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Monday, December 30, 2019

एसपीजी सुरक्षा को लेकर निरर्थक राजनीतिक विवाद


हमारे देश में राजनेताओं की हैसियत का पता उनके आसपास के सुरक्षा घेरे से लगता है। एक समय था, जब देश में बड़े से बड़े राजनेता और जनता के बीच दूरियाँ नहीं होती थीं, पर अस्सी के दशक में आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ने के बाद नेताओं तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा के बारे में सोचा जाने लगा और उसके लिए विशेष सुरक्षा बल गठित किए गए। यह सब सहज भाव से हुआ था, पर सुरक्षा के अनेक प्रकार के घेरों के कारण यह रुतबे और रसूख का प्रतीक बन गया। राजनेताओं की ऐसी जमात तैयार हो गई, जिन पर खतरा हो या न हो, उन्हें सुरक्षा चाहिए। ऐसे अनेक मौके आए, जब राजनेताओं ने माँग की कि हमें अमुक प्रकार की सुरक्षा दी जाए।
सन 2007 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से कहा कि मुझे भी खतरा है, मुझे भी विशेष संरक्षा समूह यानी एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्‍शन ग्रुप) की सुरक्षा दी जाए। यह माँग उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से बाकायदा औपचारिक तरीके से की गई थी। इसे लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच विचार-विमर्श के कई दौर चले और अंततः जनवरी 2008 में केंद्र सरकार ने औपचारिक रूप से उत्तर प्रदेश को सूचित किया कि एसपीजी सुरक्षा केवल वर्तमान प्रधानमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्रियों तथा उनके निकटवर्ती पारिवारिक सदस्यों को ही दी जाती है। कानूनन यह सम्भव नहीं है।

Sunday, December 29, 2019

विदेशमंत्री जयशंकर ने अमेरिका में क्यों की प्रमिला जयपाल की अनदेखी?


नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जितनी लहरें देश में उठ रही हैं, तकरीबन उतनी ही विदेश में भी उठी हैं। भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की स्थिति को लेकर कई तरह के सवाल हैं। इस सिलसिले में अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने से लेकर पूरे जम्मू-कश्मीर में संचार-संपर्क पर लगी रोक और अब नागरिकता कानून के विरोध में शिक्षा संस्थानों तथा कई शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों की गूँज विदेश में भी सुनाई पड़ी है। गत 18 से 21 दिसंबर के बीच क्वालालम्पुर में इस्लामिक देशों का शिखर सम्मेलन अपने अंतर्विरोधों का शिकार न हुआ होता, तो शायद भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सुर्खियाँ बन चुकी होतीं।
हुआ क्या था?
सवाल यह है कि भारत अपनी छवि को सुधारने के लिए राजनयिक स्तर पर कर क्या कर रहा है? यह सवाल भारत में नहीं अमेरिका में उठाया गया है। भारत और अमेरिका के बीच ‘टू प्लस टू’ श्रृंखला की बातचीत के सिलसिले में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और विदेशमंत्री एस जयशंकर अमेरिका गए हुए थे। गत 18 अक्तूबर को दोनों देशों ने इसके तहत सामरिक और विदेश-नीति के मुद्दों पर चर्चा की। इसी दौरान जयशंकर ने कई तरह के प्रतिनिधियों से मुलाकातें कीं। इनमें एक मुलाकात संसद की फॉरेन अफेयर्स कमेटी के साथ भी होनी थी, जिसमें डेमोक्रेटिक पार्टी की सांसद प्रमिला जयपाल का नाम भी था।

कांग्रेस के आत्मघात का साल


कांग्रेस पार्टी हर साल 28 दिसंबर को अपना स्थापना दिवस मनाती है। इस साल पार्टी का 135 वाँ जन्मदिन शनिवार को मनाया गया। आज रविवार को पार्टी झारखंड की नई सरकार में शामिल होने जा रही है, पर वह इसका नेतृत्व नहीं कर रही है। इस सरकार के प्रमुख होंगे झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन। जिस पार्टी को देश के राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। झारखंड के नतीजों ने पार्टी का उत्साह बढ़ाया जरूर है, पर भीतर-भीतर पार्टी के भीतर असमंजस है। यह असमंजस इस साल अपने चरम पर जा पहुँचा है।
कांग्रेस के जीवन में यह 134वाँ साल सबसे भारी पराजय का साल रहा है। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। ऐसा संकट पिछले 134 साल में कभी नहीं आया। पाँच साल पहले हमारे सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ था, जो आज भी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है। पार्टी का नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में है। ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि इस साल की हार के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया। यह भी एक प्रकार का संकट है। अभी तक यह तय नहीं है कि पार्टी का भविष्य का नेतृत्व कैसा होगा।

Saturday, December 28, 2019

अपने जन्मदिन पर असमंजस में कांग्रेस


आज 28 दिसंबर को कांग्रेस पार्टी अपना 135 वाँ जन्मदिन मना रही है। जो पार्टी को देश के राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। हालांकि झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पार्टी का उत्साह बढ़ा दिया है, पर सच यह है कि वहाँ वह झारखंड मुक्ति मोर्चा की सहयोगी के रूप में खड़ी है। बहरहाल इस सफलता से उत्साहित पार्टी के नेता कई तरह के दावे कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का पराभव शुरू हो गया है और कांग्रेस की वापसी में ज्यादा देर नहीं है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के अंदेशों से पैदा हुए प्रतिरोधी स्वरों ने पार्टी के उत्साह को और बढ़ाया है। 
हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणाम पार्टी के आत्मविश्वास का आधार बने हैं। ऐसे में पार्टी के एक तबके ने फिर से माँग शुरू कर दी है कि राहुल गांधी को वापस लाओ। यहीं से इस पार्टी के अंतर्विरोधों की कहानी शुरू होती है। पार्टी का सबसे बड़ा एजेंडा आज भी यही है कि किसी तरह से राहुल गांधी को लाओ। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है।

Wednesday, December 25, 2019

चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ से जुड़ी चुनौतियाँ


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल लालकिले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के भाषण में रक्षा-व्यवस्था को लेकर एक बड़ी घोषणा की थी. उन्होंने कहा कि देश के पहले ‘चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस)’ की जल्द नियुक्ति की जाएगी. यह भी कहा कि सीडीएस थल सेना, नौसेना और वायु सेना के बीच तालमेल सुनिश्चित करेगा और उन्हें प्रभावी नेतृत्व देगा. नियुक्ति की वह घड़ी नजदीक आ गई है. मंगलवार को कैबिनेट ने इस पद को अपनी स्वीकृति भी दे दी. इस महीने के अंत में 31 दिसंबर को भारतीय सेना के वर्तमान सह-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मनोज मुकुंद नरवाने वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत से कार्यभार संभालेंगे, जो उस दिन सेवानिवृत्त हो रहे हैं.
इस नियुक्ति के बाद देखना होगा कि तीनों सेनाओं के लिए घोषित शिखर पद सीडीएस के रूप में किसकी नियुक्ति होगी. आमतौर पर इस पद के लिए निवृत्तमान सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का नाम लिया जा रहा है. सीडीएस के रूप में उपयुक्त पात्र का चयन करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अध्यक्षता में एक क्रियान्वयन समिति का गठन किया था. इस समिति ने अपनी सिफारिशें रक्षा मामलों से संबद्ध कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) को सौंप दी हैं.

