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Sunday, December 15, 2019

पूर्वोत्तर को शांत करना जरूरी


संसद से नागरिकता संशोधन विधेयक पास होने के बाद पूर्वोत्तर के राज्यों में आंदोलन खड़े हो गए हैं। ज्यादा उग्र आंदोलन असम में है। उसके अलावा त्रिपुरा और मेघालय में भी घटनाएं हुई हैं, पर अपेक्षाकृत हल्की हैं। असम में अस्सी के दशक के बाद ऐसा आंदोलन अब खड़ा हुआ है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया या अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जो विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, उसके पीछे वही कारण नहीं हैं, जो असम के आंदोलनकारियों के हैं। मुसलमान छात्र मानते हैं कि यह कानून मुसलमान-विरोधी है, जबकि पूर्वोत्तर के राज्यों में माना जा रहा है कि उनके इलाकों में विदेशियों की घुसपैठ हो जाएगी। खबरें हैं कि असम में आंदोलन शांत हो रहा है, पर बंगाल में उग्र हो रहा है। दोनों राज्यों के आंदोलनों में बुनियादी अंतर है। असम वाले किसी भी विदेशी के प्रवेश के विरोधी हैं, वहीं बंगाल वाले मुसलमानों को देश से निकाले जाने के अंदेशे के कारण उत्तेजित हैं। यह अंदेशा इसलिए है, क्योंकि अमित शाह ने घोषणा की है कि पूरे देश के लिए भी नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) बनाया जाएगा। 

लगता है कि सरकार को पूर्वोत्तर की प्रतिक्रिया का आभास नहीं था। सरकार ने इस कानून को छठी अनुसूची में रखा है, जिसके तहत इनर लाइन परमिट वाले राज्यों में नागरिकता नहीं मिल सकेगी, फिर भी आंदोलनों को देखते हुए लगता है कि सरकारी तंत्र अपने संदेश को ठीक से व्यक्त करने में असमर्थ रहा है। सरकार ने इंटरनेट पर रोक लगाकर आंदोलन को दूसरे इलाकों तक फैलने से रोकने की कोशिश जरूर की है, पर इस बात का जनता तक गलत संदेश भी गया है। यह बात सामने आ रही है कि सरकार ने पहले से तैयारियां नहीं की थीं और इस कानून के उपबंधों से इस इलाके के लोगों को ठीक समय पर परिचित नहीं कराया था। अब सरकार ने राज्य के डीजी पुलिस को बदल दिया है और संचार-संपर्क को भी बढ़ाया है।

आंदोलन के बीच देश-विरोधी तत्वों के शामिल होने की बात भी कही जा रही है, पर ऐसा किस आंदोलन में नहीं होता। यह जगजाहिर है कि पूर्वोत्तर में आईएसआई सक्रिय है। यह मुद्दा इस साल लोकसभा चुनावों के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद भी उभरा था। तब मोदी को पूर्वोत्तर में कई जगह काले झंडे दिखाए गए। सरकार का कहना है कि असम समझौते की धारा-6 स्थानीय निवासियों के हितों की रक्षा करती है, पर आंदोलनकारियों को लगता है कि नागरिकता कानून के कारण विदेशियों के प्रवेश का रास्ता खुल जाएगा।

अब नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर के युवाओं से शांति की अपील की है और कहा कि अपने इस मोदी पर विश्वास रखें। आपकी परंपरा, भाषा, रहन-सहन, संस्कृति और आपके हक पर आंच नहीं आने दूंगा। फिर भी लगता है कि समय रहते सरकार ने जनता के बीच जाकर उन्हें कानून के प्रावधानों की जानकारी नहीं दी है। असम में 1979 से 1985 तक जो आंदोलन चला, वह विदेशियों के खिलाफ था। विदेशी माने बांग्लादेशी, जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का मामला भी असम-केंद्रित है और आज का नहीं 1947 के बाद का है, जब देश स्वतंत्र हुआ था। इस दौरान पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से शरणार्थी भी भारत में आते रहे हैं। इनमें से कुछ को नागरिकता पहले दी भी गई है। इनकी संख्या कितनी है, इसे लेकर अनुमान ही है, क्योंकि अमित शाह ने खुद संसद में कहा है कि तमाम लोग इस बात को छिपाते हैं कि हम पाकिस्तान से आए हैं। अमित शाह के अनुसार इनकी संख्या लाखों-करोड़ों में हो सकती है। 

