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Saturday, December 15, 2018

कांग्रेस के सामने खड़ी चुनौतियाँ

जीत के फौरन बाद तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन को लेकर पैदा हुआ असमंजस कुछ सवाल खड़े करता है. कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है. राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं. ऐसा कैसे होगा? क्या इसे उस राजनीति का नमूना मानें? तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नाम को लेकर पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए. समर्थन में नारेबाजी अनोखी बात नहीं है, पर यहाँ तो नौबत आगज़नी, वाहनों की तोड़फोड़ और सड़क जाम तक आ गई. प्रत्याशियों को अपने-अपने समर्थकों को समझाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ा. कार्यकर्ताओं तक की बात भी नहीं है. लगता है कि नेतृत्व ने भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है.
इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक संभव है असमंजस दूर हो गए हों, पर अब जो सवाल सामने आएंगे, वे दूसरे असमंजसों को जन्म देंगे. सरकार का गठन असंतोषों का बड़ा कारण बनता है, यहाँ भी बनेगा. नेताओं के व्यक्तिगत रिश्ते, परिवार से नजदीकी, प्रशासनिक अनुभव, कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, पार्टी के कोष में योगदान कर पाने और 2019 के लोकसभा चुनाव का अपने इलाके में बेहतर संचालन कर पाने की क्षमता वगैरह की अब परीक्षा होगी. 
कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में सकल वोट प्रतिशत के मामले में बीजेपी और कांग्रेस की लगभग बराबरी है. लोकसभा चुनाव में एक या दो फीसदी वोट की गिरावट से ही कहानी कुछ से कुछ हो सकती है. यदि वे सरकार के गठन के साथ ही अराजक व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, तो उनकी छवि खराब होगी. 