Monday, December 23, 2019

नागरिकता कानून ने भारत की वैश्विक छवि बिगाड़ी


मोदी सरकार के नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश के कई इलाकों में रोष व्यक्त किया जा रहा है। सामाजिक जीवन में कड़वाहट पैदा हो रही है और कई तरह के अंतर्विरोध जन्म ले रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को लेकर सवाल हैं। इन सबके साथ वैश्विक स्तर पर देश की छवि का सवाल भी जन्म ले रहा है। भारत और भारतीय समाज की उदार, सहिष्णु और बहुलता की संरक्षक छवि को ठेस लगी है। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबे की यात्रा स्थगित होने के बड़े राजनयिक निहितार्थ भले ही न हों, बांग्लादेश और पाकिस्तान की प्रतिक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं और पश्चिमी देशों के मीडिया की प्रतिक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। भारत की उदार और प्रबुद्ध लोकतंत्र की छवि को बनाने में इनकी प्रमुख भूमिका है।
नागरिकता कानून में संशोधन के बाद कुछ अमेरिकी सांसदों ने काफी कड़वी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। राज्यसभा से कानून पास होने के कुछ समय बाद ही अमेरिकी सांसद आंद्रे कार्सन ने बयान जारी करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना की और इस कानून को ड्रैकोनियन बताया और कहा कि इसके कारण भारत में मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक बन जाएंगे। न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, ब्रिटेन के अखबार इंडिपेंडेंट और अल जज़ीरा ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कीं हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के प्रवक्ता ने कहा कि भारत के इस कानून पर संयुक्त राष्ट्र की निगाहें भी हैं। संयुक्त राष्ट्र के कुछ बुनियादी आदर्श हैं और हम मानते हैं कि मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र से प्रतिपादित उद्देश्यों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।

Sunday, December 22, 2019

क्यों डरा रहे हैं मुसलमानों को?


तीन तरह की ताकतें मुसलमानों को डरा रहीं हैं। एक, सत्ता की राजनीति। इसमें दोनों तरह के राजनीतिक दल शामिल हैं। जो सत्ता में हैं और जो सत्ता हासिल करना चाहते हैं। दूसरे, मुसलमानों के बीच अपने नेतृत्व को कायम करने की कोशिश करने वाले लोग। और तीसरे कुछ न्यस्त स्वार्थी तत्व, जिनका हित अराजकता पैदा करने से सधता है। समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने के बाद ये लोग अपनी रोटियाँ सेंकते हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक शुरू हुआ। और अब दिल्ली और उत्तर प्रदेश में एक लहर सी उठी है, जिसमें आधिकारिक रूप से 6 और गैर-सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे कहीं ज्यादा लोगों की मौत हुई है। असम और पूर्वोत्तर के आंदोलनों के पीछे के कारण वही नहीं हैं, जो दिल्ली, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में नजर आ रहे हैं। यह आंदोलन मुसलमानों के मन में भय बैठाकर खड़ा किया गया है। उन्हें भरोसा दिलाने की जरूरत है कि उनका अहित नहीं होगा। पर उन्हें डराया गया है। कहीं न कहीं राजनीतिक ताकतें सक्रिय हैं। क्या वजह है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और मध्य प्रदेश में आंदोलन खड़े नहीं हुए?
भारत के मुसलमानों की हिफाजत की जिम्मेदारी बहुसंख्यक समुदाय की है। उनके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए, पर यह भी देखना होगा कि कोई ताकत है, जो हमें भीतर से कमजोर करना चाहती है। क्या वजह है कि जो आंदोलनकारी नागरिकता संशोधन विधेयक और नागरिकता रजिस्टर के बारे में कुछ नहीं जानते, वे रटी-रटाई बातें बोल रहे हैं कि सीएए+एनआरसी से मुसलमानों को खतरा है। शुक्रवार को दिन में जब मीडिया प्रतिनिधि दिल्ली में जामा मस्जिद के पास जमा भीड़ से बात कर रहे थे, तब लोग कह रहे थे कि 370 हटाया गया, हमसे तीन तलाक छीन लिया गया और बाबरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया। अब हमें निकालने की साजिश की जा रही है।

Saturday, December 21, 2019

सार्वजनिक उद्योगों के पास खाली क्यों पड़ी है इतनी जमीन?


अर्थव्यवस्था को ठीक बनाए रखने और औद्योगिक संवृद्धि को तेज करने के इरादे से सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के विनिवेश  में तेजी लाने का फैसला किया है। इसके साथ-साथ सरकार ने नौ सार्वजनिक उद्योगों की जमीन और भवनों को बेचने का कार्यक्रम भी बनाया है। देश के सार्वजनिक उद्योगों के पास काफी जमीन पड़ी है, जिसका कोई इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। सरकार के पास भी शायद इस बात की पूरी जानकारी भी नहीं है कि कितनी जमीन इन उद्योगों के पास है। अब इस संपदा को बेचने के लिए सरकार वैश्विक कंपनियों की सलाह ले रही है।
कानपुर को औद्योगिक कब्रिस्तान कहा जाता है। आप शहर से गुजरें तो जगह-जगह बंद पड़े परिसर नजर आएंगे। यह जगह कभी गुलज़ार रहा करती थी। शहर के बंद पड़े सार्वजनिक उद्योगों, मुम्बई के वस्त्र उद्योग और बेंगलुरु के एचएमटी इलाके में ऐसी खाली जमीन को देखा जा सकता है। देश के अनेक शहरों में ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं। अक्तूबर 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के पास 13,505 वर्ग किलोमीटर जमीन है। भूमि का यह परिमाण दिल्ली के क्षेत्रफल (1.483 वर्ग किलोमीटर) का नौगुना है। देश के 51 केंद्रीय मंत्रालयों में से 41 और 300 से ऊपर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में से 22 से प्राप्त विवरणों पर यह जानकारी आधारित थी।

