मल्लिकार्जुन खड़गे की जीत को लेकर शायद ही किसी को संदेह रहा हो, पर असली सवाल है कि इस चुनाव से कांग्रेस की समस्याओं का समाधान होगा या नहीं? इस सिलसिले में दो तरह की तात्कालिक प्रतिक्रियाएं हैं। पहली यह कि खड़गे ने सिर पर काँटों का ताज पहन लिया है और उनके सामने समस्याओं के पहाड़ हैं, जिनका समाधान गांधी परिवार नहीं कर पाया, तो वे क्या करेंगे? दूसरी तरफ कुछ संजीदा राजनीति-शास्त्री मानते हैं कि यह चुनाव केवल कांग्रेस पार्टी के लिए ही युगांतरकारी साबित नहीं होगा, बल्कि इससे दूसरे दलों के आंतरिक लोकतंत्र की संभावनाएं बढ़ेंगी। फिलहाल कांग्रेस की सारी समस्याओं के समाधान नहीं निकलें, पर पार्टी के पुनरोदय के रास्ते खुलेंगे और एक नई शुरुआत होगी।
अंदेशे और सवाल
करीब 24 साल बाद कांग्रेस की कमान किसी गैर-गांधी
के हाथ में आई है। पर जिस बदलाव की आशा पार्टी के भीतर और बाहर से की जा रही है,
वह केवल इतनी ही नहीं है। इसे बदलाव का प्रस्थान-बिंदु माना जा सकता है, पर केवल
इतना ही, क्योंकि सवाल कई हैं? इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है ‘हाईकमान
से आशीर्वाद प्राप्त प्रत्याशी’ का होना। उसके पीछे सबसे बड़ा सवाल है
कि अब हाईकमान के मायने क्या होंगे? पिछले कुछ वर्षों के घटनाक्रम से यह
बात रेखांकित हो रही है कि पार्टी में कोई धुरी नहीं है और है भी तो कमज़ोर है। अब
नए अध्यक्ष की भूमिका क्या होगी, कितनी उसकी चलेगी और कितनी परिवार की, जिसे
हाईकमान कहा जाता है? और
अध्यक्ष के रहते क्या कोई हाईकमान भी होगी? सबसे बड़ा सवाल है कि गैर-गांधी अध्यक्ष खुद कब तक चलेगा? बात
केवल अध्यक्ष के पदस्थापित होने तक है या पार्टी के भीतर वैचारिक और संगठनात्मक
सुधारों की कोई योजना भी है?
चुनौतियों के
पहाड़
मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने चुनौतियों के पहाड़ हैं और समय कम है। समय से आशय है 2024 का लोकसभा चुनाव। यह बदलाव मई 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के फौरन बाद हो गया होता, तब भी बात थी। नए अध्यक्ष को अपना काम करने का मौका मिल गया होता। पता नहीं उस स्थिति में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ होती या कुछ और होता। पंजाब में कांग्रेस हारती या नहीं हारती वगैरह-वगैरह। खड़गे के पास अब समय नहीं है। लोकसभा चुनाव के लिए डेढ़ साल का समय बचा है। उसके पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद को भी जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं, जिनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य शामिल हैं। हिमाचल और गुजरात के चुनाव तो सामने खड़े हैं और फिर 2023 में उनके गृह राज्य कर्नाटक के चुनाव हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव हैं, मई में कर्नाटक के और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के। राजस्थान में अशोक गहलोत प्रकरण अभी अनसुलझा है। भले ही खड़गे पार्टी अध्यक्ष हैं, पर कम से कम इस मामले में परिवार की सलाह काम करेगी।
बैकसीट ड्राइविंग
खड़गे सौम्य और अनुभवी नेता हैं, पर पार्टी
अध्यक्ष के रूप में उनके व्यक्तित्व की परीक्षा होगी। क्या वे सबको अपने साथ ले
जाने में कामयाब होंगे? अगला सवाल है कि क्या पार्टी में सत्ता के दो
केंद्र होंगे? क्या गांधी परिवार ‘बैक सीट
ड्राइविंग’ करेगा? बहरहाल
राहुल गांधी ने हाल में कहा है कि पार्टी अध्यक्ष सुप्रीम होगा। इसे सुनिश्चित
करने की जिम्मेदारी भी अप परिवार पर ही है। खड़गे के सामने सबसे बड़ी चुनौती है,
पार्टी का पूर्ण रूपांतरण और जनता से जुड़ाव। अपने राज्य कर्नाटक में क्या वे पूर्व
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार को जोड़कर पार्टी के लिए
काम करने को राजी करा पाएंगे? राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल, पंजाब
और दूसरे राज्यों में पार्टी के भीतर अलग-अलग गुट बने हुए हैं। क्या वे उनके बीच
एकता कायम कर पाएंगे?
