अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पाकिस्तान को दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक बताया है. बाइडन ने इस साल हो रहे मध्यावधि चुनाव के सिलसिले में अपनी पार्टी के लिए हुए एक धन-संग्रह कार्यक्रम में कहा, मुझे लगता है कि शायद (अंग्रेजी में मे बी) पाकिस्तान दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक है. एक ग़ैर-ज़िम्मेदार देश के पास परमाणु हथियार हैं.
बाइडन के इस बयान पर पाकिस्तान में तो तीखी प्रतिक्रिया हुई है, भारत में भी लोगों ने इसका मतलब लगाने की कोशिश की है. कुछ दिन पहले लग रहा था कि अमेरिका फिर से पाकिस्तान की तरफदारी कर रहा है. ऐसे में यू-टर्न क्यों? वह भी ऐसे मौके पर जब पाकिस्तान सरकार उसके साथ अपने रिश्ते सुधारना चाहती है.
इमरान खान का तो आरोप ही यही है कि शहबाज़ शरीफ की ‘इंपोर्टेड’ सरकार है. दूसरी तरफ देखना यह भी होगा कि अमेरिका धीरे-धीरे पाकिस्तान की तकलीफों को कम कर रहा है. उसे आईएमएफ से कर्ज मिलने लगा है, इस हफ्ते एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से भी उसके बाहर निकलने की आशा है.
भौगोलिक स्थिति के कारण अमेरिका की दिलचस्पी
पाकिस्तान को अपने साथ जोड़कर रखने में है. पर पाकिस्तान के साथ विसंगतियाँ जुड़ी
हैं. उसे ‘खतरनाक देश’ बताकर बाइडन इस विसंगति की ओर ही इशारा कर रहे हैं. उसके एक हाथ में एटम बम
का बटन है, और दूसरा हाथ ‘बेकाबू राजनीति’ से पंजे लड़ा रहा है.
राजनीतिक बयान?
बाइडन ने चुनाव-अभियान के दौरान यह बात कही है.
इसका मतलब क्या है? क्या अमेरिकी मतदाता की दिलचस्पी ऐसे बयानों
में है? या बाइडन ने भारत की नाराज़गी को कम करने की
कोशिश की है? या इसका भारत से कोई संबंध नहीं है?
इस महीने के शुरू में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष
जनरल क़मर जावेद बाजवा का अमेरिका में भव्य स्वागत किया गया था. अमेरिका के
रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन के आमंत्रण पर जनरल बाजवा अमेरिका गए थे और उनका उसी
प्रकार स्वागत हुआ, जैसा अप्रेल के महीने में भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का
हुआ था.
बाइडन के बयान को पढ़ने के लिए जनरल बाजवा की
यात्रा के उद्देश्य को भी समझना होगा. लगता है कि यह यात्रा भू-राजनीति के बजाय
पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति से जुड़ी है, जिसमें जनरल बाजवा और सेना की भूमिका
है.
सेना की भूमिका
पाकिस्तान की सेना के भीतर राष्ट्रीय राजनीति
और अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर दो तरह के विचार हैं. जनरल बाजवा का कार्यकाल
हालांकि अब एक महीने का ही बचा है, पर लगता है कि सेना के भीतर उनकी पकड़ अच्छी
है. वे कई बार कह चुके हैं कि सेना अब राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेगी.
इसमें दो राय नहीं कि 2018 के चुनाव में वहाँ
की सेना ने भूमिका अदा की थी और इमरान खान को गद्दी पर बैठाया. इमरान खान ने न
केवल राजनीति में, बल्कि सेना के भीतर भी कुछ बुनियादी पेच पैदा कर दिए हैं,
जिन्हें लेकर अमेरिका परेशान है.
चीन के प्रभाव में इमरान खान ने रूस के साथ
रिश्तों को सुधारने की कोशिश भी की थी. यूक्रेन पर हमले के ठीक पहले इमरान खान
मॉस्को में थे. पाकिस्तान की वर्तमान सरकार ने अमेरिका से रिश्ते सुधारे जरूर हैं,
पर चीन के साथ उसके रिश्ते बदस्तूर हैं.
