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Tuesday, November 13, 2018

‘नाम’ और उससे जुड़ी राजनीति


इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने और फिर फैजाबाद की जगह अयोध्या को जिला बनाए जाने के बाद नाम से जुड़ी खबरों की झड़ी लग गई है. केंद्र सरकार ने पिछले एक साल में कम से कम 25 शहरों, कस्बों और गांवों के नाम बदलने के प्रस्ताव को हरी झंडी दी है जबकि कई प्रस्ताव उसके पास विचाराधीन हैं. इनमें पश्चिम बंगाल का नाम ‘बांग्ला’ करने, शिमला को श्यामला, लखनऊ को लक्ष्मणपुरी, मुजफ्फरनगर को लक्ष्मीनगर, अलीगढ़ को हरिगढ़ और आगरा को अग्रवन का नाम देने के प्रस्ताव शामिल हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री ने कहा है कि हम अहमदाबाद का नाम कर्णवती करने पर विचार कर रहे हैं. 

दो राय नहीं कि यह नाम-परिवर्तन बीजेपी के हिन्दुत्व का हिस्सा है और इस तरीके से पार्टी अपने जनाधार को बनाए रखना चाहती है. सवाल है कि क्या वास्तव में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को यह सब पसंद आता है? क्या इन तौर-तरीकों से बड़े स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना जागेगी? और क्या इस तरीके से देश की मुस्लिम संस्कृति को  सिरे से झुठलाया या खारिज किया जा सकेगा? हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की वास्तविकता को क्या इस तरीके से खारिज किया जा सकता है?

नाम-परिवर्तन की प्रक्रिया आज अचानक शुरू नहीं हुई है. काफी पहले से चली आ रही है. भारत ही नहीं, सारी दुनिया में. कुंस्तुनतुनिया का नाम इस्तानबूल हो गया. पाकिस्तान के लायलपुर का नाम अब फैसलाबाद है. इस नाम-परिवर्तन के अलग-अलग कारण हैं. देश-काल, ऐतिहासिक घटनाक्रम और संस्कृतियों के बदलाव से ऐसा होता है. आज के दौर के इतिहास को बदलने में राजनीति की बड़ी भूमिका है. इस बदलाव के सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण साफ हैं. बदलाव करने वाले इसे छिपाना भी नहीं चाहते.


एक खास राजनीतिक संस्कृति का प्रसार होने के कारण यह नाम परिवर्तन हो रहा है. बदलाव लाने वालों को यकीन है कि उनके समर्थकों को यह पसंद आएगा. लोकतंत्र में जनता की पसंद चलती है. कर्नाटक में टीपू सुल्तान की जयंती के समर्थन और विरोध के पीछे भी यही लोकतंत्र है. यह सवाल अलग है कि क्या वास्तव में जनता यही चाहती है? क्या नागरिक सुविधाओं, सार्वजनिक सेवाओं और जनता से जुड़ी बातों से ज्यादा बड़े नाम के मसले हैं? कौन जाने, जवाब तो वक्त देगा.  

अयोध्या, प्रयागराज और दीनदयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन जैसे नाम इस बात को रेखांकित कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में बीजेपी के पहले बहुजन समाज पार्टी के कार्यकाल में भी नाम-परिवर्तन की प्रक्रिया चली थी. जिलों, शहरों और संस्थाओं के नाम बदले गए. पिछले कुछ दशकों के नाम-परिवर्तनों पर नजर डालें, तो यह भी नजर आएगा कि यह भी एक राजनीतिक-प्रक्रिया है. मुख्यधारा के ज्यादातर राजनीतिक दलों और व्यक्तिगत रूप से राजनेताओं की कोशिश रहती है कि नाम-परिवर्तन में उनके हित झलकें.

पर नाम-परिवर्तन में केवल राजनीति की ही भूमिका नहीं होती. दूसरे कारण भी इसके पीछे हैं. मसलन अंग्रेजी राज में रखे गए तमाम नामों के हिज्जे देश की जुबान से मेल नहीं खाते. मसलन कानपुर के अंग्रेजी राज वाले हिज्जे भारतीय नाम से मेल नहीं खाते थे. आज भी मेरठ या लखनऊ के अंग्रेजी हिज्जे भारतीय नाम के संगत नहीं हैं. आजादी के बाद तमाम शहरों के हिज्जे बदले गए. कोचीन का कोच्चि हुआ और पंजिम का पणजी.