Thursday, December 19, 2019

न्याय में विलंब और गैर-जिम्मेदार राजनीति



राजनीतिक दलों को अधिकार है कि वे किसी भी मामले को राजनीतिक नजरिए से देखें, पर सामान्य नैतिकता का तकाज़ा है कि कम से कम बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को वे मानवीय दृष्टि से देखें। हाल के वर्षों में कई बार ऐसा हुआ है, जब बलात्कार को लेकर हुई बहस बेवजह राजनीतिक मोड़ ले लेती है। हाल में उन्नाव कांड पर लोकसभा में चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के साथ दुर्व्यवहार को लेकर कांग्रेस के दो सदस्यों के विरुद्ध प्रस्ताव रखा जाना इस दुखद पहलू का नवीनतम उदाहरण है। इस संबंध में संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने सदन में प्रस्ताव रखा और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा कि वह इस विषय पर न्यायपूर्ण निर्णय करेंगे। कांग्रेस के दो सदस्यों पर केवल दुर्व्यवहार की आरोप ही नहीं था, बल्कि शुक्रवार 6 दिसंबर को आसन की ओर से निर्देश के बावजूद दोनों सदस्यों ने माफी नहीं मांगी।
इस प्रकरण को अलग कर दें, तब भी बलात्कार जैसे प्रकरण पर बहस का रुख अपराध और उसके निराकरण पर होना चाहिए। पूरा देश पहले हैदराबाद और फिर उन्नाव की घटना को लेकर बेहद गुस्से में है। यह गुस्सा अपराधियों और अपराध की ओर केंद्रित होने के बजाय राजनीतिक प्रतिस्पर्धी की ओर होता है, तो ऐसी राजनीति पर शर्म आती है। संसद में गंभीर टिप्पणियों का जवाब गंभीर टिप्पणियों से ही दिया जाना चाहिए। रोष की मर्यादापूर्ण अभिव्यक्ति के लिए भी कोशों में शब्दों की कमी नहीं है। कम से कम ऐसे मौकों पर हमारे स्वर एक होने चाहिए।

Wednesday, December 18, 2019

किसने हाईजैक किया इस छात्र आंदोलन को?


नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक शुरू हुआ और उसने देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है. यह आंदोलन अब देश के दूसरे इलाकों में भी शुरू हो गया है. आंदोलन से जुड़ी, जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनसे इसके दो पहलू उजागर हुए हैं. पहला है कि आगजनी और हिंसा का और दूसरा है पुलिस की  कठोर कार्रवाई का. इस मामले ने भी सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी है. वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तो तैयार है, पर चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने हिंसा को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की और कहा कि हिंसा रुकने पर ही सुनवाई होगी.

छात्रों का कहना है कि हिंसा हमने नहीं की है, बल्कि बाहरी लोग हैं. कौन हैं बाहरी लोग? वे कहाँ से आए हैं और विश्वविद्यालय में उनकी दिलचस्पी क्यों है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में शांतिपूर्ण विरोध हमारा सांविधानिक अधिकार है, पर इस अधिकार का इस्तेमाल सांविधानिक तरीके से ही होना चाहिए. सार्वजनिक परिवहन से जुड़ी बसों और निजी वाहनों को आग लगाना कहाँ का विरोध प्रदर्शन है? उधर ममता बनर्जी कोलकाता में प्रदर्शन कर रहीं हैं. उनके पास भी इस बात की जवाब नहीं है कि ट्रेनों में आग लगाने का काम कौन लोग कर रहे हैं? रेल की पटरियाँ कौन उखाड़ रहा है?  दिल्ली से खबरें मिल रही हैं कि जामिया का आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से ही शुरू हुआ था, पर अचानक यह हिंसक हो गया. किसी ने इसे हाईजैक कर लिया. किसने हाईजैक कर लिया और क्यों?

Tuesday, December 17, 2019

क्या पुलिस को विवि कैम्पस में प्रवेश का अधिकार है?


नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक शुरू हुआ और उसने देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है. यह आंदोलन अब देश के दूसरे इलाकों में भी शुरू हो गया है. रविवार को दिल्ली में कम से कम चार बसें, एक दर्जन कारें और दर्जनों बाइकें स्वाहा होने के बाद सवाल उठे हैं. मंगलवार को दिल्ली के सीलमपुर इलाके में भी करीब-करीब इस हिंसा की पुनरावृत्ति हुई. क्या वजह है इस हिंसा की? सीलमपुर में प्रदर्शन क्यों हुआ? आंदोलन से जुड़ी, जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनसे इसके दो पहलू उजागर हुए हैं. पहला है कि आगजनी और हिंसा का और दूसरा है जामिया में पुलिस की कठोर कार्रवाई का. इस मामले ने भी सुप्रीम में दस्तक दी है. इंदिरा जयसिंह की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस शरद बोबडे ने हिंसा को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की और कहा कि हिंसा रुकने पर ही सुनवाई होगी. वहाँ सुनवाई हुई भी है. दिक्कत यह है कि एक पक्ष केवल छात्र आंदोलन पर बात करना चाहता है, तो दूसरा पक्ष केवल हिंसा पर. क्या दोनों बातों पर एकसाथ बात नहीं होनी चाहिए?

Sunday, December 15, 2019

महाभियोग के चक्रव्यूह में घिरे ट्रंप क्या अंततः बच निकलेंगे?


अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच राजनीतिक संग्राम अब तीखे मोड़ पर पहुँच चुका है। अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में महाभियोग की प्रक्रिया एक कदम आगे बढ़ गई है। इसके पहले शनिवार 7 दिसम्बर को हाउस की एक महाभियोग रिपोर्ट में ट्रंप पर सत्ता के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं। इन पंक्तियों के प्रकाशन तक सदन की न्यायिक समिति में सुनवाई चल रही होगी। इसके बाद सदन इस विषय पर मतदान करेगा। इस प्रकार अमेरिकी इतिहास में ट्रंप तीसरे ऐसे राष्ट्रपति बन जाएंगे, जिनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया जाएगा। 

अनेक कारणों से ट्रंप यों भी इतिहास के सबसे विवादास्पद राष्ट्रपतियों में से एक साबित हुए हैं, पर देश की राजनीति में इस समय जो हो रहा है, वह ऐतिहासिक है। संभव है कि प्रतिनिधि सदन से यह प्रस्ताव पास हो जाए, पर यह सीनेट से भी पास होगा, इसकी संभावना नहीं लगती है। निश्चित रूप से यह मामला अमेरिकी राष्ट्रपति पद के अगले साल होने वाले चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है।

अमेरिकी संसद के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स (प्रतिनिधि सभा) की स्पीकर नैंसी पेलोसी का कहना है कि हमारा लोकतंत्र दांव पर है, राष्ट्रपति ने हमारे लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा। ट्रंप पर आरोप है कि उन्होंने राष्ट्रपति पद का आगामी चुनाव जीतने के लिए अपने एक प्रतिद्वंदी के ख़िलाफ़ साजिश की है। उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की के साथ फ़ोन पर हुई बातचीत में ज़ेलेंस्की पर दबाव डाला कि वे जो बायडन और उनके बेटे के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के दावों की जाँच करवाएं। जो बायडन अगले साल होने वाले चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के संभावित उम्मीदवार हैं। ट्रंप का कहना है कि यूक्रेन के नए राष्ट्रपति को चुनाव जीतने पर बधाई देने के लिए मैंने फोन किया था। यूक्रेन में अप्रेल में चुनाव हुए थे और एक टीवी स्टार ज़ेलेंस्की जीतकर आए थे। उनके पास कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है।

