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Sunday, November 25, 2018

अंधी गुफा के मुहाने पर कश्मीर



जब मुख्यधारा की राजनीति छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मसरूफ़ है, अचानक कश्मीर ने सबको झिंझोड़ दिया है। वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ पक रही थीं। बीरबल जैसी। बेशक अब जनता के सामने जाने का फैसला अच्छा है, पर कश्मीरी जनादेश जटिल होता है। यह जिम्मेदारी राजनीति दलों की है कि वे इस राज्य को अपने संकीर्ण दायरे से बाहर रखते। पर राजनीति का जिम्मेदारी से क्या लेना-देना? राज्यपाल ने यही फैसला जून में क्यों नहीं किया?  उस वक्त उन्होंने विधानसभा को अधर में रखकर नए गठजोड़ की सम्भावना को जीवित रखा था। वह महीन राजनीति सामने आ ही रही थी कि महबूबा मुफ्ती ने पत्ते फेंककर कहानी को नया मोड़ दे दिया। 

जून में अनुभवी प्रशासक एनएन वोहरा की जगह जब बिहार के राज्यपाल सतपाल मलिक को राज्यपाल के रूप में लाया गया, तभी समझ में आ रहा था कि कुछ होने वाला है। 51 साल बाद कश्मीर में इस पद पर किसी राजनेता की नियुक्ति हुई थी। सन 1967 में कर्ण सिंह के हटने के बाद से राज्य में नौकरशाहों, राजनयिकों, पुलिस और फौज के अफसर ही राज्यपाल बनते रहे हैं। बहरहाल बीजेपी की राजनीति के तार्किक परिणति तक पहुँचने के पहले ही गठबंधन राजनीति अपनी चाल चल दी। जैसा इस साल कर्नाटक में हुआ था, उससे मिलता-जुलता कश्मीर में हो गया। सिर्फ एक दिन के लिए।  


तीन सवाल

सवाल अब तीन हैं। जो हुआ क्या वह लोकतांत्रिक और सांविधानिक मर्यादा के अनुरूप है?  इससे कश्मीर के हालात सामान्य बनाने में मदद मिलेगी या बिगड़ेंगे?  और अब आगे क्या होगा?  अरुणाचल और उत्तराखंड में ऐसे ही फैसले हुए थे और मुँह की खानी पड़ी। पता नहीं कि इस फैसले को चुनौती दी जाएगी या नहीं, पर इसके सांविधानिक निहितार्थ पर विचार जरूर किया जाना चाहिए। सवाल है कि विधानसभा भंग करने की जल्दी क्या थी? क्या लोकतांत्रिक विकल्प मौजूद नहीं था?

यकीनन राज्यपाल का पद राजनीतिक है। पिछले 60-70 साल में राज्यपालों की भूमिका को देखते हुए मलिक साहब पर राजनीति करने का आरोप लगाना अन्याय होगा। अलबत्ता सांविधानिक मर्यादाओं का लिहाज करना ही चाहिए। इस गठबंधन की सरकार बन जाती, तो पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के गले की हड्डी बनती। राज्यपाल ने उन्हें बचा लिया। सज्जाद लोन की सरकार बनती तो शायद चल जाती, क्योंकि केन्द्र का समर्थन होता, पर फज़ीहत उसकी भी होती। गठबंधनों की असलियत तब सामने आएगी, जब चुनाव होंगे। उमर अब्दुल्ला ने साफ कर दिया है कि हमारा पीडीपी के साथ गठबंधन नहीं हो सकता।

घाटी पर असर होगा

इस घटनाक्रम का घाटी की सामान्य प्रशासनिक-अव्यवस्था पर असर पड़ेगा। भारत-विरोधी तत्वों को शह मिलेगी। हुर्रियत के हौसले बुलंद होंगे। उधर जम्मू में भी इसकी प्रतिक्रिया होगी। सामाजिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और तेज होगी। घाटी में पीडीपी का प्रभाव कम होगा। कहना मुश्किल है कि सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस की स्थिति क्या होगी। क्या वह बीजेपी के साथ गठबंधन में शामिल होगी? घाटी में अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे प्रत्यक्ष रूप से बीजेपी के साथ आने से बचना होगा। हाल में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में मिली सफलता से लगता है कि सज्जाद लोन के पीछे कहीं न कहीं समर्थन है।

पीडीपी के वरिष्ठ नेता मुज़फ्फर हुसेन बेग ने वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए सज्जाद लोन के साथ जाने का फैसला किया था। अभी कुछ नहीं कह सकते कि भविष्य में उनकी स्थिति क्या होगी? खबरें हैं कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के साथ भी उनका सम्पर्क है। पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस को बीजेपी से ज्यादा बड़ा खतरा सज्जाद लोन से है। घाटी में उनका मुकाबला लोन से है, बीजेपी से नहीं। बीजेपी का जनाधार जम्मू और लद्दाख में है। कांग्रेस का जनाधार भी उसी क्षेत्र में है।

