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Monday, December 31, 2018

उम्मीदों और अंदेशों से घिरा साल

http://inextepaper.jagran.com/1959798/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/31-12-18#page/8/1
राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस की आंशिक वापसी और बीजेपी के आंशिक पराभव का साल था. न तो यह कांग्रेस को पूरी विजय देकर गया और न बीजेपी को स्थायी पराजय. अलबत्ता इस साल जो भी हुआ, उसे 2019 के संकेतक के रूप में देखा जा रहा है. हमारे जीवन पर राजनीति हावी है, इसलिए हम सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर ध्यान कम दे पाते हैं. यह साल गोरक्षा के नाम पर हुई बर्बरता और ‘मीटू आंदोलन’ के लिए याद रखा जाएगा. दोनों बातें हमारे अंतर्विरोधों पर रोशनी डालती हैं. यौन-शोषण की काफी कहानियाँ झूठी होती हैं, पर ज्यादा बड़ा सच है कि काफी कहानियाँ सामने नहीं आतीं. इस आंदोलन ने स्त्रियों को साहस दिया है.

हाल के वर्षों में हमारी अदालतों ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले किए, जिनके सामाजिक निहितार्थ हैं. पिछले साल ‘प्राइवेसी’ को व्यक्ति का मौलिक अधिकार माना गया. दया मृत्यु के अधिकार को लेकर एक और फैसला हुआ था, जिसने जीवन के बुनियादी सवालों को छुआ. इस साल हादिया मामले में जीवन साथी को चुनने के अधिकार पर महत्वपूर्ण आया. धारा 377 के बारे में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, इतने साल तक समान अधिकार से वंचित करने के लिए समाज को एलजीबीटी समुदाय से माफी माँगनी चाहिए. 

Sunday, December 30, 2018

2019 की राजनीतिक प्रस्तावना

गुजर रहा साल 2018 भारतीय राजनीति के दृष्टिकोण से सेमी-फाइनल वर्ष था। अब हम फाइनल वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। अगला साल कुछ बातों को स्थायी रूप से परिभाषित करेगा। राजनीतिक स्थिरता आई तो देश आर्थिक स्थिरता की राह भी पकड़ेगा। जीडीपी की दरें धीरे-धीरे सुधर रहीं हैं, पर बैंकों की हालत खराब होने से पूँजी निवेश की स्थिति अच्छी नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के सात बैंकों में सरकार पुनर्पूंजीकरण बांड के जरिए 28,615 करोड़ रुपये की पूंजी डाल रही है। इस तरह वे रिजर्व बैंक की त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) रूपरेखा से बाहर निकलेंगे और फिर से कर्ज बांटने लायक हो जाएंगे।
चुनाव की वजह से सरकार को लोकलुभावन कार्यक्रमों के लिए धनराशि चाहिए। राजस्व घाटा अनुमान से ज्यादा होने वाला है। जीएसटी संग्रह अनुमान से 40 फीसदी कम है। इसमें छूट देने से और कमी आएगी। केंद्र सरकार लोकसभा चुनावों से पहले किसानों के कल्याण के लिए कुछ बड़ी योजनाओं का ऐलान करेगी। हालांकि वह कर्ज माफी और सीधे किसानों के खाते में रकम डालने जैसी योजनाओं के पक्ष में नहीं हैं, पर खर्चे बढ़ेंगे। राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों के बीच संतुलन बैठाने की चुनौती सरकार के सामने है। 

Saturday, December 29, 2018

गठबंधन का महा-गणित


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देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केन्द्र में उसका पहला तजुरबा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अबतक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। तीसरे मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ (और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब बीजेपी के खिलाफ है। फिलहाल सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो?  

पिछले तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है। वह है गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन का। इस वक्त गैर-भाजपा महागठबंधन और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे दोनों की बातें सुनाई पड़ रहीं हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की सम्भावनाएं इस वक्त तलाशी जा रहीं हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियाँ भी बढ़ रहीं हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाना लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही विसंगतियाँ सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो, जैसाकि हाल में लोजपा ने किया।  

Monday, December 24, 2018

राजनीतिक अखाड़े में कर्ज-माफी

इस बारे में दो राय नहीं हैं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दशा खराब है, यह भी सच है कि बड़ी संख्या में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है, पर यह भी सच है कि इन समस्याओं का कोई जादुई समाधान किसी ने पेश नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि इस संकट के कारण कई तरह के हैं। खेती के संसाधन महंगे हुए हैं, फसल के दाम सही नहीं मिलते, विपणन, भंडारण, परिवहन जैसी तमाम समस्याएं हैं। मौसम की मार हो तो किसान का मददगार कोई नहीं, सिंचाई के लिए पानी नहीं, बीज और खाद की जरूरत पूरी नहीं होती।

नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद से खासतौर से समस्या बढ़ी है। अचानक नीतियों में बदलाव आया। कई तरह की सब्सिडी खत्म हुई, विदेशी कम्पनियों का आगमन हुआ, खेती पर न तो पर्याप्त पूँजी निवेश हुआ और तेज तकनीकी रूपांतरण। वामपंथी अर्थशास्त्री सारा देश वैश्वीकरण के मत्थे मारते हैं, वहीं वैश्वीकरण समर्थक मानते हैं कि देश में आर्थिक सुधार का काम अधूरा है। देश का तीन चौथाई इलाका खेती से जुड़ा हुआ था। स्वाभाविक रूप से इन बातों से ग्रामीण जीवन प्रभावित हुआ। राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में अचानक खेती की हिस्सेदारी कम होने लगी। ऐसे में किसानों की आत्महत्या की खबरें मिलने लगीं। 

Sunday, December 23, 2018

कश्मीर पर राजनीतिक आमराय बने


फारूक अब्दुल्ला ने कहा है कि यदि हमारी पार्टी राज्य में सत्तारूढ़ हुई, तो 30 दिन के भीतर हम क्षेत्रीय स्वायत्तता सुनिश्चित कर देंगे. नेशनल कांफ्रेंस की पिछली सरकार ने राज्य में जम्मू, लद्दाख और घाटी को अलग-अलग स्वायत्त क्षेत्र बनाने की पहल की थी. क्या यह कश्मीर समस्या का समाधान होगा? पता नहीं इस पेशकश पर कश्मीर और देश की राजनीति का दृष्टिकोण क्या है, पर हमारी ढुलमुल राजनीति का फायदा अलगाववादी उठाते हैं. जम्मू और लद्दाख के नागरिक भारत के साथ पूरी तरह जुड़े हुए हैं, पर घाटी में काफी लोग अलगाववादियों के बहकावे में हैं.

कश्मीर में जब भी कोई घटना होती है, देश के लोगों के मन में सवाल उठने लगते हैं. हाल में पुलवामा के उग्र भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षाबलों को गोली चलानी पड़ी, जिसमें सात नागरिकों की मौत हो गई. मुठभेड़ में एक जवान भी शहीद हुआ और तीन उग्रवादी भी मारे गए. इस घटना पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा, हमारी माँग है कि संरा सुरक्षा परिषद जनमत-संग्रह की प्रतिबद्धता को पूरा करे. पाकिस्तानी आजकल बात-बात पर यह माँग करते हैं. पर सच यह है कि सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर अंतिम विमर्श पचास के दशक में कभी हुआ था. उसके बाद से वहाँ यह सवाल उठा ही नहीं.