भारत में असम अकेला राज्य है, जहाँ सन 1951 में जनगणना के बाद एनआरसी को तैयार किया गया था। सन 1979 से 1985 के बीच चले असम आंदोलन का निशाना बंगाली मुसलमान थे और आज भी उन्हें लेकर ही विवाद है। 15 अगस्त 1985 को असम के आंदोलनकारियों और केंद्र सरकार के बीच जो समझौता हुआ था, उसकी मूल भावना थी कि 1971 के बाद भारत आए बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा।
विभाजन के समय मुस्लिम लीग की कोशिश थी कि असम को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल किया जाए, पर स्थानीय नेता गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रतिरोध के कारण ऐसा सम्भव नहीं हुआ. बोरदोलोई को सरदार पटेल और महात्मा गांधी का समर्थन हासिल था। राज्य के पहले मुख्यमंत्री बोरदोलोई और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच मुस्लिम आबादी को लेकर विवाद थे। असम का वर्तमान आंदोलन ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिण में गुवाहाटी से तिनसुकिया के बीच फैला है। इस क्षेत्र में ज्यादातर मूल असमिया रहते हैं।

नागरिकता कानून के कारण कटऑफ तारीख गैर-मुसलमान संप्रदायों के लिए 1971 से बढ़कर दिसंबर 2014 हो गई है। इसमें काफी लोग वे हैं, जिनके नाम संवर्धित एनआरसी से बाहर हैं। इस कानून के कारण उन्हें नागरिकता मिल जाएगी। इस कानून के कारण राजस्थान और गुजरात में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को भी नागरिकता मिलेगी, पर वहाँ ऐसे आंदोलन नहीं हैं। शायद इसकी वजह राजनीतिक दलों की भूमिका भी है।

असम में इस आंदोलन के पीछे असम गण परिषद नहीं है, जिसने अस्सी के दशक में आंदोलन का संचालन किया था। इस वक्त जो संगठन आगे हैं उनमें प्रमुख है अखिल असम छात्र संघ (आसू), असम जातीयताबादी जुबा छात्र परिषद, अखिल-गोगोई के नेतृत्व वाली कृषक मुक्ति संग्राम परिषद। ज्यादातर युवा हैं और मुख्यधारा की राजनीति से बाहर के लोग हैं, जिनमें स्थानीय कलाकार, लेखक और सिविल सोसायटी से जुड़े लोग भी शामिल हैं।

स्वतंत्रता के बाद विदेशी घुसपैठ के विरोध का सवाल असम में ही उठाया गया था और यह आज से नहीं स्वतंत्रता के बाद से ही चल रही है। स्वाभाविक है कि असम के लोग इसके प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं। इसलिए इसकी पहली प्रतिक्रिया असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में हुई है। कहा यह भी जा रहा है कि नागरिकता संशोधन कानून के बाद असम की एनआरसी को फिर से तैयार करना होगा। चूंकि इस संशोधन में कटऑफ तारीख दिसंबर 2014 है, इसलिए इसमें बदलाव भी होंगे।

कानून में संशोधन के बाद भारत में अवैध रूप से रह रहे व्यक्तियों को वैध बनाने के लिए चार शर्तें रखी गईं हैं। 1.वे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई हों, 2.वे अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से आए हों, 3.वे भारत में 31 दिसंबर, 2014 या उससे पहले आए हों और 4.असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के कुछ विशेष जनजातीय क्षेत्रों में निवास न कर रहे हों, जो संविधान की छठी अनुसूची में शामिल हैं या ऐसे क्षेत्रों में जहाँ रहने के लिए आंतरिक परमिट की जरूरत होती है जैसे कि अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नगालैंड। इन क्षेत्रों में प्रवेश के लिए भारत के नागरिकों को भी परमिट की जरूरत होती है।

इस मामले ने भी सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दी है। कहा जा रहा है कि संविधान का अनुच्छेद 14 नागरिकों और विदेशियों को समानता का अधिकार देता है। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों में कई बार कहा है कि इसके विवेकशील परिस्थितियों में इसका अपवाद भी संभव है। बहरहाल इसकी संवैधानिकता से जुड़े सवालों पर सुप्रीम कोर्ट में ही विचार संभव है, पर जनता से जुड़ने का काम सरकार का है।  


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