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Sunday, November 4, 2018

मौद्रिक-व्यवस्था पर निरर्थक टकराव


ऐसे महत्वपूर्ण समय में जब देश को आर्थिक संवृद्धि की दर में तेजी से वृद्धि की जरूरत है विश्व बैंक की 16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस) रैंकिंग में भारत इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से 77वें स्थान पर पहुंच गया है। पिछले दो सालों में भारत की रैंकिंग में 53 पायदान का सुधार आया है। माना जा रहा है कि इससे भारत को अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी। इस खुशखबरी के बावजूद देश में पूँजी निवेश को लेकर निराशा का भाव है। वजह है देश के पूँजी क्षेत्र व्याप्त कुप्रबंध।

पिछले कुछ वर्षों से बैंकों के नियामक रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार के बीच तनातनी चल रही है। इस तनातनी की पराकाष्ठा पिछले हफ्ते हो गई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में विचार-विमर्श शुरू किया। इसके तहत केंद्र सरकार जरूरी होने पर रिज़र्व बैंक को सीधे निर्देश भेज सकती है। इस अधिकार का इस्तेमाल आज तक केंद्र सरकार ने कभी नहीं किया। इस खबर को मीडिया ने नमक-मिर्च लगाकर सनसनीखेज बना दिया। कहा गया कि धारा 7 का इस्तेमाल हुआ, तो रिज़र्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल इस्तीफा दे देंगे।


ऐसा कुछ नहीं होगा और डॉ पटेल अगले साल सितंबर तक अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। पर यह भी साफ है कि रिजर्व बैंक की स्वतंत्रता का अर्थ गवर्नरों की निजी स्वतंत्रता नहीं है। वे अकेले ही मौद्रिक नीति नहीं बनाते उसमें सरकार की राय भी काम करती है। सरकार चाहती है कि देश के छोटे और मझोले उद्योगों को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए उनपर लगी पाबंदियों में ढील दी जाए। शुक्रवार को सरकार ने सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों (एमएसएमई) को बढ़ावा देने के लिए कई नए कदमों की घोषणा की है, जिसमें 59 मिनट में एक करोड़ रुपए तक के ऋण की ऑनलाइन मंजूरी की सुविधा शामिल है। सबसे ज्यादा रोजगार इन्हीं उद्यमों से जुड़े हैं। 



सरकारी पहलकदमी के जवाब में रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सार्वजनिक रूप से कड़ा बयान दे दिया। उन्होंने मुंबई में एडी श्रॉफ स्मृति व्याख्यान में कहा कि सरकार आरबीआई की स्वायत्तता में दखल देगी, तो यह बात ख़ासी नुकसानदेह होगी। आचार्य जो बात कहना चाहते थे, वह सिद्धांत रूप से गलत भी नहीं है। संस्था के रूप में रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता बेहद जरूरी है। मौद्रिक अनुशासन में ढील हुई तो व्यावसायिक अराजकता शुरू हो जाएगी। बैंकों के कर्जों में ऐसा हुआ भी है। उनकी भावना कुछ भी रही हो, पर उनका बयान उत्तेजक था।

इसके जवाब में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक कार्यक्रम में रिजर्व बैंक की आलोचना कर दी। उन्होंने कहा, जब 2008 से 2014 के बीच बैंक मनमाने ढंग से क़र्ज़ दे रहे थे तो रिजर्व बैंक इसकी अनदेखी करता रहा। 2008 की वैश्विक मंदी के बाद तत्कालीन सरकार ने बैंकों को लोन बांटने की खुली छूट दे दी थी। यही वजह थी कि उस दौरान एक साल में क्रेडिट ग्रोथ 14% की सामान्य दर से बढ़कर 31% हो गई थी।

इन दोनों बयानों के कारण बदमज़गी बढ़ी। वित्तीय-अनुशासन में सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच समन्वय बेहद ज़रूरी है। पर इस किस्म के खुले आरोप-प्रत्यारोपों का वित्तीय बाजार पर दुष्प्रभाव पड़ता है। अर्थ-व्यवस्थाएं केवल मजबूत बाजार पर ही नहीं पनपती हैं। उनकी मजबूती के पीछे मजबूत संस्थाओं की भूमिका भी होती है।