Saturday, December 22, 2018

कर्ज-माफी का राजनीतिक जादू

उत्तर भारत के तीन राज्यों में बनी कांग्रेस सरकारों ने किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणाएं की हैं। उधर भाजपा शासित गुजरात में 6.22 लाख बकाएदारों के बिजली-बिल और असम में आठ लाख किसानों के कर्ज माफ कर दिए गए हैं। इसके पहले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब और कर्नाटक में किसानों के कर्ज माफ किए गए। अचानक ऐसा लग रहा है कि कर्ज-माफी ही किसानों की समस्या का समाधान है। गुजरात और असम सरकार के फैसलों के जवाब में राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि कांग्रेस गुजरात और असम के मुख्यमंत्रियों को गहरी नींद से जगाने में कामयाब रही है, लेकिन प्रधानमंत्री अभी भी सो रहे हैं। हम उन्हें भी जगाएंगे।
मोदीजी भी सोए नहीं हैं, पहले से जागे हुए हैं। उनकी पार्टी ने घोषणा की है कि यदि हम ओडिशा में सत्ता में आए तो किसानों का कर्ज माफ कर देंगे। राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एक तरफ उनके नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा है कि कृषि-क्षेत्र की बदहाली का इलाज कर्ज-माफी नहीं है, वहीं उनकी पार्टी कर्ज-माफी के हथियार का इस्तेमाल राजनीतिक मैदान में कर रही है।

Tuesday, December 18, 2018

राजनीतिक दलदल में ‘राफेल’


राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विवाद बजाय खत्म होने के बढ़ गया है. अदालती फैसले के एक पैराग्राफ को लेकर कांग्रेस पार्टी ने सरकार पर नए आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं. इससे मूल विवाद के अलावा कुछ नए आरोप और जुड़ गए हैं. शुक्रवार को अदालत ने जो फैसला सुनाया था, उससे सरकारी पक्ष मजबूत हो गया था, पर फैसले की भाषा के कारण लगता है कि यह विवाद अभी तबतक चलेगा, जबतक सुप्रीम कोर्ट उसे और स्पष्ट न करे.

शनिवार को सरकार ने हलफनामा दाखिल करके कहा कि सरकार ने सीलबंद लिफाफों में अदालत को जानकारी दी थी, उसमें यह नहीं लिखा गया था कि इस मामले में सीएजी रिपोर्ट आ गई है और उसे लोकलेखा समिति (पीएसी) को दिखा दिया गया है. सरकार ने केवल यह बताया था कि इस प्रकार के सौदों की जानकारी संसद के सामने लाने की प्रक्रिया क्या है. अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है. ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है.

Sunday, December 16, 2018

फैसले और उसकी भाषा पर भ्रम

राफेल रक्षा सौदे के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से विवाद को शांत हो जाना चाहिए था, पर लगता है कि ऐसा होगा नहीं। इसकी वजह इस मामले की राजनीतिक प्रकृति है। अदालत ने इस सौदे पर उठाए गए प्रक्रियात्मक सवालों का जवाब देते हुए कहा है कि उसे कोई दोष नजर नहीं आया। अब जो सवाल हैं, उनकी प्रकृति राजनीतिक है। अदालती फैसले का एक पहलू सीएजी की रिपोर्ट से जुड़ा हुआ था, जो शुक्रवार की शाम से ही चर्चा में था। वह यह कि क्या सीएजी रिपोर्ट में कीमत का विवरण है और क्या यह रिपोर्ट लोकलेखा समिति ने देखी है। शनिवार को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में हलफनामा दाखिल करके कहा कि इसके पहले दाखिल हलफनामे में केवल उस प्रक्रिया को बताया गया है कि इस प्रकार की सूचनाओं की प्रक्रिया क्या है। 

अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है। ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है। उम्मीद है कि सोमवार को अदालत इस मामले में कोई निर्देश देगी, पर खबरें यह भी हैं कि सुप्रीम कोर्ट में सर्दियों की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं और अब 2 जनवरी के बाद ही इस मामले में कुछ हो पाएगा। जो भी है सोमवार को स्थिति कुछ स्पष्ट होगी। उधर लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि हम सीएजी और अटॉर्नी जनरल को बुलाकर जवाब तलब करेंगे। 

Saturday, December 15, 2018

राहुल की परीक्षा तो अब शुरू होगी!

सन 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी खुशखबरी इन तीन राज्यों में मिली सफलता के रूप में सामने आई है। नरेन्द्र मोदी ने पता नहीं कितनी गंभीरता से कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही थी, पर लगने लगा था कि कहीं यह बात सच न हो जाए। इस सफलता के साथ कांग्रेस यह मानकर चल सकती है कि उसका वजूद फिलहाल कायम है और वह चाहे तो उसका पुनरुद्धार भी संभव है। उधर 2014 के बाद से बीजेपी अपराजेय लगने लगी थी। इन तीन राज्यों को चुनाव से बीजेपी की वह छवि भी टूटी है।
हालांकि इस साल कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बीजेपी को अपनी कमजोर होती हैसियत का पता लग गया था, पर उस चुनाव में कांग्रेस को भी सफलता नहीं मिली थी। पर उत्तर के तीन राज्यों में इसबार बीजेपी को जो झटका लगा है, उसका श्रेय कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी को दिया जा सकता है। इस साल के शुरू में कांग्रेस की उपस्थिति केवल पंजाब, कर्नाटक, मिजोरम और पुदुच्चेरी में थी। इन चुनावों में उसने मिजोरम खोया है, पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को हासिल भी किया है।  
राहुल के नेतृत्व की सफलता का यह पहला चरण है। यह पूरी सफलता नहीं है। कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है। राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं। यह सफलता एक प्रकार के संधिकाल की सूचक है। वह न शिखर पर है और न अपने पराभव से पूरी तरह उबर पाई है। राहुल गांधी का राजनीतिक जीवन इस कांग्रेसी डोर से जुड़ी पतंग का है। फिलहाल यह ऊपर उठती नजर आ रही है, और शायद कुछ ऊँचाई और पकड़ेगी। पर कितनी? इस ऊँचाई के साथ जुड़े सवालों के जवाब लोकसभा चुनाव में मिलेंगे, पर कुछ जवाब फौरन मिलने जा रहे हैं। इन्हीं तीनों राज्यों में।

कांग्रेस के सामने खड़ी चुनौतियाँ

जीत के फौरन बाद तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन को लेकर पैदा हुआ असमंजस कुछ सवाल खड़े करता है. कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है. राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं. ऐसा कैसे होगा? क्या इसे उस राजनीति का नमूना मानें? तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नाम को लेकर पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए. समर्थन में नारेबाजी अनोखी बात नहीं है, पर यहाँ तो नौबत आगज़नी, वाहनों की तोड़फोड़ और सड़क जाम तक आ गई. प्रत्याशियों को अपने-अपने समर्थकों को समझाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ा. कार्यकर्ताओं तक की बात भी नहीं है. लगता है कि नेतृत्व ने भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है.
इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक संभव है असमंजस दूर हो गए हों, पर अब जो सवाल सामने आएंगे, वे दूसरे असमंजसों को जन्म देंगे. सरकार का गठन असंतोषों का बड़ा कारण बनता है, यहाँ भी बनेगा. नेताओं के व्यक्तिगत रिश्ते, परिवार से नजदीकी, प्रशासनिक अनुभव, कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, पार्टी के कोष में योगदान कर पाने और 2019 के लोकसभा चुनाव का अपने इलाके में बेहतर संचालन कर पाने की क्षमता वगैरह की अब परीक्षा होगी. 
कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में सकल वोट प्रतिशत के मामले में बीजेपी और कांग्रेस की लगभग बराबरी है. लोकसभा चुनाव में एक या दो फीसदी वोट की गिरावट से ही कहानी कुछ से कुछ हो सकती है. यदि वे सरकार के गठन के साथ ही अराजक व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, तो उनकी छवि खराब होगी. 

Wednesday, December 12, 2018

बीजेपी की उतरती कलई


इन चुनाव परिणामों का बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए एक ही संदेश है. वक्त है अब भी बदल जाओ. पर फटकार बीजेपी के नाम है. उत्तर के तीनों राज्यों में उसकी कलई उतर गई है. दक्षिण और पूर्वोत्तर में भी कुछ मिला नहीं. उसने खोया ही खोया है. बेशक छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीनों में एंटी-इनकम्बैंसी थी, पर पार्टी ने बचने के लिए जिस हिन्दुत्व का सहारा लिया, वह कत्तई कारगर साबित नहीं हुआ. संघ का कुशल-कारगर संगठन और अमित शाह की शतरंजी-योजनाएं फेल हो गईं.

