हम
असमंजस के दौर में खड़े हैं। एक तरफ हम आधुनिकीकरण और विकास के हाईवे और बुलेट
ट्रेनों का नेटवर्क तैयार करने की बातें कर रहे हैं और दूसरी तरफ खबरें आ रहीं हैं
कि हमारा देश भुखमरी के मामले में दुनिया के 119 देशों में 100वें नम्बर पर आ गया
है। जब हम देश में दीवाली मना रहे थे, तब यह खबर भी सरगर्म थी कि झारखंड में एक
लड़की ‘भात-भात’ कहते हुए मर गई। कोई दिन नहीं जाता जब हमें
सोशल मीडिया पर सामाजिक-सांस्कृतिक क्रूरता की खबरें न मिलती हों।
हम किधर जा रहे हैं? आर्थिक विकास की राह पर या कहीं और? इसे लेकर अर्थशास्त्रियों में भी मतभेद
हैं। कुछ मानते हैं कि हम सही राह पर हैं और कुछ का कहना है कि तबाही की ओर बढ़
रहे हैं। दोनों बातें सही नहीं हो सकतीं। जाहिर है कि दोनों राजनीतिक भाषा बोल रहे
हैं। कुछ लोग इसे मोदी सरकार की देन बता रहे हैं और कुछ लोगों का कहना है कि हताश
और पराजित राजनीति इन हथकंडों को अपनाकर वापस आने की कोशिश कर रही है। पर सच भी
कहीं होगा। सच क्या है?
पब्लिक ‘कुछ’ नहीं जानती
सवाल
है कि ‘पब्लिक पर्सेप्शन’ क्या है? जनता कैसा महसूस कर रही है? पर उससे बड़ा सवाल यह है कि इस बात का पता
कैसे लगता है कि वह क्या महसूस कर रही है? पिछले साल नवम्बर में हुई नोटबंदी को लेकर
काफी उत्तेजना रही। सरकार के विरोधियों ने कहा कि अर्थ-व्यवस्था तबाही की ओर जा
रही है। कम से कम उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जनता की नाराजगी दिखाई
नहीं पड़ी। अब जीएसटी की पेचीदगियों को लेकर व्यापारियों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त
की है, वह काफी उग्र है। व्यापारी अपेक्षाकृत संगठित हैं और इसीलिए सरकार ने उनके
विरोध पर ध्यान दिया है और अपनी व्यवस्था को सुधारा है। टैक्स में रियायतें भी दी
हैं।
हाल में हमारी धारणाओं पर असर डालने वाली एक बड़ी खबर ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ से जुड़ी थी। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च
इंस्टीट्यूट की ओर से हर साल जारी की जाने वाली रिपोर्ट में 119 देशों में भारत
100वें पायदान पर है। पिछले साल हम 97वें पायदान पर थे। इस खबर को एक मीडिया हाउस
ने इस अंदाज में पेश किया कि 2014 से अबतक भारत इस इंडेक्स में 45 पायदान नीचे आ
गया है। यह खबर सच नहीं थी। फर्क केवल खबर को पेश करने के तरीके से पड़ता है। इधर
झारखंड से एक खबर मिली कि एक बच्ची इसलिए मर गई, क्योंकि उसके परिवार को सार्वजनिक
वितरण प्रणाली के तहत चावल नहीं मिला। उसके परिवार का राशन कार्ड आधार कार्ड से
नहीं जुड़ा था। इस खबर की पड़ताल अभी चल ही रही है।
मोदी
की सरकार को बने साढ़े तीन साल हो चुके हैं। वह खास किस्म के पर्सेप्शन या
उम्मीदों के सहारे आई थी। अब उन उम्मीदों के विपरीत एक नया ‘पर्सेप्शन’ या ‘नैरेटिव’ तैयार हो रहा है। इसके पीछे सरकारी विफलताएं भी हैं और विपक्ष की
कोशिशें भी। हाल में कांग्रेस पार्टी ने सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति बढ़ाई है। जैसे-जैसे
सन 2019 के लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं, यह सवाल किया जाने लगा है कि क्या कहानी
