अंततः ब्रिटेन की कंज़र्वेटिव पार्टी ने ऋषि सुनक को अगले प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार कर लिया. वे भारतीय मूल के पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री होंगे. संभवतः आज मंगलवार को वे अपना पद संभाल लेंगे. वे प्रधानमंत्री बन गए हैं, पर यह काँटों का ताज है.
उनके सामने कई मुश्किल चुनौतियां और सवाल हैं,
जिनमें सबसे मुश्किल है ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था. ब्रिटेन ग़रीब होता जा रहा है और
देश की जनता इसे महसूस कर रही है. उधर करीब 45 दिन के लिए प्रधानमंत्री रहीं लिज़
ट्रस के प्रशासन के दौरान देश के वित्तीय बाजार में जो तूफान आया, उससे मुसीबतें
और बढ़ गई हैं.
आर्थिक असंतुलन
ब्रिटेन के सामने आयात
पर बढ़ते बोझ और निर्यात से घटती आय के कारण पैदा हो रहे असंतुलन का खतरा है. यह
संकट कोविड और यूक्रेन युद्ध के अलावा ब्रेक्ज़िट के कारण पैदा हुई परिस्थितियों
के कारण है। देश में खुदरा मुद्रास्फीति 13 प्रतिशत से
ऊपर चली गई है.
मंदी का खतरा पैदा हो
गया है. इन सब बातों का प्रभाव आम लोगों की आय पर पड़ रहा है. सरकारी राजस्व घट
रहा है, जिसकी वजह से कर्ज बढ़ेगा. पहली चुनौती है कि इस तेज गिरावट को रोका जाए.
सुनक से इस बात की उम्मीद नहीं है कि वे व्यवस्था का पूर्ण-रूपांतरण कर देंगे, पर
यदि वे गिरावट को रोककर स्थिरता कायम कर पाएं, तब उनकी बड़ी सफलता होगी.
फिलहाल उन्हें
नेतागिरी की दौड़ में सफलता मिली है, पर असली सफलता आर्थिक मोर्चे पर होगी. वे
पब्लिक फाइनेंस के विशेषज्ञ हैं और सबसे बड़ी बात है कि उनकी पार्टी के सांसदों के
बहुमत को उनपर भरोसा है.
राजनीतिक
चुनौती
असली चुनौती टोरी पार्टी की इज्जत बचाने की है. लेबर पार्टी का ग्राफ फिर से चढ़ने लगा है. इन दिनों देश में लोकप्रियता के जो सर्वे हो रहे हैं, उनमें लेबर नेता सर कीर स्टार्मर के वोट बढ़ते जा रहे हैं. हालांकि देश में जनवरी 2025 से पहले चुनाव की संभावना नहीं है, पर सुनक सफल रहे, तो वे उससे पहले भी चुनाव कराने के बारे में सोच सकते हैं.
संभव है कि वे गिरते
हालात को सुधार लें. ऐसा हुआ, तो राजनीतिक दृष्टि से भी वे सफल माने जाएंगे.
बहरहाल उन्होंने ओखली में सिर रख दिया है, परिणाम क्या होता है, इसे देखना है. ब्रिटेन में कोशिश हो रही है कि
चुनाव समय से ही हों, पर पिछले एक दशक में परिस्थितियाँ इतनी तेजी से बदली हैं कि
समय से पहले चुनाव कराने पड़ रहे हैं.
भारतीय मूल
हालांकि ब्रिटेन में एशियाई मूल के लोगों की
तादाद बढ़ती जा रही है, फिर भी बड़ी संख्या में गोरों के लिए एक अश्वेत के हाथ में
शासन की बागडोर देना असहनीय है. पर सुनक की पृष्ठभूमि भी काफी मजबूत है. वे बोरिस
जॉनसन कैबिनेट में वित्तमंत्री थे.
1980 में उनका जन्म हैंपशर के साउथहैम्टन में
हुआ था और उनकी पढ़ाई देश के सबसे महंगे प्राइवेट स्कूल विंचेस्टर कॉलेज में हुई.
इसके बाद वे ऑक्सफ़ोर्ड पढ़ाई के लिए गए, जहाँ उन्होंने
दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने
स्टैनफ़र्ड विश्वविद्यालय में एमबीए की पढ़ाई भी की.
राजनीति में प्रवेश करने से पहले उन्होंने
इन्वेस्टमेंट बैंक गोल्डमैन सैक्स में काम किया और एक निवेश फ़र्म को भी स्थापित
किया. ब्रिटेन की वर्तमान समस्याओं को समझने के लिए ब्रेक्ज़िट को भी समझना होगा. 23
जून, 2016: यूके में हुए जनमत संग्रह में 51.9 फीसदी
वोटरों ने ईयू से हटने के पक्ष में फैसला सुनाया. इसे ब्रेक्जिट कहते हैं.
