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Monday, December 31, 2018

उम्मीदों और अंदेशों से घिरा साल

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राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस की आंशिक वापसी और बीजेपी के आंशिक पराभव का साल था. न तो यह कांग्रेस को पूरी विजय देकर गया और न बीजेपी को स्थायी पराजय. अलबत्ता इस साल जो भी हुआ, उसे 2019 के संकेतक के रूप में देखा जा रहा है. हमारे जीवन पर राजनीति हावी है, इसलिए हम सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर ध्यान कम दे पाते हैं. यह साल गोरक्षा के नाम पर हुई बर्बरता और ‘मीटू आंदोलन’ के लिए याद रखा जाएगा. दोनों बातें हमारे अंतर्विरोधों पर रोशनी डालती हैं. यौन-शोषण की काफी कहानियाँ झूठी होती हैं, पर ज्यादा बड़ा सच है कि काफी कहानियाँ सामने नहीं आतीं. इस आंदोलन ने स्त्रियों को साहस दिया है.

हाल के वर्षों में हमारी अदालतों ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले किए, जिनके सामाजिक निहितार्थ हैं. पिछले साल ‘प्राइवेसी’ को व्यक्ति का मौलिक अधिकार माना गया. दया मृत्यु के अधिकार को लेकर एक और फैसला हुआ था, जिसने जीवन के बुनियादी सवालों को छुआ. इस साल हादिया मामले में जीवन साथी को चुनने के अधिकार पर महत्वपूर्ण आया. धारा 377 के बारे में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, इतने साल तक समान अधिकार से वंचित करने के लिए समाज को एलजीबीटी समुदाय से माफी माँगनी चाहिए. 
हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति, ट्रिपल तलाक, आधार की अनिवार्यता, समलैंगिकता, जज लोया, अयोध्या में मंदिर और राफेल विमान सौदे से जुड़े मामलों के कारण न्यायपालिका पूरे साल खबरों में रही. असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर अदालत में और उसके बाहर भी गहमागहमी रही और अभी चलेगी. इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग इसी साल लाया गया. पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने प्रेस कांफ्रेंस करके न्यायपालिका के अंतर्विरोधों की ओर इशारा किया. सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार (विवाहेतर सम्बंध) से संबंधित दंडात्मक प्रावधान को रद्द किया. केरल के सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश के दरवाजे खोलने से जुड़े आदेश ने हलचल मचाई. सबरीमाला प्रसंग के राजनीतिक निहितार्थ हैं, जो केरल में बीजेपी के प्रवेश का आधार बन सकता है.

इस साल नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए जिनसे 2019 की तस्वीर साफ हुई. पर सबसे बड़ी परिघटना है कांग्रेस के आत्मविश्वास की वापसी. दिसम्बर 2017 में राहुल गांधी के अध्यक्ष पद पर चुनाव के बाद इस साल मार्च में कांग्रेस महासमिति का 84 वां अधिवेशन हुआ, जो दो बातों से महत्वपूर्ण था. पार्टी में लम्बे अरसे बाद नेतृत्व परिवर्तन हुआ. दूसरे यह ऐसे दौर में हुआ, जब पार्टी लड़खड़ाई हुई थी. इस महाधिवेशन के साथ कांग्रेस ने नए दौर की तरफ कदम बढ़ाए. राहुल सफल होंगे या विफल यह अगले तीन-चार महीने में जाहिर होने लगेगा. कांग्रेस महासमिति में राहुल ने कहा, मैं मानता हूँ कि पार्टी नेतृत्व और कार्यकर्ता के बीच एक दीवार है. मेरी प्राथमिकता इसे तोड़ने की होगी. कैसे तोड़ेंगे वे यह दीवार?

कांग्रेस के लिए इस साल जून में एकबार असमंजस की स्थिति तब पैदा हुई, जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में शामिल हुए. बावजूद इसके कि उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी तक ने आपत्ति व्यक्त की थी. अंततः पार्टी ने खुद को जब्त किया और सत्य को स्वीकार किया. लोकसभा चुनाव के पहले के इस अंतिम वर्ष में पार्टी ने चार महत्वपूर्ण चुनावों में सफलता प्राप्त की है, जो सन 2019 की उसकी महत्वाकांक्षाओं की बुनियाद बनेंगे.

कांग्रेस ने मान लिया है कि अस्तित्व बचाना है, तो दूसरे दलों के साथ समझौते करने पड़ेंगे. पर गठबंधन की राजनीति में कई किस्म के पेच हैं. इस साल कर्नाटक में जब त्रिशंकु विधानसभा चुनकर आ रही थी और कांग्रेस के हाथ से एक महत्वपूर्ण राज्य निकलने जा रहा था, पार्टी ने जेडीएस का मुख्यमंत्री स्वीकार करके एक दाँव खेला. पर हाल में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसने चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं किए. पिछले साल गुजरात में भी उसने गठबंधन का सहारा नहीं लिया. कांग्रेस एक तरफ महागठबंधन की बात चला रही है, वहीं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने ‘गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस’ के नाम पर जिस फेडरल फ्रंट की पेशकश की है, उसका महत्व 2019 के चुनाव परिणाम आने के बाद समझ में आएगा. यदि एनडीए को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तब यह फ्रंट महत्वपूर्ण साबित हो जाएगा. महागठबंधन की सबसे बड़ी बाधा है विरोधी दलों की संख्या और वैचारिक भिन्नता.

इस साल बीजेपी ने अपने महान नेता अटल बिहारी वाजपेयी को खोया. वे लम्बे अरसे से बिस्तरे पर थे और सार्वजनिक जीवन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी, पर उनका जाना पार्टी के एक बड़े रूपांतरण का प्रतीक है. चार साल के एकछत्र उत्थान के बाद पार्टी पराभव की ओर बढ़ चली है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मिली पराजय से लगता है कि बीजेपी की लोकप्रियता का ह्रास हो रहा है. कहना मुश्किल है कि इस अलोकप्रियता का कितना नुकसान लोकसभा चुनाव में होगा. बीजेपी ने पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में पैर पसारने की कोशिश की है. नगालैंड, त्रिपुरा और मेघालय में साल के शुरू में हुए चुनाव में बीजेपी को आशातीत सफलता मिली. खासतौर से त्रिपुरा में उसकी जीत काफी महत्वपूर्ण साबित हुई है.

तीन राज्यों में बीजेपी की पराजय के पीछे ज्यादातर कारण नकारात्मक हैं. एक तो एंटी-इनकंबैंसी, किसानों के आंदोलन और कर्ज-माफी का चारा. सवाल है कि बीजेपी अगले चार महीनों में क्या कर लेगी? क्या वह अपनी नकारात्मक इमेज को सुधारे सकेगी? सरकार का अनुमान है कि पिछले साढ़े चार साल में आयुष्मान भारत, जन-धन, सौभाग्य, उज्ज्वला, मुद्रा और स्किल इंडिया जैसी योजनाओं से करीब 22 करोड़ परिवारों के जीवन में बदलाव आया है. क्या यह बदलाव वोट के रूप में नजर आएगा? क्या मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक के मुद्दे को लेकर सरकार का समर्थन करेंगी? बीजेपी का सारा जोर ग्रामीण इलाकों में जन-सम्पर्क और लोगों को समझाने पर होगा कि आपके जीवन में बदलाव किस तरह आ रहा है और इसमें मोदी सरकार की भूमिका क्या है.
 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01-01-2019) को "मंगलमय नववर्ष" (चर्चा अंक-3203) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    नववर्ष-2019 की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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