चीन का मुकाबला
अमेरिका को लग रहा है कि पाकिस्तान का झुकावचीन की ओर बढ़ रहा है, जिसे रोकने के लिए वह पाकिस्तान को एक तरफ खुश करने की कोशिश कर रहा है, वहीं धमका भी रहा है. पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को जिम्मेदार माना था.
पाकिस्तान की राजनीति और सेना में आ रहे बदलाव
को लेकर उसकी दिलचस्पी है. अमेरिका के अलावा जनरल बाजवा के यूके के आंतरिक नेतृत्व
के साथ अच्छे रिश्ते हैं. अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्तों में यूके की महत्वपूर्ण
भूमिका है. रूसी प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटेन ने ही पाकिस्तान को तैयार किया
था.
अब अमेरिका की दिलचस्पी इस इलाके में चीनी
प्रभाव को रोकने में है. चीन को काबू करने में भारत की भूमिका भी है. भारत और रूस
के रिश्तों की पहेली का तोड़ भी अमेरिका खोज नहीं पाया है, पर भारत को लेकर उसकी
चिंता नहीं है. उसे पाकिस्तान की चिंता है.
अमेरिका यह भी जानता है कि पाकिस्तान और चीन के
रिश्ते काफी गहरे हैं. इस बात को अमेरिका पाँच दशक पहले से जानता है. सन 1971 में
अमेरिका ने पाकिस्तान के मार्फत ही चीन से रिश्ते सुधारे थे.
पाकिस्तानी राजनीति
अमेरिका की दिलचस्पी भारत और पाकिस्तान के
रिश्तों को सामान्य बनाने में भी है. तभी पाकिस्तान पर चीनी असर कम होगा. पर यह
काम आसान नहीं है. खासतौर से पाकिस्तान की राजनीति में इतना ज़हर भर दिया गया है
कि उसे कम करना आसान नहीं है.
गत 8 अक्तूबर को पाकिस्तान के विदेशमंत्री
बिलावल भुट्टो और जर्मन विदेशमंत्री एनालीना बेयरबॉक की प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जर्मनी
की विदेशमंत्री ने कहा, कश्मीर को लेकर जर्मनी की भूमिका और ज़िम्मेदारी भी है.
उनके साथ मौजूद पाकिस्तान के विदेश मंत्री
बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने भारत पर कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाया.
इन बयानों को लेकर भारत सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी.
अमेरिकी इशारे यों ही नहीं थे. गत 3 अक्तूबर को
पाकिस्तान में अमेरिका के राजदूत डोनाल्ड ब्लोम ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की
यात्रा की और उस इलाके को उन्होंने ‘आज़ाद कश्मीर’ के
नाम से पुकारा. उन्होंने यह भी कहा कि पिछले 75
वर्षों में पाकिस्तान को जब भी जरूरत पड़ी है अमेरिका ने हाथ बढ़ाकर मदद की है.
जयशंकर के बयान
भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने हाल में अपनी
अमेरिका-यात्रा के दौरान मीठी बातों के साथ कुछ कड़वी बातें भी कही थीं.
विश्लेषकों को लगता है कि वे बातें अनायास नहीं थीं. पृष्ठभूमि में जरूर कुछ चल
रहा है.
यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर भारतीय नीति से अप्रसन्न
अमेरिका और यूरोप के देशों की प्रतिक्रियाओं को पढ़ने की कोशिशें चल ही रही हैं कि
बाइडन का ताज़ा बयान आ गया. जयशंकर की अमेरिका यात्रा के पहले अमेरिका ने
पाकिस्तान को एफ-16 विमानों के लिए उपकरणों की आपूर्ति के लिए 45 करोड़ डॉलर की
सहायता को मंज़ूरी दी थी.