सबसे बड़ी और शर्मनाक हार छत्तीसगढ़ में हुई, जो बीजेपी का आदर्श राज्य हुआ करता था. उसकी तरह 5 साल की एंटी इनकम्बैंसी मध्य प्रदेश में भी थी, पर शिवराज सिंह चौहान को श्रेय जाता है कि उन्होंने शर्मनाक हार को बचाकर उसे काँटे की टक्कर बनाया. दोनों पार्टियों का वोट प्रतिशत तकरीबन बराबर है. रमन सिंह और वसुंधरा राजे ऐसा करने में विफल रहे. छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों राज्यों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में आठ-आठ फीसदी की गिरावट आई है.

Sunday, December 9, 2018

इस जनादेश से उभरेगी नई तस्वीर


भारत में चुनावी ओपीनियन और एक्ज़िट पोल बजाय संजीदगी के मज़ाक का विषय ज्यादा बनते हैं। अलबत्ता लोग एक्ज़िट पोल को ज्यादा महत्व देते हैं। इन्हें काफी सोच-विचारकर पेश किया जाता है और इनके प्रस्तोता ज्यादातर बातों के ऊँच-नीच को समझ चुके होते हैं। थोड़ी बहुत ज़मीन से जानकारी भी मिल जाती है। फिर भी इन पोल को अटकलों से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। वजह है इनके निष्कर्षों का जबर्दस्त अंतर। कुल मिलाकर ये आमराय बनाने की कोशिश जैसे लगते हैं, इसीलिए कुछ मीडिया हाउस पोल ऑफ पोल्स यानी इनका औसत पेश करते हैं। एक और विकल्प है, एक के बजाय दो एजेंसियों का एक्ज़िट पोल। यानी कि एक पर भरोसा नहीं, तो दूसरा भी पेश है। यह बात उनके असमंजस को बढ़ाती है, कम नहीं करती।

शुक्रवार की शाम पाँच राज्यों में मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद चैनल-महफिलों के निष्कर्षों का निष्कर्ष है कि राजस्थान में कांग्रेस को बहुमत मिलना चाहिए, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में काँटे की लड़ाई है और तेलंगाना में टीआरएस का पलड़ा भारी है। मिजोरम को लेकर किसी को ज्यादा चिंता नहीं है। कुछ ने तो वहाँ एक्ज़िट पोल भी नहीं कराया। बहरहाल अब 11 दिसम्बर को परिणाम बताएंगे कि देश की राजनीति किस दिशा में जाने वाली है। इनके सहारे बड़ी तस्वीर देखने की कोशिश की जा सकती है।

Tuesday, December 4, 2018

किसानों का दर्द और जीडीपी के आँकड़े


दो तरह की खबरों को एकसाथ पढ़ें, तो समझ में आता है कि लोकसभा चुनाव करीब आ गए हैं. नीति आयोग और सांख्यिकी मंत्रालय ने राष्ट्रीय विकास दर के नए आँकड़े जारी किए हैं. इन आँकड़ों की प्रासंगिकता पर बहस चल ही रही थी कि दिल्ली में हुई दो दिन की किसान रैली ने देश का ध्यान खींच लिया. दोनों परिघटनाओं की पृष्ठभूमि अलग-अलग है, पर ठिकाना एक ही है. दोनों को लोकसभा चुनाव की प्रस्तावना मानना चाहिए.

संसद के शीत-सत्र की तारीखें आ चुकी हैं. किसानों का मसला उठेगा, पर इससे केवल माहौल बनेगा. नीतिगत बदलाव की अब आशा नहीं है. इसके बाद बजट सत्र केवल नाम के लिए होगा. जहाँ तक किसानों से जुड़े दो निजी विधेयकों का प्रश्न है, यह माँग हमारी परम्परा से मेल नहीं खाती. ऐसे कानून बनने हैं, तो विधेयक सरकार को लाने होंगे, वैसे ही जैसे लोकपाल विधेयक लाया था. यों उसका हश्र क्या हुआ, आप बेहतर जानते हैं.

Sunday, December 2, 2018

किसानों के दर्द की सियासत


दिल्ली में हुई दो दिन की किसान रैली ने किसानों की बदहाली को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाने में सफलता जरूर हासिल की, पर राजनीतिक दलों के नेताओं की उपस्थिति और उनके वक्तव्यों के कारण यह रैली महागठबंधन की चुनाव रैली में तब्दील हो गई। रैली का स्वर था कि किसानों का भला करना है, तो सरकार को बदलो। खेती-किसानी की समस्या पर केन्द्रित यह आयोजन एक तरह से विरोधी दलों की एकता की रैली साबित हुआ। सवाल अपनी जगह फिर भी कायम है कि विरोधी एकता क्या किसानों की समस्या का स्थायी समाधान है? सवाल यह भी है कि मंदिर की राजनीति के मुकाबले इस राजनीति में क्या खोट है? राजनीति में सवाल-दर-सवाल है, जवाब किसी के पास नहीं। 

किसानों की समस्याओं का समाधान सरकारें बदलने से निकलता, तो अबतक निकल चुका होता। ये समस्याएं आज की नहीं हैं। रैली का उद्देश्य किसानों के दर्द को उभारना था, जिसमें उसे सफलता मिली। किसानों के पक्ष में दबाव बना और तमाम बातें देश के सामने आईं। रैली में राहुल गांधी, शरद पवार, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल, फारुक़ अब्दुल्ला, शरद यादव और योगेन्द्र यादव वगैरह के भाषण हुए। ज्यादातर वक्ताओं का निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर था। बीजेपी की भागीदारी थी नहीं इसलिए जो कुछ भी कहा गया, वह एकतरफा था। 

दिल्ली के द्वार पर किसानों की गुहार


पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर किसानों के आंदोलन में गोली चलने से छह व्यक्तियों की मौत के बाद देशभर में खेती-किसानी को लेकर शुरू हुई बहस  दिल्ली में कल और आज हो रही किसान रैली के साथ राष्ट्रीय-पटल पर आ गई है। तीस साल पहले अक्तूबर 1988 में भारतीय किसान यूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने बोट क्लब पर जो विरोध प्रदर्शन किया था, वह ऐतिहासिक था। दिल्ली वालों को अबतक उसकी याद है। दिल्ली में लम्बे अरसे के बाद इतनी बड़ी तादाद में किसान अपनी परेशानी बयान करने के लिए जमा हुए हैं। दो महीने पहले 2 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के रास्ते से हजारों किसानों ने दिल्ली में प्रवेश का प्रयास किया था, पर दिल्ली पुलिस ने उन्हें रोक दिया। दोनों पक्षों में टकराव हुआ, जिसमें बीस के आसपास लोग घायल हुए थे।

यह रैली कुछ विडंबनाओं की तरफ ध्यान खींचती है। हाल के वर्षों में मध्य प्रदेश में कृषि की विकास दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा रही है, फिर भी वहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद बढ़ी है। पिछले साल रिकॉर्ड फसल के बावजूद किसानों का संकट बढ़ा, क्योंकि दाम गिर गए। खेती अच्छी हो तब भी किसान रोता है, क्योंकि दाम नहीं मिलता। खराब हो तो रोना ही है। कई बार नौबत आती है, जब किसान अपने टमाटर, प्याज, मूली, गोभी से लेकर अनार तक नष्ट करने को मजबूर होते हैं।

Saturday, December 1, 2018

‘मंदिर शरणम गच्छामि’ का जाप भटकाएगा राहुल को


पिछले साल हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस पार्टी ने बीजेपी के जवाब में अपने हिन्दुत्व या हिन्दू तत्व का आविष्कार कर लिया है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव के पहले उनके कैलाश-मानसरोवर दौरे का प्रचार हुआ। उसके पहले कर्नाटक-विधानसभा के चुनाव के दौरान वे मंदिरों और मठों में गए। गुजरात में तो इसकी शुरुआत ही की थी। चुनाव प्रचार के दौरान वे जिन प्रसिद्ध मंदिरों में दर्शन के लिए गए उनकी तस्वीरें प्रचार के लिए जारी की गईं। पोस्टर और बैनर लगाए गए।