यह आखिरी पड़ाव नहीं
सदन में महाभियोग की यह प्रक्रिया 24 सितंबर, 2019 को शुरू हुई थी और इस हफ्ते एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर आ पहुँची है, पर यह अंतिम पड़ाव नहीं है। उसके लिए हमें जनवरी में सीनेट की गतिविधियों का इंतजार करना होगा। अगस्त के महीने में एक ह्विसिल ब्लोवर ने आरोप लगाया था कि राष्ट्रपति ट्रंप ने यूक्रेन के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की की सैनिक सहायता रोककर अपने पद का दुरुपयोग किया है। उसका आरोप था कि ट्रंप ने 25 जुलाई को फोन करके ज़ेलेंस्की से कहा था कि हम आपके देश को रोकी गई सैनिक सहायता शुरू कर सकते हैं, बशर्ते आप जो बायडन, उनके बेटे हंटर और यूक्रेन की एक नेचुरल गैस कंपनी बुरिस्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच बैठा दें। बुरिस्मा के बोर्ड में हंटर सदस्य रह चुके हैं। यह ह्विसिल ब्लोवर संभवतः सीआईए का कोई अधिकारी है।

ट्रंप चाहते थे कि ज़ेलेंस्की इस बात का समर्थन करें कि 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में हस्तक्षेप का काम यूक्रेन ने किया था, रूस ने नहीं। ज़ेलेंस्की को लगा कि पूर्वी यूक्रेन में रूसी अलगाववादियों के खिलाफ लड़ाई में अमेरिकी सैनिक सहायता फिर से मिलने लगेगी, इसलिए उन्होंने सीएनएन टीवी पर 13 सितंबर को प्रसारित होने वाले पत्रकार फरीद ज़कारिया के एक कार्यक्रम में इस बात की घोषणा करने की तैयारी कर ली थी कि बायडन और उनके बेटे के खिलाफ जाँच कराएंगे।

इधर ह्विसिल ब्लोवर की शिकायत 12 अगस्त को औपचारिक रूप से सामने आई और उधर 11 सितंबर को यूक्रेन की सैनिक सहायता बहाल हो गई, पर 13 सितंबर वाला टीवी कार्यक्रम भी रद्द हो गया। दूसरी तरफ डेमोक्रेटिक पार्टी ने 24 सितंबर को सदन में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू कर दी। उसी रोज ट्रंप ने अपनी टेलीफोन वार्ता के पूरे ट्रांसक्रिप्ट को भी जारी किया। ह्वाइट हाउस ने ह्विसिल ब्लोवर की कुछ बातों को स्वीकार भी किया है, पर उसका मानना है कि यह सब सामान्य बातें हैं। उसके बाद अमेरिकी कांग्रेस की तीन समितियों में सुनवाइयाँ हुईं। और अब न्यायिक समिति के सामने मामला है। उधर ह्वाइट हाउस ने कहा कि हम जाँचों में शामिल नहीं होंगे। सदन की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ने जब महाभियोग के आरोप दायर करने की घोषणा की है, तो जवाब में ट्रंप ने कहा है, जरूर दायर करो। अभी तो इस मामले को सीनेट में जाना है।

दो चरणों की प्रक्रिया
अमेरिकी राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग दो चरणों में पूरी होने वाली प्रक्रिया है। इसमें संसद के दोनों  सदनों की भूमिका है। पहला चरण महाभियोग का है, जो इस वक्त चल रहा है। राजनीतिक प्रक्रिया​ दूसरा चरण है। पहले चरण में हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स के नेता राष्ट्रपति पर लगे आरोपों पर विचार करते हैं देखते हैं और तय करते हैं कि राष्ट्रपति पर औपचारिक तौर पर आरोप लगाएंगे या नहीं। इसे कहा जाता है, ‘महाभियोग के आरोपों की जांच आगे बढ़ाना। पेलोसी ने इसी चरण को आगे बढ़ाया है। इसके बाद ऊपरी सदन,  यानी सीनेट जांच करता है कि राष्ट्रपति दोषी हैं या नहीं। ट्रंप के खिलाफ हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में महाभियोग पास हो सकता है, लेकिन सीनेट में, जहां रिपब्लिकन का बहुमत है, इसे पास कराने के लिए दो तिहाई सदस्यों के समर्थन की जरूरत होगी।

अमेरिका के इतिहास में केवल दो राष्ट्रपतियों, 1886 में एंड्रयू जॉनसन और 1998 में बिल ​क्लिंटन के​ ख़िलाफ़ महाभियोग लाया गया था, लेकिन दोनों राष्ट्रपतियों को पद से हटाया नहीं जा सका। सन 1974 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पर अपने एक विरोधी की जासूसी करने का आरोप लगा था। इसे वॉटरगेट स्कैंडल का नाम दिया गया था। पर उस मामले में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने के पहले उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था। उन्हें पता था कि मामला सीनेट तक पहुंचेगा और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ सकता है।

जोखिम दोनों तरफ
अमेरिकी विशेषज्ञों का एक तबका ट्रंप के आचरण को भ्रष्टाचार मानता है। पर कुछ लोग कहते हैं कि किसी विदेशी नेता को अपने प्रतिद्वंदी को बदनाम करने के लिए कहने भर से महाभियोग नहीं बनता। ट्रंप ने महाभियोग की जांच को दुर्भावना से प्रेरित बताया है। पेलोसी के बयान के कुछ देर बाद उन्होंने ट्वीट किया, अगर आप मुझ पर महाभियोग लगाने जा रहे हैं तो अभी करें, जल्दी, जिससे सीनेट इसकी निष्पक्ष सुनवाई कर सके और देश वापस अपने काम में लगे। सीनेट की 100 में से 53 सीटें रिपब्लिकन के पास हैं। यानी कि क़रीब 20 रिपब्लिकन सदस्य उनका साथ देने से इनकार करें और डेमोक्रेटिक पार्टी के सभी सदस्य अपनी पार्टी का साथ दें, तभी कुछ हो सकता है, जिसकी उम्मीद नहीं लगती। बहरहाल अभी तक रिपब्लिकन पार्टी ट्रंप के साथ खड़ी है।

