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Sunday, December 29, 2019

कांग्रेस के आत्मघात का साल


कांग्रेस पार्टी हर साल 28 दिसंबर को अपना स्थापना दिवस मनाती है। इस साल पार्टी का 135 वाँ जन्मदिन शनिवार को मनाया गया। आज रविवार को पार्टी झारखंड की नई सरकार में शामिल होने जा रही है, पर वह इसका नेतृत्व नहीं कर रही है। इस सरकार के प्रमुख होंगे झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन। जिस पार्टी को देश के राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। झारखंड के नतीजों ने पार्टी का उत्साह बढ़ाया जरूर है, पर भीतर-भीतर पार्टी के भीतर असमंजस है। यह असमंजस इस साल अपने चरम पर जा पहुँचा है।
कांग्रेस के जीवन में यह 134वाँ साल सबसे भारी पराजय का साल रहा है। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। ऐसा संकट पिछले 134 साल में कभी नहीं आया। पाँच साल पहले हमारे सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ था, जो आज भी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है। पार्टी का नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में है। ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि इस साल की हार के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया। यह भी एक प्रकार का संकट है। अभी तक यह तय नहीं है कि पार्टी का भविष्य का नेतृत्व कैसा होगा।

पार्टी की उम्मीदें अब अपने पुनरोदय पर नहीं भारतीय जनता पार्टी के पराभव पर टिकी हैं। झारखंड की आंशिक सफलता से उत्साहित पार्टी के नेता कई तरह के दावे कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का पराभव शुरू हो गया है और कांग्रेस की वापसी में ज्यादा देर नहीं है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के अंदेशों से पैदा हुए प्रतिरोधी स्वरों ने पार्टी के उत्साह को और बढ़ाया है। इसके पहले हरियाणा के चुनाव में सीटें बढ़ने और महाराष्ट्र के सत्ता गठजोड़ में शामिल होने को भी पार्टी के पुनरोदय का हिस्सा माना जा रहा है।
क्या वास्तव में कांग्रेस की वापसी हो रही है? कहना मुश्किल है कि यह बीजेपी का पराभव-काल है। इसी महीने कर्नाटक विधानसभा उपचुनाव के नतीजे भी आए हैं। राज्य में 5 दिसम्बर को 15 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुआ था। पिछले साल जिस परिघटना को कांग्रेसी रणनीति की विजय बताया जा रहा था, वह अपमानजनक हार में बदल गई और सिद्धारमैया और गुंडूराव ने अपने पदों से इस्तीफा देकर हाथ झाड़ लिए। संयोग से इस साल कर्नाटक में बगावत जिस वक्त हो रही थी, उसी समय केंद्रीय नेतृत्व के संकट से पार्टी घिरी हुई थी।
इस साल मई में जब बीजेपी लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव में भारी विजय के साथ सत्ता पर वापस आई, तब विश्लेषकों का पहला निष्कर्ष यही था कि एजेंडा सेट करने में बीजेपी सफल है और विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस के पास कोई योजना नहीं है। कांग्रेस पार्टी को इसबार के लोकसभा चुनाव से भारी उम्मीदें थीं। विडंबना है कि जिस वक्त भारतीय जनता पार्टी पुलवामा और बालाकोट के नाम पर जनता के बीच जा रही थी, उस वक्त कांग्रेस पार्टी आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट को बदलने और भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए यानी देशद्रोह के कानून को भी हटाने की बात कर रही थी।
चुनाव परिणाम आने के बाद इतिहास लेखक राम गुहा ने ट्वीट किया कि हैरत की बात है कि राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दिया है। पार्टी को अब नया नेता चुनना चाहिए। परिणाम आने के पहले योगेन्द्र यादव ने कहीं कहा कि कांग्रेस को मर जाना चाहिए। सवाल है कि क्या महाराष्ट्र और झारखंड की सरकारों में शामिल होना कांग्रेस की सफलता है? हरियाणा विधानसभा चुनाव में अंतिम क्षणों में पार्टी की बागडोर भूपेंद्र सिंह हुड्डा के हाथों में सौंपने के कारण मिली आंशिक सफलता पार्टी के नैरेटिव की सफलता थी या क्षेत्रीय क्षत्रप की सफलता थी? महाराष्ट्र में सरकार में शामिल होने के बावजूद बागडोर शरद पवार और उद्धव ठाकरे के हाथों में ही है। झारखंड में भी पार्टी की भूमिका दोयम दर्जे की है।
क्या कांग्रेस की भविष्य की उम्मीदें इस बात पर निर्भर करेंगी कि बीजेपी अपने अंतर्विरोधों की शिकार होकर परास्त हो जाए? बीजेपी के पास प्रयोग करने का समय है। महाराष्ट्र और झारखंड में वह अकेले अपने बलबूते खड़ी होना चाहती है। वोट प्रतिशत को देखते हुए अभी उसे परास्त नहीं माना जा सकता। उसके पास जोखिम उठाने का समय और साधन दोनों हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह अपना नैरेटिव तैयार करने में सफल है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी की बहस में शामिल होने के बाद कांग्रेस अपने अंतर्विरोधों से घिरने लगी है। पिछले रविवार को पार्टी ने नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय सिटिजन रजिस्टर के विरोध में दिल्ली के राजघाट पर धरना-सत्याग्रह किया। उसकी प्रकट राजनीति के हिस्से संविधान की प्रस्तावना पढ़ने का काम आया है। क्या उसके समर्थक वोटर को यह बात समझ में आती है? उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन के दौरान हुई हिंसा का राजनीतिक लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा, कांग्रेस को नहीं।
कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत है नेतृत्व को लेकर उसका अंतर्विरोध। हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणामों को देखते हुए पार्टी के एक तबके ने फिर से माँग शुरू कर दी है कि राहुल गांधी को वापस लाओ। यहीं से इस पार्टी के अंतर्विरोधों की कहानी शुरू होती है। पार्टी का सबसे बड़ा एजेंडा आज भी यही है कि किसी तरह से राहुल गांधी को लाओ। उसके पास क्षेत्रीय नेता नहीं हैं और उन्हें तैयार करने की योजना भी नजर नहीं आती।  झारखंड के बाद अब दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं। लगता नहीं कि वह इस चुनाव को जीतने के हौसलों के साथ उतरेगी। अगले साल बिहार और उसके अगले साल यानी 2021 में असम और पश्चिम बंगाल के महत्वपूर्ण चुनाव हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। इन तीनों महत्वपूर्ण चुनावों में कांग्रेस के लिए कोई उत्साहवर्धक संदेश नहीं है। अगले कुछ महीनों में महाराष्ट्र के गठबंधन के कारण पैदा हुई विसंगतियाँ भी सामने आनी वाली हैं। बंगाल में कांग्रेस और माकपा दोनों ही अपनी जमीन खोते जा रहे हैं। कांग्रेस की दृष्टि से देखें तो उम्मीद की किरणें नजर नहीं आतीं।

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