हमें अभी आर्थिक मोर्चे पर कई तरह की लड़ाइयाँ लड़नी हैं। अमेरिका में ब्याज की दरें बढ़ने और चीन के साथ अमेरिका के व्यापार युद्ध के कारण भारत की अर्थ-व्यवस्था भी प्रभावित हुई है। दुनियाभर की करेंसियाँ डॉलर की मजबूती से प्रभावित हैं। तेल की कीमतों ने हमें पहले से ही परेशान कर रखा है। हमें बहुत सावधानी से कदम रखने हैं। ऐसे में सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच निरर्थक टकराव हमें नुकसान पहुँचाएगा।

अच्छी बात यह है कि यह टकराव आगे नहीं बढ़ा। हम बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। लम्बे समय तक हमारी बैंकिग-व्यवस्था अराजकता की शिकार रही। हाल में बैंकों की पूँजी डूबने के बाबत जो जानकारियाँ सामने आईं हैं, वे तभी आईं जब रिज़र्व बैंक ने नियम बदले। कम्पनियों को दिवालिया घोषित करने का कानून इसीलिए बनाना पड़ा, ताकि डूबी हुई पूँजी को वसूला जा सके। हाल में इंफ्रास्ट्रक्चर लीज़िग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज (आईएलएंडएफएस) जैसी विशाल गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनी ने जब कर्ज चुकाना बंद कर दिया, तो एक नई  समस्या की ओर देश का ध्यान गया है।

गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ (एनबीएफसी)भी पूँजी के संकट से गुजर रहीं हैं। सरकार चाहती है कि देश के उद्योगों को चलाने के लिए पूँजी सुगमता से मिलनी चाहिए, जबकि रिज़र्व बैंक का कहना है कि पूँजी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। सरकार और उद्योग चाहते हैं कि एनबीएफसी को पूँजी उपलब्ध कराने के लिए एक विशेष विंडो (व्यवस्था) बनाई जाए। आरबीआई का कहना है कि यदि एक नई व्यवस्था बना दी गई तो सब हाथ फैलाएंगे।

सरकारी शिकायत है कि आरबीआई सार्वजनिक नीति से जुड़ी चुनौतियों को समझने में हठ भरत रहा है। पहले तो उसने सरकारी बैंकों के फंसे हुए कर्ज को लेकर पीठ फेर ली और अब सारे मानक सख्त कर दिए हैं। ये अंतरराष्ट्रीय मानकों से भी कड़े हैं। पर इन बातों को दोनों तरफ के विशेषज्ञ आमने-सामने के विमर्श में भी तय कर सकते हैं। इन्हें राजनीतिक शक्ल देने की जरूरत नहीं है। सरकार और आरबीआई एक परिवार के सदस्य हैं। उन्हें परिवार की तरह व्यवहार करना चाहिए। मतभेदों को घर के भीतर ही निपटाएं, चौराहों पर नहीं। सच यह है कि पर्याप्त पूँजी निवेश न हो पाने के कारण रोजगारों में कमी आ रही है।  

आईएलएंडएफएस के कारण कई कम्पनियों, म्यूचुअल फंडों और बीमा कम्पनियों का पैसा फँस गया है। उन्हें बैंकों ने भी पूँजी देना रोक दिया है। पिछली 22 अक्तूबर को इस सेक्टर में 1.37 लाख रुपये की कमी आ गई थी। हालांकि उसके बाद से स्थिति सुधरी है, पर संकट बरकरार है, जिसका पूर्वानुमान लगाने में रिज़र्व बैंक ने देरी की। 26 अक्तूबर को रिज़र्व बैंक ने घोषणा की नवंबर में सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद के मार्फत 40,000 करोड़ रूपया सिस्टम में डाला जाएगा। इसके पहले खुले बाजार के मार्फत 36,000 करोड़ रुपया अक्तूबर में डाला जा चुका है। वैश्विक अर्थ-व्यवस्था डांवांडोल है। हमें उस तरफ ध्यान देना चाहिए। 
http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2018-11-04

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