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव पूरा होने के बाद अब तेलंगाना और राजस्थान की बारी है। प्रचार की शुरुआत में ही राजस्थान के पुष्कर तीर्थ में उनके गोत्र का सवाल उठा। खुद राहुल गांधी ने अपने गोत्र की जानकारी दी। पूजा कराने वाले पुजारी ने बताया कि उन्होंने अपने गोत्र का नाम दत्तात्रेय बताया। इस जानकारी को उनके विरोधियों ने पकड़ा और सोशल मीडिया पर सवालों की झड़ी लग गई। उनके दादा के नाम और धर्म को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या उन्होंने धर्म-परिवर्तन किया था? क्या उनका विवाह हिन्दू पद्धति से हुआ था वगैरह। इन व्यक्तिगत बातों का कोई मतलब नहीं होता, पर सार्वजनिक जीवन में उतरे व्यक्ति के जीवन की हर बात महत्वपूर्ण होती है।

Wednesday, November 28, 2018

चुनावी दौर में मंदिर का शोर

अयोध्या में राम मंदिर बनाने की माँग फिर से सुनाई पड़ रही है. रविवार को विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या की धर्मसभा में आंदोलन को जारी रखने का संकल्प किया. शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भी अयोध्या आए और उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के पास मंदिर बनाने का पूरा अधिकार है. ऐसा नहीं करेगी तो यह सरकार दोबारा नहीं बनेगी, लेकिन राम मंदिर जरूर बनेगा. ठाकरे की दिलचस्पी अपने वोटर में है. उन्होंने सरकार से मंदिर निर्माण की तारीख पूछी है.  
उधर नागपुर की हुंकार सभा में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हमारे धैर्य का समय बीता जा रहा है. एक साल पहले तक मैं कहता था, धैर्य रखो, आज मैं कह रहा हूँ कि अब आंदोलन निर्णायक हो.उन्होंने सरकार से कहा कि वह सोचे कि मंदिर कैसे बनाया जा सकता है. संघ के एक राष्ट्रीय नेता इंद्रेश कुमार ने मंगलवार को एक गोष्ठी में सुप्रीम कोर्ट पर भी तीखी टिप्पणी कर दी. उन्होंने कहा कि सरकार कानून बनाने जा रही है. चुनाव की आदर्श आचरण संहिता लागू है, इसलिए घोषणा नहीं की है. साथ में उनका कहना है कि सरकार कानून बनाने का प्रस्ताव लाए, तो संभव है कि सुप्रीम कोर्ट उसे स्टे कर दे. हो सकता है आदेश लाने के खिलाफ कोई सिरफिरा सुप्रीम कोर्ट जाएगा, तो आज का चीफ जस्टिस उसे स्टे भी कर सकता है. बीजेपी और संघ के नेता सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं. उधर विहिप नेता कह रहे हैं, अब याचना नहीं, रण होगा. निर्मोही अखाड़े के महंत रामजी दास ने कहा, मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा महाकुंभ के दौरान की जाएगी.

Sunday, November 25, 2018

पाकिस्तान का आर्थिक संकट और कट्टरपंथी आँधियाँ

पाकिस्तान इस वक्त दो किस्म की आत्यंतिक परिस्थितियों से गुज़र रहा है। एक तरफ आर्थिक संकट है और दूसरी तरफ कट्टरपंथी सांप्रदायिक दबाव है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जब ‘तौहीन-ए-रिसालत’ यानी ईश-निंदा के एक मामले में ईसाई महिला आसिया बीबी को बरी किया, तो देश में आंदोलन की लहर दौड़ पड़ी थी। आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार को झुकना पड़ा। दूसरी तरफ उसे विदेशी कर्जों के भुगतान को सही समय से करने के लिए कम से कम 6 अरब डॉलर के कर्ज की जरूरत है। जरूरत इससे बड़ी रकम की है, पर सऊदी अरब, चीन और कुछ दूसरे मित्र देशों से मिले आश्वासनों के बाद उसे 6 अरब के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा है।

गुजरे हफ्ते आईएमएफ का एक दल पाकिस्तान आया, जिसने अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रतिनिधियों और संसद सदस्यों से भी मुलाकात की और उन्हें काफी कड़वी दवाई का नुस्खा बनाकर दिया है। इस टीम के नेता हैरल्ड फिंगर ने पाकिस्तानी नेतृत्व से कहा कि आपको कड़े फैसले करने होंगे और संरचनात्मक बदलाव के बड़े कार्यक्रम पर चलना होगा। संसद को बड़े फैसले करने होंगे। इमरान खान की पीटीआई सरकार जोड़-तोड़ करके बनी है। इतना ही नहीं नवाज़ शरीफ के खिलाफ मुहिम चलाकर उन्होंने सदाशयता की संभावनाएं नहीं छोड़ी हैं। अब उन्हें बार-बार अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं और यह भी कहना पड़ रहा है, ''यू-टर्न न लेने वाला कामयाब लीडर नहीं होता है। जो यू-टर्न लेना नहीं जानता, उससे बड़ा बेवक़ूफ़ लीडर कोई नहीं होता।''

अंधी गुफा के मुहाने पर कश्मीर



जब मुख्यधारा की राजनीति छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मसरूफ़ है, अचानक कश्मीर ने सबको झिंझोड़ दिया है। वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ पक रही थीं। बीरबल जैसी। बेशक अब जनता के सामने जाने का फैसला अच्छा है, पर कश्मीरी जनादेश जटिल होता है। यह जिम्मेदारी राजनीति दलों की है कि वे इस राज्य को अपने संकीर्ण दायरे से बाहर रखते। पर राजनीति का जिम्मेदारी से क्या लेना-देना? राज्यपाल ने यही फैसला जून में क्यों नहीं किया?  उस वक्त उन्होंने विधानसभा को अधर में रखकर नए गठजोड़ की सम्भावना को जीवित रखा था। वह महीन राजनीति सामने आ ही रही थी कि महबूबा मुफ्ती ने पत्ते फेंककर कहानी को नया मोड़ दे दिया। 

जून में अनुभवी प्रशासक एनएन वोहरा की जगह जब बिहार के राज्यपाल सतपाल मलिक को राज्यपाल के रूप में लाया गया, तभी समझ में आ रहा था कि कुछ होने वाला है। 51 साल बाद कश्मीर में इस पद पर किसी राजनेता की नियुक्ति हुई थी। सन 1967 में कर्ण सिंह के हटने के बाद से राज्य में नौकरशाहों, राजनयिकों, पुलिस और फौज के अफसर ही राज्यपाल बनते रहे हैं। बहरहाल बीजेपी की राजनीति के तार्किक परिणति तक पहुँचने के पहले ही गठबंधन राजनीति अपनी चाल चल दी। जैसा इस साल कर्नाटक में हुआ था, उससे मिलता-जुलता कश्मीर में हो गया। सिर्फ एक दिन के लिए।  

Saturday, November 24, 2018

कश्मीर को नई शुरुआत का इंतजार


कश्मीर विधानसभा भंग करने के फैसले ने एक तरफ राजनीतिक और सांविधानिक विवादों को जन्म दिया है, वहीं राज्य की जटिल समस्या को शिद्दत के साथ उभारा है. कुछ संविधान विशेषज्ञों ने विधानसभा भंग करने के राज्यपाल के अधिकार को लेकर आपत्ति व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि सरकार बनने की स्थिति है या नहीं, इसका फैसला सदन के फ्लोर पर होना चाहिए. राज्यपाल सतपाल मलिक का कहना है कि मैं किसी भी पार्टी को सरकार बनाने का मौका देता तो राज्य में बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती.

सरकार बनाने के लिए वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ पक रहीं थीं. दोनों के स्थायित्व की गारंटी नहीं थी. पता नहीं कि राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी जाएगी या नहीं, पर इसके सांविधानिक निहितार्थ पर विचार जरूर किया जाना चाहिए. सवाल है कि विधानसभा भंग करने की भी जल्दी क्या थी? लोकतांत्रिक विकल्प खोजने चाहिए थे. विधानसभा भंग होनी ही थी, तो जून में क्यों नहीं कर दी गई, जब बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती ने इस्तीफा दिया था?

