो के भीतर घुस नहीं सकता था। वे बुनियाद तक प्रवेश कर चुके थे। इनके बीच तृणमूल कार्यकर्ता अगर पहुँचे हैं तो इसका मतलब है वे कम ताकतवर नहीं हैं। साथ ही उन्हें वाममोर्चे के कुंठित कार्यकर्ताओं का समर्थन भी हासिल है। इनमें नक्सली भी शामिल हैं।

बंगाल में चुनाव कब होंगे, यह परिस्थितियाँ बताएंगी, पर इतना लगता है कि कांग्रेस और तृणमूल को साथ आना होगा, क्योंकि नगरपालिका चुनाव में कोलकाता में तो ममता बनर्जी ने जबर्दस्त विजय हासिल कर ली, पर शेष प्रदेश में उसे 80 में 27 और कांग्रेस को 7 नगरपालिकाओं में ही जीत हासिल हुई। वाममोर्चा को 2005 में जहां 60 पालिकाओं पर जीत मिली थी, इसबार सिर्फ 17 पर जीत मिली। 29 पालिकाओं में त्रिशंकु सदन हैं। इसका मतलब है वाममोर्चा हार गया है, पर तृणमूल पूरी तरह जीती नहीं है। आज कोलकाता के अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ का शीर्षक ध्यान देने लायक है, 'क्वीन ऑफ कैलकटा, नॉट ऑफ बंगाल यट'

बंगाल एक जबर्दस्त अंतर्मंथन से गुजर रहा है। पिछले 33 साल में वहां राजनैतिक कार्यकर्ताओं की कम से कम दो पीढ़ियाँ तैयार हो चुकीं हैं। अचानक उनके सिर से साया हटने का मतलब है बेचैनी। यह बेचैनी अगले चुनाव तक मुखर होकर दिखाई पड़ेगी। बंगाल की राजनीति में लहू भी बहुत बहता है। और यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अच्छी बात नहीं।

2 comments:

  1. congrats. she deserve the kudos, she is fighting against all bloody communist single handedly and come with flying colors.

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  2. बंगाल की राजनीति में वाम की मिटटी पलीद हो चुकी है...ममता ने अकेले ही लड़ाई लड़ी है...इसीलिए इतना वक़्त लगा, उनके साथ के लोग भी वाम से मिले रहें. मैंने पिछला विधानसभा चुनाव बंगाल में कवर किया था, वाम को लेकर लोग बहुत दुखी थे, पर उनके सामने कोई अच्छा विकल्प नहीं था. ममता सिंगूर आदि के बाद एक विकल्प के रूप में उभरी हैं....असर भी दिख रहा है ...
    ....একলা চাল রে................জিতে গেলেন মমতা !

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