13 नवंबर को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ औपचारिक तौर पर महाभियोग की जांच शुरू हुई और 5 दिसंबर को नैंसी पेलोसी की घोषणा के साथ सदन की न्यायिक समिति में इस मामले की सुनवाई शुरू हो गई। समिति के सामने ट्रंप अपनी बात कहने को तैयार नहीं। अपनी घोषणा के एक दिन पहले पेलोसी ने डेमोक्रेट सांसदों की बैठक में सबसे पूछा था, बोलो आपको क्या राय है? सबने कहा, आगे बढ़ो। तलवारें दोनों तरफ से खिंची हुई हैं। लगता है कि इस महीने के अंत तक सदन में इस मामले पर मतदान हो जाएगा। इसमें सामान्य बहुमत से फैसला होगा। उम्मीद है कि यहां डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत होगी, क्योंकि उसके पास बहुमत है। उसके बाद नए साल में सीनेट में इस मामले की सुनवाई होगी।

महाभियोग का यह प्रस्ताव डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए भी जोखिम भरा है। अगर जांच सफल नहीं हो पाई तो इसका असर 2020 में होने वाले चुनावों पर भी पड़ेगा। विपक्ष को उसे इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। यों भी ट्रंप प्रचार यह कर रहे हैं कि ऐसे दौर में जब अमेरिका अपनी आर्थिक समस्याओं का मुकाबला करते हुए फिर से अपने गौरव के उच्च शिखर को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर है, हमारे विरोधी दुष्प्रचार कर रहे हैं। यों ट्रंप पहले से कई तरह के विवादों में घिरे हैं। उन पर 2016 के चुनावों में रूसी हस्तक्षेप की जांच को प्रभावित करने, अपने टैक्स संबंधी दस्तावेज़ न दिखाने और यौन हिंसा के आरोप लगने पर दो महिलाओं को पैसे देने के आरोप लगे हुए हैं।






पूर्वोत्तर को शांत करना जरूरी


संसद से नागरिकता संशोधन विधेयक पास होने के बाद पूर्वोत्तर के राज्यों में आंदोलन खड़े हो गए हैं। ज्यादा उग्र आंदोलन असम में है। उसके अलावा त्रिपुरा और मेघालय में भी घटनाएं हुई हैं, पर अपेक्षाकृत हल्की हैं। असम में अस्सी के दशक के बाद ऐसा आंदोलन अब खड़ा हुआ है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया या अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जो विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, उसके पीछे वही कारण नहीं हैं, जो असम के आंदोलनकारियों के हैं। मुसलमान छात्र मानते हैं कि यह कानून मुसलमान-विरोधी है, जबकि पूर्वोत्तर के राज्यों में माना जा रहा है कि उनके इलाकों में विदेशियों की घुसपैठ हो जाएगी। खबरें हैं कि असम में आंदोलन शांत हो रहा है, पर बंगाल में उग्र हो रहा है। दोनों राज्यों के आंदोलनों में बुनियादी अंतर है। असम वाले किसी भी विदेशी के प्रवेश के विरोधी हैं, वहीं बंगाल वाले मुसलमानों को देश से निकाले जाने के अंदेशे के कारण उत्तेजित हैं। यह अंदेशा इसलिए है, क्योंकि अमित शाह ने घोषणा की है कि पूरे देश के लिए भी नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) बनाया जाएगा। 

लगता है कि सरकार को पूर्वोत्तर की प्रतिक्रिया का आभास नहीं था। सरकार ने इस कानून को छठी अनुसूची में रखा है, जिसके तहत इनर लाइन परमिट वाले राज्यों में नागरिकता नहीं मिल सकेगी, फिर भी आंदोलनों को देखते हुए लगता है कि सरकारी तंत्र अपने संदेश को ठीक से व्यक्त करने में असमर्थ रहा है। सरकार ने इंटरनेट पर रोक लगाकर आंदोलन को दूसरे इलाकों तक फैलने से रोकने की कोशिश जरूर की है, पर इस बात का जनता तक गलत संदेश भी गया है। यह बात सामने आ रही है कि सरकार ने पहले से तैयारियां नहीं की थीं और इस कानून के उपबंधों से इस इलाके के लोगों को ठीक समय पर परिचित नहीं कराया था। अब सरकार ने राज्य के डीजी पुलिस को बदल दिया है और संचार-संपर्क को भी बढ़ाया है।

Friday, December 13, 2019

नागरिकता कानून में बदलाव के निहितार्थ


नागरिकता कानून में संशोधन को लेकर चल रही बहस में कुछ ऐसे सवाल उठ रहे हैं, जो देश के विभाजन के समय पैदा हुए थे. इसके समर्थन और विरोध में जो भी तर्क हैं, वे हमें 1947 या उससे पहले के दौर में ले जाते हैं. समर्थकों का कहना है कि दुनिया में भारत अकेला ऐसा देश है, जिसने धार्मिक आधार पर विश्व के सभी पीड़ित-प्रताड़ित समुदायों को आश्रय दिया है. हम देश-विभाजन के बाद धार्मिक आधार पर पीड़ित-प्रताड़ित लोगों को शरण देना चाहते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि तीन देशों से ही क्यों, म्यांमार और श्रीलंका से क्यों नहीं? इसका जवाब है कि केवल तीन देश ही घोषित रूप से धार्मिक देश हैं. शेष देश धर्मनिरपेक्ष हैं, वहाँ धार्मिक उत्पीड़न को सरकारी समर्थन नहीं है.
जिन देशों का घोषित धर्म इस्लाम है, वहाँ कम से कम मुसलमानों का उत्पीड़न धार्मिक आधार पर नहीं होता. पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर दबाव डाला जाता है कि वे धर्मांतरण करें. उनकी लड़कियों को उठा ले जाते हैं और फिर उनका धर्म परिवर्तन कर दिया जाता है. पाकिस्तान में बहुत से मुस्लिम संप्रदायों का भी उत्पीड़न होता है. जैसे शिया और अहमदिया. पर शिया को सुन्नी बनाने की घटनाएं नहीं हैं. उत्पीड़न के आर्थिक, भौगोलिक और अन्य सामाजिक आधार भी हैं. मसलन पाकिस्तान में बलूचों, पश्तूनों, मुहाजिरों और सिंधियों को भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है, पर यह धार्मिक उत्पीड़न नहीं है.

Thursday, December 12, 2019

कैसा होगा भारत का डेटा संरक्षण कानून


केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार 4 दिसम्बर को व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक-2019 को अपनी मंजूरी दे दी. यह विधेयक 11 दिसंबर को संसद में पेश कर दिया गया है. इस बिल के जरिए सार्वजनिक और प्राइवेट कंपनियों के लिए निजी डेटा की प्रोसेसिंग [pj1] को लेकर कानून बनाने का उद्देश्य है. विधेयक के पास हो जाने के बाद भारतीय विदेशी कंपनियों को व्यक्तियों के बारे में प्राप्त व्यक्तिगत जानकारियों के इस्तेमाल को लेकर कुछ मर्यादाओं का पालन करना होगा. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में प्राइवेसी को मौलिक अधिकार घोषित किया था, पर अभी तक देश में व्यक्तिगत सूचनाओं के बारे में कोई नियम नहीं है.
यह विधेयक व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक-2018 पर आधारित है, जिसे एक उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था. इस समिति की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण ने की थी. चूंकि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के बीच इस विषय पर विमर्श चल रहा था, इसलिए इसे सरकार के पिछले दौर में रखा नहीं जा सका था. यह कानून पास हो जाने के बाद कम्पनियों को कुछ समय इसके लिए दिया जाएगा, ताकि वे अपनी व्यवस्थाएं कर सकें.