Wednesday, November 21, 2018

सरकार और बैंक की सकारात्मक सहमतियाँ


सरकार, रिजर्व बैंक, उद्योग जगत की महत्वपूर्ण हस्तियों और बैंकिंग विशेषज्ञों की आमराय से देश की पूँजी और मौद्रिक-व्यवस्था न केवल पटरी पर वापस आ रही है, बल्कि भविष्य के लिए नए सिद्धांतों को भी तय कर रही है. इस लिहाज से हाल में खड़े हुए विवादों को सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए. ये फैसले और यह विमर्श रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 की रोशनी में ही हुआ है. सोमवार को रिजर्व बैंक बोर्ड की बैठक अपने किस्म की पहली थी. इतनी लम्बी बैठक शायद ही पहले कभी हुई होगी. करीब नौ घंटे चली बैठक के बाद सरकार और बैंक के बीच तनातनी न केवल ठंडी पड़ी, बल्कि भविष्य का रास्ता भी निकला है. 

यों अब भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि टकराव अवश्यंभावी है, फिलहाल बैंक ने टकराव मोल नहीं लिया है और सरकार की काफी बातें मान ली हैं. इन विशेषज्ञों को बैंक के बोर्ड में शामिल प्राइवेट विशेषज्ञों को लेकर आपत्ति है, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है. इसका एक मतलब है कि भविष्य में कभी टकराव इस हद तक बढ़े कि दोनों पक्ष अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हों, तो ये सदस्य सरकार के पक्ष में पलड़े को झुका देंगे. पर ऐसा माना ही क्यों जाए कि टकराव होना ही चाहिए. क्या दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात समझनी नहीं चाहिए, जैसा इसबार हुआ है?

बैठक के पहले कयास था कि बैंक पर सरकार द्वारा मनोनीत प्राइवेट निदेशक अपने संख्याबल के आधार पर हावी हो जाएंगे. ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो जानकारी बाहर आई है उसके अनुसार किसी भी प्रस्ताव पर मतदान की नौबत नहीं आई. बैंक-प्रतिनिधियों ने सरकार की बातों को गौर से सुना और सरकार ने बैंक-प्रतिनिधियों को पूरा सम्मान दिया. दोनों पक्षों ने आग पर पानी डालने का काम किया. यह तनातनी कितनी थी, इसे लेकर भी कयास ज्यादा हैं. मीडिया और राजनीति के मैदान में इसका विवेचन ज्यादा हुआ और ट्विटरीकरण ने आग लगाई.

Sunday, November 18, 2018

हिन्द महासागर की बदलती राजनीति


दो पड़ोसी देशों के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ने भारत का ध्यान खींचा है। एक है मालदीव और दूसरा श्रीलंका। शनिवार को मालदीव में नव निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए। दक्षिण एशिया की राजनयिक पृष्ठभूमि में यह महत्वपूर्ण परिघटना है। सन 2011 के बाद से किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष की पहली मालदीव यात्रा है। दक्षेस देशों में मालदीव अकेला है, जहाँ प्रधानमंत्री मोदी सायास नहीं गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस देश ने भारत के खिलाफ जो माहौल बना रखा था उसके कारण रिश्ते लगातार बिगड़ते ही जा रहे थे। तोहमत भारत पर थी कि वह एक नन्हे से देश को संभाल नहीं पा रहा है। यह सब चीन और पाकिस्तान की शह पर था।

दूसरा देश श्रीलंका है, जो इन दिनों राजनीतिक अराजकता के घेरे में है। यह अराजकता खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। वहाँ राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को बर्खास्त करके महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया है। संसद ने हालांकि राजपक्षे को नामंजूर कर दिया है, पर वे अपने पद पर जमे हैं। राजपक्षे चीन-परस्त माने जाते हैं। जब वे राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने कुछ ऐसे फैसले किए थे, जो भारत के खिलाफ जाते थे।

Tuesday, November 13, 2018

‘नाम’ और उससे जुड़ी राजनीति


इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने और फिर फैजाबाद की जगह अयोध्या को जिला बनाए जाने के बाद नाम से जुड़ी खबरों की झड़ी लग गई है. केंद्र सरकार ने पिछले एक साल में कम से कम 25 शहरों, कस्बों और गांवों के नाम बदलने के प्रस्ताव को हरी झंडी दी है जबकि कई प्रस्ताव उसके पास विचाराधीन हैं. इनमें पश्चिम बंगाल का नाम ‘बांग्ला’ करने, शिमला को श्यामला, लखनऊ को लक्ष्मणपुरी, मुजफ्फरनगर को लक्ष्मीनगर, अलीगढ़ को हरिगढ़ और आगरा को अग्रवन का नाम देने के प्रस्ताव शामिल हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री ने कहा है कि हम अहमदाबाद का नाम कर्णवती करने पर विचार कर रहे हैं. 

दो राय नहीं कि यह नाम-परिवर्तन बीजेपी के हिन्दुत्व का हिस्सा है और इस तरीके से पार्टी अपने जनाधार को बनाए रखना चाहती है. सवाल है कि क्या वास्तव में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को यह सब पसंद आता है? क्या इन तौर-तरीकों से बड़े स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना जागेगी? और क्या इस तरीके से देश की मुस्लिम संस्कृति को  सिरे से झुठलाया या खारिज किया जा सकेगा? हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की वास्तविकता को क्या इस तरीके से खारिज किया जा सकता है?

नाम-परिवर्तन की प्रक्रिया आज अचानक शुरू नहीं हुई है. काफी पहले से चली आ रही है. भारत ही नहीं, सारी दुनिया में. कुंस्तुनतुनिया का नाम इस्तानबूल हो गया. पाकिस्तान के लायलपुर का नाम अब फैसलाबाद है. इस नाम-परिवर्तन के अलग-अलग कारण हैं. देश-काल, ऐतिहासिक घटनाक्रम और संस्कृतियों के बदलाव से ऐसा होता है. आज के दौर के इतिहास को बदलने में राजनीति की बड़ी भूमिका है. इस बदलाव के सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण साफ हैं. बदलाव करने वाले इसे छिपाना भी नहीं चाहते.

Saturday, November 10, 2018

गठबंधन-परिवार के स्वप्न-महल

कर्नाटक में लोकसभा की तीन और विधानसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव ने महागठबंधन-परिवार में अचानक उत्साह का संचार कर दिया है। कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर बीजेपी को बौना बना दिया है। बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले बेल्लारी में भारी पराजय से बीजेपी नेतृत्व का चेहरा शर्म से लाल है। नहीं जमखंडी की लिंगायत बहुल सीट हारने का भी उन्हें मलाल है। पार्टी के भीतर टकराव के संकेत मिल रहे हैं। यूपी के बाद कर्नाटक का संदेश है कि विरोधी दल मिलकर चुनाव लड़ें तो बीजेपी को हराया जा सकता है। कांग्रेस इस बात को जानती है, पर वह समझना चाहती है कि यह गठबंधन किसके साथ और कब होगा? यह राष्ट्रीय स्तर पर होगा या अलग-अलग राज्यों में?
इन परिणामों के आने के पहले ही तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू ने दिल्ली आकर राहुल गांधी समेत अनेक नेताओं से मुलाकात की थी और 2019 के बारे में बातें करनी शुरू कर दी। सपनों के राजमहल फिर से बनने लगे हैं। पर गौर करें तो कहानियाँ लगातार बदल रहीं हैं। साल के शुरू में जो पहल ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव ने शुरू की थी, वह इसबार आंध्र से शुरू हुई है।
महत्वपूर्ण पड़ाव कर्नाटक
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव इस साल एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुए हैं। यहाँ कांग्रेस ने त्याग किया है। पर क्या यह स्थायी व्यवस्था है?  क्या कांग्रेस दिल्ली में भी त्याग करेगी?  क्या चंद्रबाबू पूरी तरह विश्वसनीय हैं? बहरहाल उनकी पहल के साथ-साथ तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-तेदेपा गठबंधन का लांच भी हुआ है। अब चंद्रबाबू चाहते हैं कि महागठबंधन जल्द से जल्द बनाना चाहिए, उसके लिए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों का इंतजार नहीं करना चाहिए।