विचारधारा
खड़गे के साथ
सकारात्मक बात यह है कि आम कार्यकर्ता के लिए सोनिया या राहुल गांधी की तुलना में
उनके दरवाजे आसानी से खुल सकते हैं। पर क्या वे इतने समर्थ होंगे कि पार्टी की इमेज को पूरी तरह बदल दें? पार्टी
आज भी पुराने तौर-तरीकों से चल रही है। उसे अब केवल स्वतंत्रता आंदोलन की यादों के
सहारे चलाना आसान नहीं है, बल्कि भविष्योन्मुखी बनाना है, जो भविष्य के भारत की
तस्वीर खींच सके। राहुल गांधी कई बार वामपंथी झुकाव का समर्थन कर चुके हैं, पर
क्या पार्टी वामपंथी आर्थिक नीतियों के सहारे बदलाव लाना चाहती है? राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का
लक्ष्य हाशिए के लोगों और छोटे कारोबारियों से जुड़ना है। साथ ही जो बातें दक्षिण
भारत में सफल होती हैं, जरूरी नहीं कि वे उत्तर भारत में भी सफल हों। राजनीतिक
दृष्टि से उत्तर को जीते बगैर दक्षिण में पार्टी सफल नहीं हो सकती।
विरोधी गठबंधन
उत्तर में कांग्रेस की दशा खराब है। वहाँ के
लिए सफल रणनीति तैयार करने की चुनौती सबसे बड़ी है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड
जैसे राज्यों में उन्हें किसी न किसी पार्टी के साथ गठबंधन करना होगा। राष्ट्रीय
स्तर पर भी विरोधी दलों के गठबंधन की बात चल रही है। इससे जुड़ी रणनीति भी एक बड़ी
चुनौती होगी। यूपीए को क्या वे मुख्य विरोधी गठबंधन बनाने में कामयाब होंगे? ज्यादा बड़ा सवाल है कि कांग्रेस इस एकता की धुरी में होगी या परिधि
में? विफलताओं के बावजूद कांग्रेस के पास राष्ट्रीय
स्तर पर संगठन है, जो उसकी ताकत है। पर क्या विरोधी-नेता कांग्रेस के वर्चस्व को
स्वीकार करेंगे? या फिर ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, नीतीश
कुमार, शरद पवार, उद्धव ठाकरे और अखिलेश यादव में से किसी एक को क्या यूपीए का
नेता बनाया जा सकता है? खड़गे
को इन नेताओं के साथ पटरी बैठानी होगी।
संगठनात्मक बदलाव
बाहरी मसलों जितने महत्वपूर्ण आंतरिक मामले भी
हैं। अगला बड़ा फैसला कांग्रेस कार्यसमिति के गठन से जुड़ा होगा। पार्टी ने घोषणा
की है कि कार्यसमिति के 25 सदस्यों में से 12 का चुनाव होगा। पार्टी संविधान के
अनुसार पार्टी के अध्यक्ष और कांग्रेस संसदीय दल के नेता के अलावा 23 अन्य सदस्य
कार्यसमिति में होते हैं। इनमें 12 चुनाव के माध्यम से आने चाहिए। अभी तक सभी
सदस्य मनोनीत हैं। जी-23 ने भी चुनाव की माँग की थी। चुने हुए प्रतिनिधियों के आने
के बाद कार्यसमिति के फैसलों का आधार बढ़ जाएगा, पर पुराना अनुभव है कि चुनाव की
वजह से खींचतान बढ़ती है। संयोग है कि कार्यसमिति के चुनाव1992 और 1997 में हुए
थे, जब गैर-गांधी पार्टी अध्यक्ष थे। पार्टी के संसदीय बोर्ड के पुनरुद्धार और
लोकसभा तथा विधानसभा के प्रत्याशियों के टिकट वितरण के लिए केंद्रीय चुनाव आयोग के