ब्रेक्जिट-प्रभाव
राजनीतिक दृष्टि से सन 1997 से 2010 तक के लेबर
शासन के दौरान ब्रिटेन और यूरोपीय संघ का एक-दूसरे पर आश्रय बढ़ा था. मास्ट्रिख्ट
संधि के बाद सन 1993 में यूरोपीय संघ बनने के पहले यूरोपीय समुदाय अलग-अलग
क्षेत्रों में एकीकरण की प्रक्रिया चला रहा था.
जब 2010 में डेविड केमरन के नेतृत्व में
कंजर्वेटिव पार्टी फिर से सत्ता में आई, तब यूरोपीय संघ
से अलग होने की माँग फिर से उठने लगी. वैश्वीकरण के दौर में यूरोप के एकीकरण के
विरुद्ध इस विपरीत-धारा ने कई तरह की विसंगतियों को जन्म दिया है. ब्रिटेन का
वर्तमान घटनाचक्र उसी विसंगति की देन है.
केमरन को इस माँग की अव्यावहारिकता का अंदाज था.
जब 2015 में वे फिर से चुनकर आए तो यह बात फिर उठी. इसे एक नया मोड़ देने या टालने
के इरादे से उन्होंने इस विषय पर जनमत संग्रह कराने का फैसला कर लिया.
सन 2016 की गर्मियों में जनमत संग्रह हो गया और
मामूली अंतर से यूरोपीय संघ से अलग होने यानी ब्रेक्जिट का फैसला हो गया. फैसले के
होते ही केमरन ने इस्तीफा दे दिया और उसके बाद टेरेसा में प्रधानमंत्री बनीं.
ब्रेक्ज़िट समर्थक सुनक
ब्रेक्जिट को लागू कराने की एक अलग कहानी है,
फिलहाल इतना समझ लीजिए कि सुनक ने यूरोपियन यूनियन को लेकर हुए जनमत संग्रह में
इसे छोड़ने यानी ब्रेक्ज़िट के पक्ष में प्रचार किया था और उनके संसदीय क्षेत्र
में यूरोपियन यूनियन छोड़ने के पक्ष में 55 फ़ीसदी लोगों ने मतदान किया था.
ब्रेक्जिट की प्रक्रिया के दौरान जुलाई 2019
में तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने सुनक को वित्त मंत्रालय सौंपा था. पर
बिगड़ते हालात के मद्देनज़र जॉनसन की वित्तीय नीतियों का उन्होंने विरोध किया. अंततः
जॉनसन को हटना पड़ा और प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में वे भी शामिल हो गए.
लिज़ ट्रस की विफलता
पिछली 5 सितंबर को सुनक को पछाड़कर लिज़ ट्रस
कंज़र्वेटिव पार्टी की नेता बनीं. लिज़ ट्रस इस लुभावने आश्वासन के साथ आई थीं कि
वे टैक्स में कटौती करेंगी, पर वे उसे पूरा कर नहीं पाईं. 23 सितंबर को
वित्तमंत्री क्वाज़ी क्वार्टेंग ने 'मिनी बजट'
की घोषणा की जिसमें 45 अरब पाउंड की टैक्स कटौती के बारे में कहा गया
था.
इस घोषणा से बाज़ार में अस्थिरता फैल गई. डॉलर
के मुक़ाबले पाउंड अपने न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया. इस दौरान सरकार ने कभी टैक्स कटौती
कभी वापसी के फैसले किए और अंततः वित्तमंत्री क्वार्टेंग को बर्खास्त कर दिया गया.
जेरेमी हंट वित्तमंत्री बने. उधर सरकार के कामकाज को लेकर गृहमंत्री सुएला
ब्रेवरमैन ने इस्तीफ़ा दे दिया.
असमंजस
असमंजस की उस घड़ी में प्रधानमंत्री ट्रस ने 20
अक्तूबर को हथियार डाल दिए. ऋषि सुनक टैक्स में भारी कटौती के खिलाफ थे, पर लिज़
ट्रस ने उनकी बात नहीं सुनी. और अब सुनक के सामने चुनौती है कि अर्थव्यवस्था को
किस प्रकार संभालेंगे. उनके प्रधानमंत्री बनने की घोषणा होते ही ब्रिटिश बॉण्ड की
कीमतों में तेजी आई थी, पर कुछ समय बाद वह वापस अपनी जगह आ गई.
सुनक काबिल अर्थशास्त्री हैं. शायद वे हालात को
संभाल लें, पर क्या ब्रिटिश राजनीति उन्हें सहारा देगी? क्या एक अश्वेत नेता गोरों के देश की
अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाएगा? इन सवालों के जवाब का
इंतजार आपको और हमें करना होगा.
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