Wednesday, November 7, 2018

बीजेपी के लिए खतरे का संकेत है बेल्लारी की हार

कर्नाटक में विधानसभा के दो और लोकसभा के तीन क्षेत्रों में हुए उपचुनावों का राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति पर कोई खास प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। बेल्लारी को छोड़ दें, तो ये परिणाम अप्रत्याशित नहीं हैं। बेल्लारी की हार बीजेपी के लिए खतरे का संकेत है। इन चुनावों में दो बातों की परीक्षा होनी थी। एक, कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन कितना मजबूत है और मतदाता के मन में उसकी छवि कैसी है। दूसरे राज्य विधानसभा में बीएस येदियुरप्पा का प्रभाव कितना बाकी है। विधानसभा में गठबंधन-सदस्यों की संख्या बढ़कर 120 हो गई है। राज्य में गठबंधन सरकार फिलहाल आरामदेह स्थिति में है, पर 2019 के चुनाव के बाद स्थिति बदल भी सकती है। बहुत कुछ दिल्ली में सरकार बनने पर निर्भर करेगा।
इस उपचुनाव में काफी प्रत्याशी नेताओं के रिश्तेदार थे, जो अपने परिवार की विरासत संभालने के लिए मैदान में उतरे थे। इस हार-जीत में ज्यादातर रिश्तेदारों की भूमिका रही। लोकसभा की तीनों सीटों पर चुनाव औपचारिकता भर है। ज्यादा से ज्यादा 6-7 महीनों की सदस्यता के लिए चुनाव कराने का कोई बड़ा मतलब नहीं। अलबत्ता ये चुनाव 2019 के कर्टेन रेज़र साबित होंगे। कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों की 2019 में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

Monday, November 5, 2018

सरकार और रिज़र्व बैंक की निरर्थक रस्साकशी


भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिए दो-तीन अच्छी खबरें हैं. ईरान से तेल खरीदने पर अमेरिकी पाबंदियों का खतरा टल गया है. अमेरिका ने जापान, भारत और दक्षिण कोरिया समेत अपने आठ मित्र देशों को छूट दे दी है. तेल की कीमतों में भी कुछ कमी आई है. विश्व बैंक की 16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस) रैंकिंग में भारत इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से 77वें स्थान पर पहुंच गया है. इससे भारत को विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी. इसके पूँजी निवेश को लेकर निराशा का भाव है. बैंकों की दशा खराब है.

वित्त मंत्रालय की कोशिशों के बावजूद लगता है कि इस साल राजकोषीय घाटा लक्ष्य से बाहर चला जाएगा. व्यापार घाटे में लगातार इजाफा हो रहा है. ऐसे में सीबीआई के भीतर टकराव और रिज़र्व बैंक के साथ केंद्र के टकराव ने हालात को और बिगाड़ दिया है. विडंबना है कि यह टकराव सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि नासमझी का नतीज़ा है. और मीडिया ने इसे सनसनी का रूप दे दिया है. पराकाष्ठा पिछले हफ्ते हुई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में विचार-विमर्श शुरू कर दिया. केंद्र सरकार जरूरी होने पर इस धारा का इस्तेमाल करते हुए, रिज़र्व बैंक को सीधे निर्देश भेज सकती है.

Sunday, November 4, 2018

मौद्रिक-व्यवस्था पर निरर्थक टकराव


ऐसे महत्वपूर्ण समय में जब देश को आर्थिक संवृद्धि की दर में तेजी से वृद्धि की जरूरत है विश्व बैंक की 16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस) रैंकिंग में भारत इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से 77वें स्थान पर पहुंच गया है। पिछले दो सालों में भारत की रैंकिंग में 53 पायदान का सुधार आया है। माना जा रहा है कि इससे भारत को अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी। इस खुशखबरी के बावजूद देश में पूँजी निवेश को लेकर निराशा का भाव है। वजह है देश के पूँजी क्षेत्र व्याप्त कुप्रबंध।

पिछले कुछ वर्षों से बैंकों के नियामक रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार के बीच तनातनी चल रही है। इस तनातनी की पराकाष्ठा पिछले हफ्ते हो गई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में विचार-विमर्श शुरू किया। इसके तहत केंद्र सरकार जरूरी होने पर रिज़र्व बैंक को सीधे निर्देश भेज सकती है। इस अधिकार का इस्तेमाल आज तक केंद्र सरकार ने कभी नहीं किया। इस खबर को मीडिया ने नमक-मिर्च लगाकर सनसनीखेज बना दिया। कहा गया कि धारा 7 का इस्तेमाल हुआ, तो रिज़र्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल इस्तीफा दे देंगे।

श्रीलंका में तख्ता-पलट और भारतीय दुविधा


श्रीलंका में शुक्रवार 26 अक्तूबर को अचानक हुए राजनीतिक घटनाक्रम से भारत में विस्मय जरूर है, पर ऐसा होने का अंदेशा पहले से था। पिछले कुछ महीनों से संकेत मिल रहे थे कि वहाँ के शिखर नेतृत्व में विचार-साम्य नहीं है। सम्भवतः दोनों नेताओं ने भारतीय नेतृत्व से इस विषय पर चर्चा भी की होगी। बहरहाल अचानक वहाँ के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को बर्खास्त करके चौंकाया जरूर है। अमेरिका और युरोपियन यूनियन ने प्रधानमंत्री को इस तरीके से बर्खास्त किए जाने पर फौरन चिंता तत्काल व्यक्त की और कहा कि जो भी हो, संविधान के दायरे में होना चाहिए। वहीं भारत ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में कुछ देर की। शुक्रवार की घटना पर रविवार को भारतीय प्रतिक्रिया सामने आई।

रानिल विक्रमासिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने पर भारत ने आशा व्यक्त की है कि श्रीलंका में संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर होगा। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा, 'श्रीलंका में हाल ही में बदल रहे राजनीतिक हलचल पर भारत पूरे ध्यान से नजर रख रहा है। एक लोकतंत्र और पड़ोसी मित्र देश होने के नाते हम आशा करते हैं कि लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान होगा।' भारत को ऐसे मामलों में काफी सोचना पड़ता है। खासतौर से हिंद महासागर के पड़ोसी देशों के संदर्भ में। पहले से ही आरोप हैं कि उसके अपने पड़ोसी देशों से रिश्ते अच्छे नहीं हैं।

Wednesday, October 31, 2018

जनता के मसले कहाँ हैं इस चुनाव में?

पाँच राज्यों में चुनाव बादल छाए हैं. छत्तीसगढ़ में पहले दौर का चुनाव प्रचार चल रहा है. नामांकन हो चुके हैं, प्रत्याशी मैदान में हैं और प्रचार धीरे-धीरे शोर में तब्दील हो चुका है. दूसरे चरण की प्रक्रिया चल रही है, जिसमें नामांकन की आखिरी तारीख 2 नवंबर है. उसी रोज मध्य प्रदेश और मिजोरम का नोटिफिकेशन हो जाएगा. इसके बाद राजस्थान और तेलंगाना. 7 दिसंबर तक मतदान की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी. मीडिया के शोर और सूचनाओं की आँधी के बीच क्या कोई बता सकता है कि इन चुनावों के मुद्दे क्या हैं? छत्तीसगढ़ के क्या सवाल हैं, मध्य प्रदेश के मसले क्या हैं और राजस्थान और तेलंगाना के वोटरों की अपेक्षाएं क्या हैं? विधानसभा चुनाव राज्यों के मसलों पर लड़े जाते हैं और लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय प्रश्नों पर. क्या फर्क है दोनों में?

हाल में देशभर में एकसाथ चुनाव कराने की मुहिम जब चल रही थी, तब उसका विरोध करने वालों का कहना था कि देश की विविधता और संघीय-संरचना को देखते हुए एकसाथ चुनाव कराना ठीक नहीं होगा. इससे क्षेत्रीय विविधता को ठेस लगेगी. वास्तव में पूर्वोत्तर के राज्यों की जो समस्याएं हैं, वे दक्षिण भारत में अनुपस्थित हैं. दक्षिण भारत के मसले पश्चिम में गौण हैं. भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ फर्क होने के कारण हरेक क्षेत्र की जरूरतें अलग-अलग हैं. पर क्या इन इलाकों की राजनीति अपने क्षेत्र की विशेषता को परिलक्षित करती है?