कांग्रेस को नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के साथ नाम जुड़ने का लाभ घाटी से ज्यादा शेष देश में मिलेगा। वह बीजेपी के मुकाबले में खड़ी है। राजनीति में कई तरह की दृष्टियाँ काम करती हैं। हम दूर से जितने अनुमान लगाते हैं, जरूरी नहीं के वे सच हों। बीजेपी को जम्मू और लद्दाख में सफलता मिलती रही है, पर हाल में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में लद्दाख में उसे हार का सामना करना पड़ा है। बीजेपी के सांसद थुप्सतान छेवांग ने पार्टी छोड़ दी है। उधर कठुआ गैंगरेप के मामले में प्रसिद्ध हुए लाल सिंह ने बीजेपी छोड़कर डोगरा स्वाभिमान संगठन बना लिया है। चुनाव के पहले का मंथन शुरू हो गया है।

चुनाव की तैयारी

सवाल है कि अब क्या होगा?  सरल जवाब है कि चुनाव होंगे। अगला सबसे अच्छा मौका लोकसभा के चुनाव के साथ का है। केन्द्र सरकार यों भी एकसाथ चुनाव कराने की पक्षधर है, इसलिए उसके पास इन्हें आगे के लिए टालने की सम्भावना नहीं है। मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने भी कहा है कि वहाँ मई से पहले भी चुनाव कराए जा सकते हैं। चुनावों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि सदन भंग होने के छह महीने के भीतर चुनाव हो जाने चाहिए।

कश्मीर के चुनाव सामान्य परिस्थितियों में नहीं होते। उनके लिए कई तरह की प्रशासनिक तैयारियाँ करनी होती हैं। राजनीतिक दलों की तैयारियाँ अपनी जगह हैं। महबूबा मुफ्ती ने फौरी तौर पर सरकार बनाने का दावा पेश किया था। पर चुनाव में वे न तो कांग्रेस के साथ गठबंधन करेंगी और न नेशनल कांफ्रेंस के साथ। बीजेपी के नेता राम माधव ने इन तीन दलों के गठबंधन को पाकिस्तान के इशारे पर की गई गतिविधि बताया था। उन्होंने फौरन ही अपनी बात वापस ले ली।

नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी को पाकिस्तान-परस्त पार्टियाँ नहीं कहा जा सकता। उन्हें हुर्रियत के समकक्ष भी नहीं कहा जा सकता। ये पार्टियां भारतीय संविधान के दायरे में बनी हैं। घाटी को शेष भारत से ये पार्टियाँ जोड़ती हैं। सन 2015 की सरकार बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद ने कहा था कि कश्मीर ने द्विराष्ट्र सिद्धांत को त्याग दिया है और भारत में विलय को स्वीकार कर लिया है। पर कांग्रेस समेत ये दोनों दल कश्मीर की स्वायत्तता और अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए के समर्थक हैं। बीजेपी की राजनीति इसी स्वायत्तता के खिलाफ है।

जम्मू-कश्मीर का यथार्थ

पीडीपी और बीजेपी की सरकार जब 2015 में बन रही थी, तब वह गठबंधन घोड़े और घास की दोस्ती जैसा लगता था। जम्मू के लोगों को लगता था कि घाटी वाले इसे कबूल नहीं करेंगे और घाटी वालों को लगता था कि यह सब तमाशा है। वह सरकार अपने आप में अजूबा थी, क्योंकि दो विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टियों ने करीब साढ़े तीन साल तक सरकार को चलाया। वहाँ भविष्य में भी ऐसी सरकारें ही बनेंगी। तब तक बनेंगी जब तक कोई अकेली ऐसी पार्टी सामने न आए जो जम्मू और घाटी दोनों जगह समान रूप से लोकप्रिय हो। हो सकता है ऐसा भी कभी हो, पर वर्तमान स्थितियों में जो हुआ है वह कुछ लोगों को अजूबा भले लगे, पर अपरिहार्य था।

आज के हालात में आधुनिक भारत का सबसे बड़ा राजनीतिक अंतर्विरोध जम्मू-कश्मीर में है। राज्य में कोई ऐसी पार्टी नहीं है जो घाटी और जम्मू दोनों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हो। भाजपा-पीडीपी सरकार अजूबा थी। पता नहीं कि भविष्य में यह अजूबा किस प्रकार होगा। इसे मौकापरस्ती भी कह सकते हैं मौकापरस्ती का मतलब भी मौके की नजाकत को समझना है। गठबंधन के पहले दोनों पक्षों के बीच जिस न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर दस्तखत किए गए थे उसे पढ़ा जाना चाहिए। साझा कार्यक्रम के अनुसार राज्य की राजनीति खंडित है। इस खंडित राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों ने एक साथ बैठकर जनादेश की जटिलता को समझने की कोशिश की।

इसके लिए तकरीबन एक महीने तक भाजपा के महासचिव राम माधव और पीडीपी के नेता हसीन अहमद द्राबू के बीच चंडीगढ़, जम्मू और दिल्ली में गठबंधन की बारीकियों पर चर्चा हुई थी। बताया जाता है कि हसीन अहमद द्राबू ने इस बात पर जोर दिया कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में कश्मीर के राजनीतिक समूहों के साथ शुरू की गई बातचीत का जिक्र भी किया जाए, जिसमें हुर्रियत भी शामिल थी। इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत की भावना से इस संवाद को फिर से शुरू करने की बात कही गई थी। हालांकि नरेन्द्र मोदी ने भी इस बात को दोहराया है, पर कोई बड़ी पहल कभी शुरू नहीं की। फिलहाल कश्मीर फिर से अंधी गुफा के सामने है। 












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