Monday, December 9, 2019

इमरान खान की कुर्सी डोल रही है


पाकिस्तान में जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने के लिए बढ़ा तो दिया है, पर इस प्रकरण ने इमरान खान की सरकार को कमजोर कर दिया है। सरकार को अब संसद के मार्फत देश के सेनाध्यक्ष के कार्यकाल और उनकी सेवा-शर्तों के लिए नियम बनाने होंगे। क्या सरकार ऐसे नियम बनाने में सफल होगी? और क्या यह कार्यकाल अंततः तीन साल के लिए बढ़ेगा? और क्या तीन साल की यह अवधि ही इमरान खान सरकार की जीवन-रेखा बनेगी? इमरान खान को सेना ने ही खड़ा किया है। पर अब सेना विवाद का विषय बन गई है, जिसके पीछे इमरान सरकार की अकुशलता है। तो क्या वह अब भी इस सरकार को बनाए रखना चाहेगी? सेना के भीतर इमरान खान को लेकर दो तरह की राय तो नहीं बन रही है?
सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी सुनवाई के दौर यह सवाल किया था कि आखिर तीन साल के पीछे रहस्य क्या है?  देश की सुरक्षा के सामने वे कौन से ऐसे मसले हैं जिन्हें सुलझाने के लिए तीन साल जरूरी हैं? पहले उन परिस्थितियों पर नजर डालें, जिनमें इमरान खान की सरकार ने जनरल बाजवा का कार्यकाल तीन साल बढ़ाने का फैसला किया था। यह फैसला भारत में कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के दो हफ्ते बाद किया गया था। संयोग से उन्हीं दिनों मौलाना फज़लुर रहमान के आज़ादी मार्च की खबरें हवा में थीं।

न्याय में देरी से नाराज है जनता


हैदराबाद बलात्कार मामले के चारों अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद ट्विटर पर एक प्रतिक्रिया थी, लोग भागने की कोशिश में मारे गए, तो अच्छा हुआ। पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो और भी अच्छा हुआ। किसी ने लिखा, ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी। ज्यादातर राजनीतिक नेताओं और सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों ने इस एनकाउंटर का समर्थन किया है। जया बच्चन सबसे आगे रहीं, जिन्होंने हाल में राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों को लिंच करना चाहिए। अब उन्होंने कहा-देर आयद, दुरुस्त आयद।
कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम जनता की भावनाओं का सम्मान करें। यह ट्वीट बाद में हट गया। मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस को तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए। कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन में ट्वीट किया, जिसे बाद में हटा लिया। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने परोक्ष रूप से इसका समर्थन किया। पी चिदंबरम और शशि थरूर जैसे नेताओं ने घूम-फिरकर कहा कि एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए।

Sunday, December 8, 2019

बलात्कारियों का क्या यही इलाज है?


उन्नाव की जिस लड़की के साथ पहले बलात्कार हुआ, फिर उसे जलाकर मार डाला गया, उसके पिता की माँग है कि अपराधियों को उसी तरह दौड़कर गोली मारी जाए, जैसे हैदराबाद के बलात्कारियों को मारी गई है. हैदराबाद में बलात्कार और हत्या के चार आरोपियों की एनकाउंटर में हुई मौत के बाद देशभर में बहस छिड़ी है. पुलिस की यह कार्रवाई क्या उचित है? क्या उन्हें ठीक करने का यही तरीका है और क्या यह सही तरीका है? क्या पुलिस को किसी को भी अपराधी बताकर मार देने का अधिकार है? सवाल यह भी है कि यह एनकाउंटर क्या वास्तव में अपराधियों के भागने की कोशिश के कारण हुआ? या पुलिस ने जानबूझकर इन्हें मार डाला, क्योंकि उसे यकीन था कि इन्हें  लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के बाद भी सजा दिला पाना सम्भव नहीं होगा. जनता का बड़ा हिस्सा मानता है कि एनकाउंटर सही हुआ या गलत, दरिंदों का अंत तो हुआ. 
चिंता की बात यह है कि जनता का विश्वास न्याय पर से डोल रहा है. बरसों तक अपराधियों को सजा नहीं मिलती. पिछले कुछ वर्षों के रेप से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि ऐसे मामलों में दोषी साबित होनेवाले लोगों की संख्या बेहद कम है। 2014 से 2017 तक के आँकड़े बताते हैं कि जितने केस रजिस्टर हुए उनमें से ज्यादा से ज्यादा 31.8 प्रतिशत में अभियुक्तों पर दोष सिद्ध हो पाए. सौम्या विश्वनाथन (2008), जिगिशा घोष (2009), निर्भया (2012), शक्ति मिल्स गैंगरेप (2013), उन्नाव कांड (2017) जैसे तमाम मामलों में अभी तक न्यायिक प्रक्रिया चल ही रही है.

Saturday, December 7, 2019

क्या हम हिंद महासागर में बढ़ते चीनी प्रभाव को रोक पाएंगे?


पिछले हफ्ते की दो घटनाओं ने हिंद महासागर की सुरक्षा के संदर्भ में ध्यान खींचा है। फ्रांस के नौसेना प्रमुख एडमिरल क्रिस्टोफे प्राजुक भारत आए। उन्होंने भारतीय नौसेना के प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह के साथ मुलाकात के बाद बताया कि अगले वर्ष से दोनों देशों की नौसेनाएं हिंद महासागर में संयुक्त रूप से गश्त लगाने का काम कर सकती हैं। दूसरी है, श्रीलंका में राष्ट्रपति पद के चुनाव, जिसमें श्रीलंका पोडुजाना पेरामुना (एसएलपीपी) के उम्मीदवार गौतबाया राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनावों में जीत दर्ज की है।
सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल गौतबाया अपने देश में टर्मिनेटर के नाम से मशहूर हैं, क्योंकि लम्बे समय तक चले तमिल आतंकवाद को कुचलने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। दो कारणों से भारत की संलग्नता श्रीलंका से है। प्रश्न है कि श्रीलंका के तमिल नागरिकों के नए राष्ट्रपति का व्यवहार कैसा होगा और दूसरे श्रीलंका-चीन के रिश्ते किस दिशा में जाएंगे? इस सिलसिले में भारत ने तेजी से पहल की है और हमारे विदेशमंत्री एस जयशंकर ने श्रीलंका जाकर नव-निर्वाचित राष्ट्रपति से मुलाकात की। सबसे बड़ी बात यह कि गौतबाया 29 नवंबर को भारत-यात्रा पर आ रहे हैं।
चीन की बढ़ती उपस्थिति
उनकी विजय के बाद भारतीय मीडिया में इस बात की चर्चा है कि चीन और पाकिस्तान के साथ श्रीलंका के रिश्ते किस प्रकार के होंगे। जो भी भारत को इस मामले में सक्रियता का प्रदर्शन करना होगा। अतीत में चीन की हिंद महासागर परियोजना में श्रीलंका की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन दिनों भारत की रक्षा-योजना के केंद्र में हिंद महासागर है। इसके दो कारण हैं। पहला कारण कारोबारी है। देश का आयात-निर्यात तेजी से बढ़ रहा है और ज्यादातर विदेशी-व्यापार समुद्र के रास्ते से होता है, इसलिए समुद्री रास्तों को निर्बाध बनाए रखने की जिम्मेदारी हमारी है। दूसरा बड़ा कारण है हिंद महासागर में चीन की बढ़ती उपस्थिति।