नेतृत्व के फैसलों में देरी होना नई बात नहीं है, पर इसबार यह सवाल चुनाव प्रचार के समय से ही उठ रहा है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? छत्तीसगढ़ में कम और राजस्थान-मध्य प्रदेश में ज्यादा. राहुल गांधी अपनी पसंद के युवा नेताओं को लाना चाहते हैं, पर परिवार में सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी दोनों अनुभवी नेताओं की समर्थक हैं. वरिष्ठ नेताओं की राय भी यही है. सन 2014 के चुनाव की पराजय के बाद से कई बार राहुल गांधी के फैसलों को लेकर दबे-छिपे टिप्पणियाँ की गईं हैं.
राहुल गांधी को ही अंततः नेतृत्व करना है, पर अंदरूनी तौर पर वे कितने मजबूत हैं (या वैचारिक रूप से स्पष्ट हैं) अभी कहना मुश्किल है. और यह दौर उनके अध्यक्ष बनने के बाद की पहली बड़ी परीक्षा है. ज़ाहिर है केन्द्रीय नेतृत्व पर कई तरह के दबाव हैं. चार-पाँच साल से लगातार हार का सामना कर रही पार्टी ने पंजाब के बाद इन तीन राज्यों में जीत का मुँह देखा है. कार्यकर्ताओं की उम्मीदें भी बढ़ी हुईं हैं और उनके सब्र का बाँध टूट रहा है.
उधर राहुल गांधी कुछ अभिनव प्रयोग कर रहे हैं, जिनके परिणाम क्या होंगे, पता नहीं. मसलन उन्होंने इंटरनेट आधारित 'शक्ति एप' के जरिए कार्यकर्ताओं से राय लेना शुरू किया है. पिछले दो-तीन दिन से रिकॉर्डेड मैसेज के जरिए कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित करके उनकी राय ली गई है. इस डिजिटल विचार-संकलन का विश्लेषण कौन कर रहा है और इसके आधार पर फैसले किस तरह हो रहे हैं, पता नहीं. इस सिलसिले में 2014 के चुनाव का जिक्र करना जरूरी है. पिछले लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि आम आदमी पार्टी की तर्ज पर प्रत्याशियों के चयन के लिए कार्यकर्ताओं की राय ली जाएगी. अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों की प्राइमरीज की पद्धति पर कुछ चुनींदा क्षेत्रों में प्रयोगात्मक तौर पर यह व्यवस्था शुरू की गई. इसका परिणाम था नए किस्म की सिर-फुटौवल. अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ता एक-दूसरे से भिड़ गए. तकरीबन वैसा ही अब फिर हो रहा है.   
इन पंक्तियों के प्रकाशन तक नेतृत्व को लेकर गर्द-गुबार साफ हो चुका होगा. पदों के वितरण की अब चुनौती खड़ी होगी. कार्यकर्ताओं का पेट भरने के बाद इन तीन राज्यों में पार्टी की भावी दशा-दिशा का सवाल खड़ा होगा. सन 2019 के चुनाव के लिए ये राज्य कांग्रेस की आधार-भूमि बनेंगे. यह आसान काम नहीं है, इसमें जोखिम है. जरा सी चूक होने पर कहानी पलट भी सकती है. अगले चार महीनों का परिदृश्य भविष्य की कहानी लिखेगा. बीजेपी अब जवाबी हमले करेगी. उसने अपने अनुषंगी संगठनों की बैठकें बुलाईं हैं. इनमें किसान और श्रमिक संगठनों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण हैं.
तीनों राज्यों में ग्रामीण-असंतोष और बेरोजगारी को कांग्रेस ने जोरदार तरीके से उठाया था. राज्य कर्मचारियों, शिक्षकों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के सवाल भी उठाए गए. इन वर्गों को खुश करने की जिम्मेदारी इन सरकारों के पास आई है. पार्टी कह सकती है कि उसके पास जादू की छड़ी नहीं है और समाधान होने में कुछ समय लगेगा, पर लोकसभा चुनाव सिर पर हैं. कांग्रेस ने कुछ मामलों में फौरन कार्रवाई करने का वचन दिया है. तीनों राज्यों में किसानों के कर्जों की माफी का वचन है. राहुल गांधी का वह बयान वायरल हुआ है, जिसमें उन्होंने कहा है कि दस दिन में किसानों के कर्जे माफ नहीं तो मुख्यमंत्री साफ.
किसानों की कर्ज-माफी और अनाज का लाभकारी समर्थन मूल्य फौरी तौर पर सफलता के कांग्रेसी मंत्र हैं, पर दोनों मसले सरकारों को फंदे में फँसाने वाले हैं. मसलन हाल में जिन सरकारों ने कर्ज-माफी की योजनाएं बनाईं हैं, उनके सामने कई तरह की चुनौतियाँ सामने आईं. सबसे बड़ी चुनौती वित्तीय-व्यवस्था की है. दूसरी चुनौती यह तय करने की है कि किसके, कितने और किस संस्था से जुड़े कर्जे माफ हों. मसलन उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र ने कर्जों की सीमा तय की है. यह भी कि किस कोटि के किसान कर्ज-माफी के पात्र होंगे.
इन सब बातों को तय करने में महीनों लगेंगे. दस दिन में सिर्फ घोषणा की जा सकती है. लोकसभा चुनाव के पहले कर्ज-माफी आसान नहीं है. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने किसानों को धान का समर्थन मूल्य 2500 रुपये प्रति क्विंटल देने का वादा किया है, जबकि 2013 के चुनाव में बीजेपी ने 2100 रुपये का वादा किया था, जो पूरा नहीं हो पाया. कांग्रेस सरकार को 2500 रुपये देने के लिए करीब 3750 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था करनी होगी. ऐसे ही तमाम सवाल मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी हैं, जहाँ विधानसभा में विपक्ष काफी मजबूत है. इन चुनौतियों का सामना तभी हो पाएगा, जब कांग्रेस अंदरूनी चुनौतियों से पार पाएगी.  inext में प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/1937629/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/15-12-18#page/8/1

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (16-12-2018) को "समझौता" (चर्चा अंक-3187) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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