अमेरिका और जर्मन सरकारों की प्रतिक्रियाओं को
लेकर भारतीय विदेशमंत्री ने सोमवार 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता
को दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है पश्चिमी देशों की
नीति. पश्चिमी देशों ने दक्षिण एशिया में एक सैनिक
तानाशाही को सहयोगी बनाया था.
दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार
नहीं देता था. हालांकि, जयशंकर
ने पाकिस्तान का नाम नहीं लिया, लेकिन साफ़ है कि उनका संकेत पाकिस्तान
की ओर था.
भारत की भूमिका
अमेरिकी राष्ट्रपति के बयानों को पढें, तो
पाएंगे कि वे भारत की भूमिका से इनकार नहीं करते हैं. संरा महासभा के भाषण में इस
साल उन्होंने सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की संख्या का मामला भी उठाया, जो
प्रकारांतर से भारत का समर्थन था. पर उनकी अपनी भी राजनीति है.
फ़ंड जुटाने के कार्यक्रम में राष्ट्रपति बाइडन
ने दुनिया भर में लोकतंत्र के ख़तरे और बढ़ती निरंकुशता पर भी अपनी बात कही. इसमें
भारत की ओर भी इशारा है. डेमोक्रेटिक पार्टी भारत की आलोचक है.
हाल में व्लादिमीर पुतिन की धमकियों के सिलसिले
में उन्होंने कहा, 1946 के बाद से दुनिया में शांति बनी रही है, पर आज की दुनिया
बदल रही है. क्यूबा मिसाइल संकट के बाद एक रूसी नेता परमाणु हथियारों की धमकी दे
रहा है. क्या किसी ने सोचा होगा कि रूस, भारत और
पाकिस्तान के मामले में चीन बड़ी भूमिका निभाएगा?
अमेरिका की वापसी
बाइडेन ने वैश्विक-परिस्थितियों पर काफी
विस्तार से अपनी बातें कही हैं. वस्तुतः 2020 का चुनाव जीतने के बाद बाइडन ने 4
फरवरी, 2021 को अपने विदेशमंत्री और विदेश विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच जो
पहला बयान दिया था, उसका लब्बो-लुबाव था कि अमेरिका एकबार
फिर से अपनी वैश्विक-भूमिकाएं निभाने आ रहा है.
बाइडेन ने कहा था, ‘अमेरिका
इज़ बैक, हमारी विदेश-नीति के केंद्र में डिप्लोमेसी की
वापसी हो रही है।’ उनके पहले ट्रंप प्रशासन एकतरफा ढंग से कदम उठाने में यकीन करता
था। सिरफिरे ट्रंप के मुकाबले वे ज्यादा संतुलित व्यक्ति हैं, पर अमेरिका के हितों में बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है.
बाइडन ने अपने वक्तव्य में कनाडा, मैक्सिको, यूके, जर्मनी,
फ्रांस, नेटो, जापान,
दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया को मित्र देश बताया था. ये देश अमेरिका
के परंपरागत मित्र हैं और उसके साथ कई तरह की संधियों से जुड़े हैं. उन्होंने अपने
कुछ प्रतिस्पर्धियों के नाम भी लिए.
प्रतिस्पर्धी चीन
चीन का उल्लेख उन्होंने पाँच बार किया और उसे
अमेरिका का ‘सबसे गंभीर प्रतिस्पर्धी’ बताया. रूस का नाम आठ बार लिया और उसे
‘अमेरिकी लोकतंत्र को नष्ट करने पर उतारू देश’ बताया था.
चीन से निपटने के लिए भारत का साथ जरूरी है. अमेरिका
और भारत के रिश्ते अच्छे और नई वैश्विक-व्यवस्था के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं. उनमें
सुधार होता ही रहेगा.
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को 'मंज़र वही पर रौनक़े-महफ़िल नहीं है' (चर्चा अंक 4581 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 2:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
सुन्दर जानकारी
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण
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