Friday, December 6, 2019

नरसिम्हाराव पर तोहमत क्यों?


पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जब 2004 में प्रधानमंत्री बने थे, तब किसी ने उनके बारे में लिखा था कि वे कभी अर्थशास्त्री रहे होंगे, पर अब वे खाँटी राजनीतिक नेता हैं और सफल हैं। यह भी सच है कि उनकी सौम्य छवि ने हमेशा उनके राजनीतिक स्वरूप की रक्षा की है और उन्हें राजनीति के अखाड़े में कभी बहुत ज्यादा घसीटा नहीं गया, पर कांग्रेस पार्टी और खासतौर से नेहरू-गांधी परिवार के लिए वे बहुत उपयोगी नेता साबित होते हैं। उन्होंने 1984 के दंगों के संदर्भ में जो कुछ कहा है उसके अर्थ की गहराई में जाने की जरूरत महसूस हो रहा है। उन्होंने कहा है कि तत्कालीन गृहमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने इंद्र कुमार गुजराल की सलाह मानी होती तो दिल्ली में सिख नरसंहार से बचा जा सकता था। यह बात उन्होंने दिल्‍ली में पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल की 100वीं जयंती पर आयोजित समारोह में कही।

मनमोहन सिंह ने कहा, 'दिल्‍ली में जब 84 के सिख दंगे हो रहे थे, गुजराल जी उस समय नरसिम्हाराव के पास गए थे। उन्होंने राव से कहा कि स्थिति इतनी गम्भीर है कि जल्द से जल्द सेना को बुलाना आवश्यक है। अगर राव गुजराल की सलाह मानकर जरूरी कार्रवाई करते तो शायद नरसंहार से बचा जा सकता था।' मनमोहन सिंह ने यह बात गुजराल साहब की सदाशयता के संदर्भ में ही कही होगी, पर इसके साथ ही नरसिम्हाराव की रीति-नीति पर भी रोशनी पड़ती है। यह करीब-करीब वैसा ही आरोप है, जैसा नरेन्द्र मोदी पर गुजरात के दंगों के संदर्भ में लगता है। सवाल है कि क्या मनमोहन सिंह का इरादा नरसिम्हाराव पर उंगली उठाना है? या वे सीधेपन में एक बात कह गए हैं, जिसके निहितार्थ पर उन्होंने विचार नहीं किया है?

Thursday, December 5, 2019

पश्चिम में खराब क्यों हो रही है भारत की छवि?


जब से जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए निष्प्रभावी हुए हैं, पश्चिमी देशों में भारत की नकारात्मक तस्वीर को उभारने वाली ताकतों को आगे आने का मौका मिला है। ऐसा अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के दूसरे देशों में भी हुआ है। गत 21 नवंबर को अमेरिका की एक सांसद ने प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पेश किया है। इस प्रस्ताव में जम्मू-कश्मीर में कथित मानवाधिकार उल्लंघन की निंदा करते हुए भारत-पाकिस्तान से विवादित क्षेत्र में विवाद सुलझाने के लिए बल प्रयोग से बचने की मांग की गई है।
कांग्रेस सदस्य रशीदा टलैब (या तालिब) ने यह प्रस्ताव दिया है। इलहान उमर के साथ कांग्रेस के लिए चुनी गई पहली दो मुस्लिम महिला सांसदों में एक वे भी हैं, जो फलस्तीनी मूल की हैं। सदन में गत 21 नवंबर को पेश किए गए प्रस्ताव संख्या 724 में भारत और पाकिस्तान से तनाव कम करने के लिए बातचीत शुरू करने की मांग की गई है। प्रस्ताव का शीर्षक है, ‘जम्मू-कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन की निंदा और कश्मीरियों के स्वयं निर्णय को समर्थन।’
छवि को धक्का
इस प्रस्ताव का विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि इसका कोई सह-प्रायोजक नहीं है। इसे सदन की विदेश मामलों की समिति को आगे की कार्रवाई के लिए भेजा जाएगा, पर अमेरिकी संसद और मीडिया में पिछले तीन महीनों से ऐसा कुछ न कुछ जरूर हो रहा है जिससे भारत की छवि को धक्का लगता है। सामान्यतः पश्चिमी देशों में भारतीय लोकतंत्र की प्रशंसा होती है, पर इन दिनों हमारी व्यवस्था को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। गत 19 नवंबर को कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के एक विमर्श में कश्मीर के बरक्स भारतीय लोकतंत्र से जुड़े सवालों पर विचार किया गया। उसके एक हफ्ते पहले अमेरिकी कांग्रेस के मानवाधिकार संबंधी एक पैनल ने जम्मू-कश्मीर से विशेष दर्जा समाप्त करने के बाद की स्थिति पर सुनवाई की। अमेरिकी कांग्रेस की गतिविधियों पर निगाह रखने वाले पर्यवेक्षकों का कहना था कि इसके पीछे पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिकों और पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के करीबी लोगों हाथ है और उन्होंने इस काम के लिए बड़े पैमाने पर धन मुहैया कराया है।