बदलेगी? क्या मोदी सरकार के
दिन आ गए? आमतौर पर
मीडिया सत्ता-मुखी होता है। पर उसे जनता के रुझान का ध्यान भी रखना होता है। समूचे
मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ घोषित नहीं किया जा सकता और यह भी सम्भव
नहीं कि उसके कंधों पर रखकर विरोधी दल अपनी तोपें दागें।
बहरहाल हमें राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर डालनी चाहिए। पिछले
कुछ समय से ऐसी खबरें आ रहीं हैं, जिनसे लगता है कि पहिया उल्टा चलने लगा है। यह
सब इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी के छह फीसदी के नीचे चले जाने और
जीएसटी के शुरूआती झटकों के बाद हुआ है। उधर राहुल गांधी का मेक-ओवर चल रहा है। वे
नए अंदाज में सामने आ रहे हैं। गुजरात में वे जनजातियों के बीच ढपली लेकर डांस भी
कर आए हैं। वे जनता के बीच जा रहे हैं। यह मीडिया-प्लानिंग है। गुजरात में
विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। क्या वहाँ से कहानी बदलेगी? बहरहाल जो भी होगा, वह अगले कुछ महीनों में
सामने आ जाएगा। इसका पहला संकेत 18 दिसम्बर को गुजरात और हिमाचल के चुनावों से भी
मिलेगा।
आर्थिक सवाल
सरकार
के सामने खड़ी बड़ी चुनौतियाँ हैं जीएसटी की अड़चनों को दूर करना, विनिमय दर का अवमूल्यन करना और राजकोषीय घाटे
को नियंत्रित रखना। आर्थिक संवृद्धि की दर को फिर से पटरी पर वापस लाना और जनता को
विश्वास दिलाना कि उसकी कोशिशों से रोजगार में वृद्धि हो रही है और भविष्य में
हालात और बेहतर होंगे।
इस
साल के बजट के अनुसार 2017-18 के दौरान सरकार का राजकोषीय घाटा 5,46,532 करोड़
रुपये होना चाहिए। यह राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.2 फीसदी के बराबर होगा। ऐसा होने
पर राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को इस स्तर पर टिके
रहना चाहिए क्योंकि 3.2 फीसदी से अधिक का राजकोषीय घाटा मुद्रास्फीति बढ़ाने वाला
होगा। कुछ का कहना है कि अर्थव्यवस्था में आई मंदी को देखते हुए सरकार को
अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त नकदी डालनी चाहिए। यानी
अपने खर्च बढ़ाने चाहिए।
केंद्रीय
सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने 31 अगस्त को 2017-18 की पहली तिमाही का राष्ट्रीय
आय अनुमान जारी किया था। तभी
से मीडिया में जीडीपी संवृद्धि के छह फीसदी से नीचे चले जाने की चर्चा है। सरकार
भी हालात की संजीदगी को देखते हुए सोते से जागी है। मीडिया और राजनीति का सारा जोर
नोटबंदी पर केन्द्रित है, जबकि आर्थिक मंदी का रुझान उसके पहले ही शुरू हो चुका
था। सीएसओ ने 31 मई को ही कहा था कि पिछले वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही में
वास्तविक सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) की वृद्धि दर काफी गिरावट के साथ 5.6 फीसदी पर आ
गई है जबकि 2015-16 की समान अवधि में यह 8.7 फीसदी रही थी।
वस्तुतः
चुनौती केवल जीडीपी की नहीं, व्यवस्था को रास्ते पर लाने की है। आर्थिक सुधार का
काम यूपीए सरकार के दौर में पूरा हो जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ। अब जब बदलाव हो
रहा है, तो व्यवस्था में लगने वाले झटकों पर राजनीतिक ढोल बजने लगे हैं। मसलन