Tuesday, October 30, 2018

ऐसे तो नहीं रुकेगा मंदिर का राजनीतिकरण


अयोध्या मामले का राजनीतिकरण इस हद तक हो चुका है कि अब मंदिर बने तब और न बने तब भी उसका फायदा बीजेपी को मिलेगा। यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आ रही थी, जो अदालत में इसकी सुनवाई में विलंब कराने की कोशिश कर रहे थे। अब इस मामले के राजनीतिक निहितार्थों को देखें और इंतजार करें कि क्या होने वाला है। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस मसले पर अगली सुनवाई जनवरी 2019 में एक उचित पीठ के समक्ष होगी। यह सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह पर होगी। हाईकोर्ट ने विवादित स्थल को तीन भागों रामलला, निर्मोही अखाड़ा व मुस्लिम वादियों में बांटा था।

गौर करें, तो पाएंगे कि मंदिर मसले पर बीजेपी को अपनी पहलकदमी के मुकाबले मंदिर-विरोधी राजनीति का लाभ ज्यादा मिला है। मंदिर समर्थकों को कानूनी तरीके से जल्द मंदिर बनने की उम्मीद थी, जो फिलहाल पूरी होती नजर नहीं आ रही है। यानी कि अब वे एक नया आंदोलन शुरू करेंगे। इस आंदोलन का असर पाँच राज्यों के और लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। बेशक बीजेपी के नेताओं पर भी दबाव है, पर इससे उन्हें नुकसान क्या होगा? वे कहेंगे हमारे हाथ मजबूत करो। बीजेपी मंदिर मसले को चुनाव का मुद्दा नहीं बना रही थी, तो अब बनाएगी।

क्या अध्यादेश आएगा?

बीजेपी के भीतर से आवाजें आ रहीं हैं कि सरकार अध्यादेश या बिल लाकर मंदिर बनाए। सरसंघ चालक  मोहन भागवत कह चुके हैं कि सरकार को कानून बनाना चाहिए। सुब्रमण्यम स्वामी ने इस माँग का स्वागत किया है। संघ के अलावा विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना की भी यही राय है। अध्यादेश या विधेयक से क्या मंदिर बन जाएगा? राज्यसभा में क्या पर्याप्त समर्थन मिलेगा? नहीं मिला तब भी पार्टी यह कह सकती है कि हमने कोशिश तो की बिल पास भी हो जाए, तो सुप्रीम कोर्ट से भी रुक सकता है। यह सब इतना आसान नहीं है, जितना समझाया जा रहा है। इसका हल सभी पक्षों के बीच समझौते से ही निकल सकता है। 

Saturday, October 27, 2018

क्यों मचा फिर से मंदिर का शोर?


भारतीय जनता पार्टी के लिए राम मंदिर एक औजार है, जिसका इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से होता है। कभी लगता है कि वह इस भारी हथौड़े का इस्तेमाल नहीं करना चाहती और कभी इसे फिर से उठा लेती है। पिछले लोकसभा चुनाव में लगता था कि इस मसले से पार्टी ने किनाराकशी कर ली है। और अब लग रहा है कि वह इसे बड़ा मुद्दा बनाएगी। सुप्रीम कोर्ट में 29 अक्तूबर से इस मामले पर सुनवाई शुरू हो रही है। उधर चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में मंदिर भी मुद्दा बन गया है।

पिछले हफ्ते पुणे के श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई गणपति मंदिर में पूजा करने आए संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि अयोध्या में शीघ्र मंदिर निर्माण होगा। बताते हैं कि संघ प्रमुख खासतौर से राम-मंदिर और राम-राज्य मनोकामना की पूर्ति के लिए अभिषेक करके गए हैं। इससे पहले वे राम मंदिर पर कानून बनाने की सलाह सरकार को दे चुके हैं।

मंदिर को लेकर उत्साह

उधर छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रचार के लिए आए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, अयोध्या में जल्द बनेगा भव्य राम मंदिर। इसकी शुरुआत हो चुकी है। पिछले कुछ समय से अचानक अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर मंदिर बनाने की मुहिम में उतरे हैं। साम-दाम-दंड हर तरह से कोशिशें चल रहीं हैं। पिछले डेढ़ सौ साल से ज़्यादा समय में कम से कम नौ बड़ी कोशिशें मंदिर-मस्जिद मसले के समाधान के लिए हुईं और परिणाम कुछ नहीं निकला।

Monday, October 22, 2018

आजाद हिन्द की टोपी पहन, कांग्रेस पर वार कर गए मोदी

नरेंद्र मोदीइसे नरेंद्र मोदी की कुशल ‘व्यावहारिक राजनीति’ कहें या नाटक, पर वे हर उस मौके का इस्तेमाल करते हैं, जो भावनात्मक रूप से फायदा पहुँचाता है. निशाने पर नेहरू-गांधी ‘परिवार’ हो तो वे उसेखास अहमियत देते हैं. रविवार 21 अक्तूबर को लालकिले से तिरंगा फहराकर उन्होंने कई निशानों पर तीर चलाए हैं.

'आजाद हिंद फौज' की 75वीं जयंती के मौके पर 21 अक्टूबर को लालकिले में हुए समारोह में मोदीजी की उपस्थिति की योजना शायद अचानक बनी. वरना यह लम्बी योजना भी हो सकती थी. ट्विटर पर एक वीडियो संदेश में उन्होंने कहा था कि मैं इस समारोह में शामिल होऊँगा.

कांग्रेस पर वार
इस ध्वजारोहण समारोह में मोदी ने नेताजी के योगदान को याद करने में जितने शब्दों का इस्तेमाल किया, उनसे कहीं कम शब्द उन्होंने कांग्रेस पर वार करने में लगाए, पर जो भी कहा वह काफी साबित हुआ.

उन्होंने कहा, एक परिवार की खातिर देश के अनेक सपूतों के योगदान को भुलाया गया. चाहे सरदार पटेल हो या बाबा साहब आम्बेडकर. नेताजी के योगदान को भी भुलाने की कोशिश हुई. आजादी के बाद अगर देश को पटेल और बोस का नेतृत्व मिलता तो बात ही कुछ और होती.

अभिषेक मनु सिंघवी ने हालांकि बाद में कांग्रेस की तरफ से सफाई पेश की, पर मोदी का काम हो गया. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गांधी, आम्बेडकर, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोकप्रिय नेताओं को पहले ही अंगीकार कर लिया है. अब आजाद हिन्द फौज की टोपी पहनी है.

Sunday, October 21, 2018

सबरीमलाई का राजनीतिक संदेश

हाल में हुए अदालतों के दो फैसलों के सामाजिक निहितार्थों को समझने की जरूरत है। इनमें एक फैसला उत्तर भारत से जुड़ा है और दूसरा दक्षिण से, पर दोनों के पीछे आस्था से जुड़े प्रश्न हैं। पिछले कुछ समय में गुरमीत राम रहीम और आसाराम बापू को अदालतों ने सज़ाएं सुनाई। अब बाबा रामपाल को दो मामलों में उम्रकैद की सज़ा सुनाई है। तीनों मामले अपराधों से जुड़े है। पिछले साल अगस्त में जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की, तकरीबन वैसी ही हिंसा उसके पहले मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस के बीच हिंसक भिड़ंत में हुई थी। बहरहाल बाबा रामपाल प्रकरण में ऐसा नहीं हो पाया।

पिछले हफ्ते केरल के सबरीमलाई (या सबरीमाला) मंदिर में कपाट खुलने के बाद के घटनाक्रम ने देश का ध्यान खींचा है। 12वीं सदी में बने भगवान अयप्पा के इस मंदिर में परम्परा से 10-50 साल की उम्र की स्त्रियों के प्रवेश पर रोक है। हाल में कुछ सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रतिबंध को हटा दिया और सभी महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी। केरल के परम्परागत समाज ने अदालत की इस अनुमति को धार्मिक मामलों में राज-व्यवस्था का अनुचित हस्तक्षेप माना।

Wednesday, October 17, 2018

उत्तर भारत पर प्रदूषण का एक और साया

पिछले कुछ वर्षों का अनुभव है कि जैसे ही हवा में ठंडक पैदा हुई उत्तर भारत में प्रदूषण का खतरा पैदा होने लगता है. पंजाब और हरियाणा के किसान फसल काटने के बाद बची हुई पुआल यानी पौधों के सूखे डंठलों-ठूंठों को खेत में ही जलाते हैं. इससे दिल्ली समेत पूरा उत्तर भारत गैस चैंबर जैसा बन जाता है. मौसम में ठंडक आने से हवा भारी हो जाती है और वह ऊपर नहीं उठती. उधर इसी मौसम में दशहरे और दीपावली के त्योहार भी होते हैं. इस वजह से माहौल धुएं से भर जाता है. इस साल भी वह खतरा सामने है.