Tuesday, December 3, 2019

सिर्फ कानून बनाने से नहीं रुकेंगे बलात्कार


जिस तरह दिसम्बर 2012 में दिल्ली में हुई बलात्कार की एक घटना के बाद देशभर में नाराजगी का माहौल बना था, करीब-करीब उसी तरह हैदराबाद में हुई घटना को लेकर देशभर में नाराजगी है. सोमवार को संसद के दोनों सदनों में यह मामला उठा और सांसदों ने अपनी नाराजगी का इज़हार किया. इस चर्चा के बीच राज्यसभा में  जया बच्चन की बातों ने ध्यान खींचा है. उन्होंने कहा, आरोपियों को पब्लिक के हवाले कर दो. ऐसे लोगों को सार्वजनिक तौर पर लिंच कर देना चाहिए. उन्हें खुलेआम मौत की सजा दी जाए. उनके स्वरों में जो नाराजगी है, वह हमें खतरनाक निष्कर्षों की ओर ले जा रही है. क्या हमारी सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्थाएं फेल हो चुकी हैं, जो ऐसी बात उन्हें कहनी पड़ी?
इस घटना के बाद हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाली बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा ने एक लेख में कहा कि इस अमानवीय घटना के लिए सरकार अथवा राजनैतिक दलों को दोष देने के बजाय संपूर्ण भारतीय समाज को दोषी ठहराना चाहिए. जल्द ही आप लोगों को सड़क पर विरोध करते हुए और कैंडल मार्च निकालते देखेंगे. लेकिन उसके बाद क्या? क्या ऐसी घटनाएं होनी बंद हो जाएंगी? ऐसा इसलिए है क्योंकि एक समाज के रूप में हम इस तरह की घटनाओं के मूल कारणों को दूर करने की कभी चेष्टा नहीं करते. हम सदैव सरकार, न्यायपालिका और पुलिस को दोषी मानते हैं, लेकिन मैं इस सब के लिए सामूहिक रूप से सबको दोषी ठहराती हूं.
ज्वाला गुट्टा ने अपने लेख में अपने डेनमार्क के अनुभव का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा, जब मैं 2005 में प्रशिक्षण के लिए वहां गई, तो मैंने पब्लिक ट्रांसपोर्ट) का इस्तेमाल किया. शुरू मे मैं थोड़ा आशंकित थी. आरहूस मेरे लिए एक अनजान शहर था. मेरे कोच ने मुझसे कहा, ‘ज्वाला, यह अपराध-मुक्त शहर है.’ मैंने पहले ऐसा कभी नहीं सुना था. इसके बाद मैंने इस बारे में पढ़ना शुरू किया कि आख़िर एक देश कैसे पूरी तरह अपराध रहित बनता है. यह पूरे समाज की शिक्षा और समझदारी पर निर्भर करता है.
सोमवार को इस मसले पर हुए विमर्श में शामिल होते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा, ‘ऐसी घटनाएं हमें चिंतित करती है. संसद हमेशा ऐसी घटनाओं पर चिंतित रही है. हम सब भी मां-बेटी के साथ हो रहे ऐसे अपराध की निंदा करते हैं…इसके लिए अगर हमें नए कानून भी बनाने पड़े तो पूरा सदन इसके लिए तैयार है.’ रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘हम कानून बनाने के लिए भी तैयार हैं.’ उधर राज्यसभा में कांग्रेस सांसद गुलाम नबी आजाद ने कहा कि यह समस्या सिर्फ कानून बनाकर हल नहीं की जा सकती है. सभापति एम वेंकैया नायडू ने कहा कि हमने कई कानून बना लिए हैं लेकिन इससे कोई फायदा होता दिख नहीं रहा है. इसके लिए कुछ और करने की जरूरत है.
ऐसा कुछ और क्या है, जो हम कर नहीं पा रहे हैं? इसका जवाब मॉब लिंचिंग नहीं है, बल्कि उस शिक्षा और संस्कारों की जरूरत है, जिससे हम विमुख हैं. स्त्रियों को मनुष्य न समझने की मनोवृत्ति है. यह जब बलात्कार के रूप में सामने आती है, तो भयावह लगती है, पर जब स्त्री भ्रूण हत्या के रूप में उभरती है, तो हम उसकी अनदेखी कर देते हैं. लड़कों में मन में छुटपन से ही लड़कियों के प्रति आदर का भाव पैदा करना परिवारों का काम है. जैसे-जैसे स्त्रियों की भूमिका जीवन और समाज में बढ़ रही है, उसके समांतर सामाजिक-सांस्कृतिक समझ विकसित नहीं हो रही है. पुरुषों के बड़े हिस्से का दिमाग जानवरों जैसा है. पर बलात्कारियों को फाँसी देने या बधिया करने से भी अपराध खत्म नहीं होंगे.
पहला काम तो स्त्रियों को सबल बनाने का है. दिल्ली रेप कांड के बाद स्त्री-चेतना में विस्मयकारी बदलाव हुआ था. लम्बे अरसे से छिपा उनका गुस्सा एकबारगी सामने आया. उस आंदोलन से बड़ा बदलाव भले नहीं हुआ, पर सामाजिक जीवन में एक नया नैरेटिव तैयार हुआ. हम कितने भी आगे बढ़ गए हों, हमारी स्त्रियाँ पश्चिमी स्त्रियों की तुलना में कमज़ोर हैं. व्यवस्था उनके प्रति सामंती दृष्टिकोण रखती है. बेटियों की माताएं डरी रहती हैं. उन्हें व्यवस्था पर भरोसा नहीं है. आजादी के 72 वर्ष बाद भी आधी आबादी के मन में भय है. अपने घरों से निकल कर काम करने या पढ़ने के लिए बाहर जाने वाली स्त्रियों की सुरक्षा का सवाल मुँह बाए खड़ा है.
दिल्ली से लेकर हैदराबाद रेप कांडों को केवल रेप तक सीमित करने से इसके अनेक पहलुओं की ओर से ध्यान हट जाता है. यह मामला केवल रेप का नहीं है. कम से कम जैसा पश्चिमी देशों में रेप का मतलब है. एक रपट में पढ़ने को मिला कि पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में रेप कम है. पर उस डेटा को ध्यान से पढ़ें तो यह तथ्य सामने आता है कि रिपोर्टेड केस कम हैं. यानी शिकायतें कम हैं. दूसरे पश्चिम में स्त्री की असहमति और उसकी रिपोर्ट बलात्कार है.हमारे कानून कितने ही कड़े हों, एक तो उनका विवेचन ठीक से नहीं हो पाता, दूसरे पीड़ित स्त्री अपने पक्ष को सामने ला ही नहीं पाती.
हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था स्त्रियों के प्रति सामंती दृष्टिकोण रखती है. ऐसा नहीं कि वह निष्क्रिय है. पर उसकी सीमाएं हैं. उसकी ट्रेनिंग में कमी है, अनुशासन नहीं है और काम की सेवा-शर्तें भी खराब हैं. अपराधों को रोकने के लिए एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था की ज़रूरत है. हैदराबाद से खबरें मिली हैं कि वहाँ पुलिस इन दिनों रात के आठ बजे के बाद कर्फ्यू जैसे हालात पैदा कर रही है. इस तरह तो पुलिस खुद अराजकता पैदा कर रही है. ऐसे ही 2012 में दिल्ली पुलिस ने एक साथ नौ मेट्रो स्टेशनों को बंद करा दिया था. यह नादानी है. अपराध हो जाने के बाद की सख्ती का कोई मतलब नहीं है.