गठन की माँग भी जी-23 ने की थी। पार्टी ने उदयपुर में तय किया है कि 50 वर्ष से कम
के युवाओं को नेतृत्व का हिस्सा बनाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए और ‘एक परिवार, एक पद’ के सिद्धांत को और एक पद पर बने रहने के
लिए पाँच वर्ष की सीमा को लागू किया जाए। इन बातों को देखते हुए लगता है कि खड़गे
कि सिर पर काँटों का ताज है, पर उनके अनुभव और व्यक्तित्व को देखकर लगता है कि वे इन्हें
पूरा कर सकते हैं।
शशि थरूर का उदय
कांग्रेस में शशि थरूर 2009 में शामिल हुए थे। इस
लिहाज से वे नए नेता हैं। इस चुनाव में वे हार जरूर गए हैं, पर महत्वपूर्ण नेता
बनकर उभरे हैं। उन्हें मिले 1,072 वोट भले ही बहुत ज्यादा नहीं हैं, पर इतने कम भी
नहीं कि उनकी अनदेखी की जाए। 1997 में हुए पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में सीताराम
केसरी के खिलाफ शरद पवार को 882 और राजेश पायलट को 354 वोट मिले थे। इसके बाद 2000
में सोनिया गांधी के मुकाबले जितेंद्र प्रसाद को 94 वोट मिले थे। चुनाव प्रचार के
दौरान खबरें थीं कि किसी स्तर पर कार्यकर्ताओं पर दबाव था कि वे खड़गे को वोट दें।
साफ है कि पार्टी के 12 फीसदी के आसपास कार्यकर्ताओं ने दबाव का सामना भी किया और
वे बदलाव चाहते हैं। यह पूरी तरह स्पष्ट था कि खड़गे हाईकमान के प्रत्याशी हैं।
शशि थरूर ने इस बात को स्थापित किया कि वे परिवार के प्रभामंडल से बाहर रहते हुए
भी कांग्रेस के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता बने रह सकते हैं। उनकी बातों को अब ज्यादा
गौर से सुना जाएगा। खड़गे की समझदारी अब इस बात में है कि वे थरूर को कार्यसमिति
में शामिल करें। पर्यवेक्षक मानते हैं कि लोकसभा में कांग्रेस के नेता के रूप में अधीर
रंजन चौधरी की तुलना में शशि थरूर बेहतर साबित होंगे।
सकारात्मक बयार
पार्टी अध्यक्ष के
चुनाव और राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से पार्टी के भीतर बदलाव की सकारात्मक
बयार जरूर चलेगी। यह कितनी तेज होगी और इसका राष्ट्रीय राजनीति पर कितना असर होगा,
इसका अनुमान आज लगाना मुश्किल है, पर किसी न किसी स्तर पर लाभ होगा। आंतरिक
लोकतंत्र का सृजन फिलहाल सबसे बड़ी उपलब्धि है। पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को
किस तरह काम करना चाहिए, यह हम ब्रिटेन के कंजर्वेटिव पार्टी में आए दिन हो रहे
नेतृत्व परिवर्तन में देख सकते हैं। बेशक लिज़ ट्रस को केवल 45 दिन में ही हटना
पड़ा, पर इससे पार्टी टूटी या बिखरी नहीं है। वह नए नेता को चुनने की प्रक्रिया
चला रही है। बहरहाल देखना होगा कि कांग्रेस पार्टी ‘परिवार और लोकतंत्र का संतुलन’ किस प्रकार बैठाती है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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