दिल्ली में हवा धीरे-धीरे बिगड़ने लगी है. पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, केंद्र सरकारों और प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी एजेंसियों के बार-बार हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं. किसानों पर जुर्माने लगाने और सज़ा देने की व्यवस्थाएं की गई हैं. वे जुर्माना देकर भी खेतों में आग लगाते हैं. कहीं पर व्यावहारिक दिक्कतें जरूर हैं. बहरहाल मौसम विभाग ने आने वाले दिनों के लिए अलर्ट जारी कर दिया है. अब इंतजार इस बात का है कि हवा कितनी खराब होगी और सरकारें क्या करेंगी.

Sunday, October 14, 2018

‘मीटू’ की ज़रूरत थी

देश में हाल के वर्षों में स्त्री-चेतना की सबसे बड़ी परिघटना थी, दिसम्बर 2012 में दिल्ली-रेपकांड के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन। इस आंदोलन के कारण भले ही कोई क्रांतिकारी बदलाव न हुआ हो, पर सामाजिक-व्यवस्था को लेकर स्त्रियों के मन में बैठी भावनाएं निकल कर बाहर आईं। ऐसे वक्त में जब लड़कियाँ घरेलू बंदिशों से बाहर निकल कर आ रहीं हैं, उनके साथ होने वाला दुर्व्यवहार बड़े खतरे की शक्ल में मुँह बाए खड़ा है। समय क्या शक्ल लेगा हम नहीं कह सकते, पर बदलाव को देख सकते हैं। इन दिनों अचानक खड़ा हुआ ‘मीटू आंदोलन’ इसकी एक मिसाल है। 

लम्बे अरसे से हम मानते रहे हैं कि फिल्मी दुनिया में स्त्रियों का जबर्दस्त यौन-शोषण होता है। पर ऐसा केवल ‘फिल्मी दुनिया’ में नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में है। और यह बात अब धीरे-धीरे खुल रही है। ‘मीटू आंदोलन’ आंदोलन के पहले से देश में कई मामले अदालतों में चल रहे हैं। खासतौर से मीडिया में कुछ लड़कियों ने आत्महत्याएं की हैं। सिनेमा और मीडिया का वास्ता दृश्य जगत से है। उसे लोग ज्यादा देखते हैं। राजनीति के ‘मीटू प्रसंग’ भी सुनाई पड़ेंगे। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, प्रशासनिक सेवाओं, कॉरपोरेट जगत और शैक्षिक संस्थानों से खबरें मिलेंगी।

तब या अब किसी ने इन बातों को सार्वजनिक रूप से उठाया है, तो इसकी तारीफ करनी चाहिए और उस महिला का समर्थन करना चाहिए। पर यह सारी बात का एक पहलू है। इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए। ‘मीटू आंदोलन’ यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक वैश्विक अभियान है, जिसके अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूप हैं। इसका सबसे प्रचलित अर्थ है कार्यक्षेत्र में स्त्रियों का यौन शोषण। अक्तूबर 2017 में अमेरिकी फिल्म निर्माता हार्वे वांइंसटाइन पर कुछ महिलाओं ने यौन शोषण के आरोप लगाए। न्यूयॉर्क टाइम्स और न्यूयॉर्कर ने खबरें प्रकाशित कीं कि एक दर्जन से अधिक स्त्रियों ने वांइंसटाइन पर यौन-विषयक परेशानियाँ पैदा करने, छेड़छाड़, आक्रमण और रेप के आरोप लगाए। इस वाक्यांश को लोकप्रियता दिलाई अमेरिकी अभिनेत्री एलिज़ा मिलानो ने, जिन्होंने हैशटैग के साथ इसका इस्तेमाल 15 अक्टूबर 2017 को ट्विटर पर किया। मिलानो ने कहा कि मेरा उद्देश्य है कि लोग इस समस्या की संजीदगी को समझें। इसके बाद इस हैशटैग का इस्तेमाल सोशल मीडिया पर करोड़ों लोग कर चुके हैं।

Sunday, October 7, 2018

विदेश नीति में बड़े फैसलों की घड़ी

कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग हो रही है। अब रूस के साथ एस-400 मिसाइलों, एटमी बिजलीघरों समेत आठ समझौते होने से लगता है कि हम अमेरिका से दूर जा रहे हैं। ऐसे में अगली गणतंत्र दिवस परेड पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मुख्य अतिथि बनकर आ जाएं तो क्या कहेंगे? भारत की दोनों, बल्कि इसमें चीन को भी शामिल कर लें, तो तीनों के साथ क्या दोस्ती सम्भव है?

क्यों नहीं सम्भव है? हमारी विदेश नीति किसी एक देश के हाथों गिरवी नहीं है। स्वायत्तता का तकाजा है कि हम अपने हितों के लिहाज से रास्ते खोजें। पर स्वायत्तता के लिए सामर्थ्य भी चाहिए। अमेरिका से दोस्ती कौन नहीं चाहता? इसकी वजह है उसकी ताकत। ऐसे ही मौकों पर देश की सामर्थ्य का पता लगता है और इसका प्रदर्शन किया जाना चाहिए।

Saturday, October 6, 2018

बाएं बाजू रूस, दाएं अमेरिका

कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग होती जा रही है। अब लगता है कि हम स्थिरता के धरातल पर वापस लौट रहे हैं। सितम्बर के पहले हफ्ते में भारत और अमेरिका के बीच हुई ‘टू प्लस टू’ वार्ता के ठीक एक महीने बाद रूस के साथ एस-400 मिसाइल प्रणाली को लेकर समझौता हो गया है। यह मिसाइल प्रणाली हवाई हमलों के खिलाफ दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली मानी जाती है। इसे अमेरिकी ‘टर्मिनल हाई अल्टीट्यूड एरिया डिफेंस सिस्टमट (ठाड) या पैट्रियट मिसाइल प्रणाली के मुकाबले किफायती और ज्यादा मारक समझा जा रहा है। सच यह है कि रूसी मिसाइलों, फ्रांसीसी लड़ाकू विमानों, अमेरिकी ड्रोनों और इसरायली रेडारों के सहारे चलने वाली भारतीय रक्षा-नीति अपने आप में अनोखी साबित हो रही है। रक्षा बहरहाल हमें अभी इस समझौते के बाबत अमेरिका की औपचारिक प्रतिक्रिया का इंतजार करना चाहिए। इतना जरूर लगता है कि भारत ने काफी सोच-समझ कर यह फैसला किया है। 
भारत और रूस के बीच 19 वें वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान आठ समझौते हुए हैं। ये समझौते रक्षा, नाभिकीय ऊर्जा, स्पेस और अर्थ-व्यवस्था से जुड़े हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये समझौते अमेरिका की धमकी के बाद हुए हैं। अमेरिका ने धमकी दी है कि वह उन देशों पर पाबंदी लगाएगा, जो रूसी हथियार खरीदते हैं। पिछले महीने भारत और अमेरिका के बीच पहली बार जब टू प्लस टू वार्ता हुई थी, तब यह सवाल सबसे ऊपर था कि भारत इस मिसाइल प्रणाली को खरीद भी पाएगा या नहीं?