यह केवल भारत की प्रवृत्ति नहीं है. आपको याद है कि बांग्लादेश ने चटगाँव डिवीजन का नाम कब चट्टोग्राम कर दिया या पेकिंग का नाम कब बीजिंग हो गया? हमने मद्रास को तमिलनाडु और चेन्नई, मैसूर को कर्नाटक, ट्रावनकोर को केरल, बॉम्बे को मुम्बई, पॉण्डिचेरी को पुदुच्चेरी, उड़ीसा को ओडिशा, त्रिवेंद्रम को तिरुवनंतपुर, मध्य भारत को मध्य प्रदेश, युक्त प्रांत को उत्तर प्रदेश, कोचीन को कोच्चि, कलकत्ता को कोलकाता, बड़ौदा को वडोदरा, गोहाटी को गुवाहाटी, बंगलौर को बेंगलुरु, बेलगाम को बेलगावी, गुड़गाँव को गुरुग्राम, कनन्नौर को कन्नूर, गुलबर्गा को कालबुर्गी बनाया. यह सूची काफी लम्बी है.  

नाम बदलने के प्रशासनिक कारण भी हैं. छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलंगाना या उत्तराखंड नए नाम हैं, जो पहले से प्रचलित नहीं थे. पर उनके पीछे भी राजनीति थी. जैसाकि उत्तराखंड और उत्तरांचल के साथ हुआ. जब नया राज्य उत्तरांचल बना तब केंद्र में दूसरी सरकार थी और जब उसे उत्तराखंड किया गया, तब दूसरी सरकार थी. दोनों की नाम को लेकर अपनी वरीयता और जिद थी.

नाम-परिवर्तन के कारण करोड़ों की स्टेशनरी बदली गई, तमाम साइनबोर्ड बदले गए. अंचल और खंड में न जाने क्या बुनियादी तत्व बदला? शायद राजनेताओं को बेहतर पता हो. लखनऊ की कॉलोनी है इंदिरा नगर. इसका नाम कई बार राम सागर मिश्र नगर और इंदिरा नगर हुआ. कारण राजनीतिक थे. साबित यह हुआ कि जो नाम हम रखना चाहते हैं, वही रखा जाएगा.

शेक्सपियर ने लिखा है, नाम में क्या रखा है? मसलन गुलाब को गुलाब न कहकर कुछ और कहें, तो क्या वह खुशबू देना बंद कर देगा?  नहीं करेगा, पर इतिहास को देखें तो पता लगता है कि नाम में बहुत कुछ रखा है. नाम के साथ उसका इतिहास चलता है. कद्दू को अंगूर का नाम दे दें तब भी कद्दू का रूपाकार उसपर हावी रहेगा. भाषा की प्रकृति हमारे व्यवहार से बदलती है. ये नाम मुहावरों में जगह पाते हैं, जनता की जुबान पर चढ़ते हैं. अयोध्या के मुसलमान भी अपने शहर को अजुध्याजी कहते हैं. आज से नहीं हमेशा से कहते रहे हैं. मथुरा वाले यमुना नहीं, जमुनाजी कहते हैं. इतिहास संस्कृति के मुहावरों में लिखा होता है. जनता की जुबान पर चढ़कर बोलता है.

जिनके लिए नखलऊ एक सहर है, उनके लिए शायद लखनऊ अपरिचित जगह हो. वे मान लेंगे कि भाई आप जो कहते हैं, वही सही होगा, पर हम तो इसी नाम से जानते हैं. हम तो लौकी कहेंगे, आप घिया कहें या कुछ और. क्या फर्क पड़ता है? दिल्ली का कनॉट प्लेस जिनके लिए है, उनके लिए वह राजीव चौक भी है, पर कनॉट प्लेस को वे भूलते नहीं हैं. लक्ष्मणपुरी बना देने के बाद भी वह लखनऊ रहेगा. ऐसा ही फैजाबाद और इलाहाबाद के साथ भी होगा.  

इंडिया विदेशियों का दिया नाम है. उसके साथ भारत का नाम हमारी संविधान सभा ने स्वीकार किया है. पर हम इसे हिन्दुस्तान के नाम से भी जानते हैं. यह नाम संविधान में लिखा नहीं है और न किसी धर्मग्रंथ में. यह भी हमारी पहचान है. सच यह है कि नाम और उसकी राजनीति दो अलग-अलग मसले हैं. गांधी का प्रिय भजन याद आता है, ईश्वर, अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान. 






1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (14-11-2018) को "बालगीत और बालकविता में भेद" (चर्चा अंक-3155) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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