जीडीपी की पद्धति में सन 2015 से बदलाव हुआ है। अब हम जीडीपी की जगह जीवीए का नाम
लेने लगे हैं। सीएसओ की असंगठित एवं अनौपचारिक क्षेत्र तक पर्याप्त पहुंच नहीं
होने से राष्ट्रीय आय का अनुमान भी सही पता नहीं लगता। बेरोजगारी को दर्ज करने की
कोई सही व्यवस्था हमारे पास नहीं है, इसलिए जिसके मन में जो आता है, उसका दावा
करता है।
हाल
में खबर थी कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) वर्ष 2018-19 में
रोजगार संबंधी सर्वेक्षण कराएगा। ऐसा पिछला सर्वेक्षण वर्ष 2011-12 में हुआ था। अभी
यह निर्णय होना है कि यह सर्वेक्षण अप्रैल-मार्च के पूर्व निर्धारित चक्र में होगा
या फिर इसे जून-जुलाई के नए चक्र में पूरा किया जाएगा। रोजगार से काफी लोगों का
आशय संगठित क्षेत्र की वेतन-भोगी नौकरी से होता है। ऐसे लोगों की तादाद एक-डेढ़
फीसदी के आसपास ही होगी। असल रोजगार बेहद छोटे और छोटे कारोबार में हैं।
रोजगार
के वाहक छोटे और मझोले उद्यम हैं। बड़े उद्यमों में नियुक्तियों और छंटनी के बहुत
सख्त नियम हैं। इन नियमों में बदलाव की हर कोशिश पर राजनीतिक विरोध होता है। इस
वजह से पूँजी निवेश नहीं हो पता। हम इन बातों के राजनीतिक निहितार्थ को ज्यादा
महत्व देते हैं। जरूरत इस बात की है कि हम सरकारों की निरंतरता पर ध्यान दें। एक
सरकार के काम के अच्छे या बुरे परिणामों का श्रेय उसके बाद आने वाली सरकार को
मिलता है। मसलन 2003-04 से लेकर 2007-08 तक वार्षिक वृद्धि दर 8.5 फीसदी रहने की एक
वजह वाजपेयी सरकार के समय (1998-2004) उठाए गए कदम थे। उस दौर की वैश्विक आर्थिक
प्रगति का भी इसमें योगदान था।
आर्थिक
सुधार
भारत
में आर्थिक उदारीकरण पीवी नरसिंहराव सरकार की देन हैं, पर 2004 में आई यूपीए सरकार
ने सुधारों को आगे बढ़ाने में सुस्ती की। यूपीए के दौर में राजकोषीय घाटा भी काबू
से बाहर हो गया था। इस वजह से मुद्रास्फीति काफी बढ़ गई। नतीजतन 2012-13 और
2013-14 में विकास दर पांच फीसदी के नीचे आ गई। मोदी सरकार के आने के बाद गाड़ी
पटरी पर आ रही थी कि गलत समय पर नोटबंदी का फैसला कर लिया गया। और यह बात तभी
स्वीकार कर ली गई थी कि अर्थ-व्यवस्था पर इस फैसले का असर पड़ेगा। पर जीएसटी से
बचा नहीं जा सकता था। इसे लेकर जो राजनीति हो रही है, वह मौकापरस्ती है।
बैंकों
की हालत अच्छी नहीं है। विचार इस बात पर करना चाहिए कि उनकी हालत क्यों बिगड़ी। कई
राज्यों ने हाल में किसानों के कर्जे माफ करने के जो फैसले किए हैं, वे राजनीतिक
रूप से फायदा भले ही पहुँचाएं, अर्थ-व्यवस्था के लिए वे घातक साबित होंगे। मोदी
सरकार ‘गवर्नेंस’ के नाम पर जीतकर आई थी। गवर्नेंस का आकलन
आसान नहीं है। विश्व बैंक ने सन 2008 में गवर्नेंस के छह संकेतकों के आधार पर
वैश्विक सूचकांक बनाना शुरू किया है। अभी यह काम काफी शुरूआती स्तर पर है, पर उससे
इतना जाहिर जरूर हुआ है कि भारत में स्थितियाँ सुधार की दिशा में होने के बावजूद ‘राजनीतिक स्थिरता और हिंसा में कमी’ के क्षेत्र में हम काफी पीछे हैं।
समाज पर हावी राजनीति
सन
2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय
लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। हमें एक बेहतर और फोकस्ड
लोकतंत्र की ज़रूरत है। यह बात दिल्ली में कही गई थी और पृष्ठभूमि में रिटेल में
एफडीआई का मामला था। क्या भारत में अतिशय लोकतंत्र है? चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा
कारण वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था है। राजनीतिक विपक्ष वहाँ नहीं है। सिंगापुर की
आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है। वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के
लिए कोड़े लगाए जाते हैं। हमारा लोकतंत्र बिखरा हुआ है। उसे समझदार बनाने की
ज़रूरत है। इतना समझदार कि अपने फैसलों का मतलब जान सके।
अंतरराष्ट्रीय
एजेंसी प्यू रिसर्च के हाल के एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि भारत में 85
फीसदी लोग अपनी सरकार पर विश्वास करते हैं, पर ऐसे लोग भी हैं जो फौजी शासन या
तानाशाही में विश्वास रखते हैं। सर्वे के अनुसार भारत में 27 फीसदी लोग मानते हैं
कि देश में मजबूत नेता का शासन होना चाहिए। पर 53 फीसदी लोग लोकतंत्र में रहकर भी
उसका समर्थन नहीं करते। उनका मानना है कि सैनिक शासन देश के लिए बेहतर विकल्प है। हालांकि
इस राय को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए, पर इस बात पर जरूर ध्यान दिया
जाना चाहिए कि लोगों को राजनीति से शिकायत है। क्यों शिकायत है राजनीति से?
जनता
की राय बनती है सार्वजनिक महत्व के सवालों पर विचार-विमर्श से। सार्वजनिक
स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, परिवहन, कानून-व्यवस्था जैसे तमाम मामले आम लोगों के
जीवन को छूते हैं। क्या इन बातों पर मीडिया का ध्यान जाता है? सामान्यतः ऐसी खबरें भी तभी आती हैं, जब
उनमें सनसनी हो। जैसाकि
ग्लोबल हंगर इंडेक्स वाली खबर के साथ हुआ।
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई)
की रैंकिंग में भारत का स्थान नीचे हुआ जरूर है, पर हालात में गिरावट नहीं आई है,
बल्कि सुधार हुआ है। अनेक नए देशों का नाम सूची में जुड़ने के कारण और अनेक छोटे
देशों में स्थितियों पर बेहतर नियंत्रण के कारण हमारी रैंकिंग खराब हुई है। पर
पोषण के मामले में 1992 में भारत का स्कोर 46.2 था जो 2000 में 38.2, 2008 में
35.6 और 2017 में 31.4 हो गया है। यह स्कोर चार किस्म के आँकड़ों से तैयार होता
है।
सामाजिक कल्याण के सवाल
भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी काम
किया जाना है। आँकड़े यह बता रहे हैं कि हालात क्रमशः सुधरे हैं, पर काफी काम की
जरूरत है। देश के आकार और जनसंख्या को भी सामने रखना चाहिए। इस सिलसिले में इस बात
पर भी गौर किया जाना चाहिए कि हमारा मीडिया इन सवालों को किस तरह कवर करता है।
संयुक्त
राष्ट्र विकास कार्यक्रम की हर साल जारी होने वाली मानव विकास रिपोर्ट पर गौर करें
तो एक निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि हमारे यहाँ आर्थिक विकास होने के बावजूद
सामाजिक विकास नहीं हुआ है। लैंगिक मामलों, सार्वजनिक स्वास्थ्य, माताओं और बच्चों
के स्वास्थ्य, पेयजल और शिक्षा जैसे मामलों में काफी काम करने की जरूरत है। पर यह
सच यह भी है कि सुधार हो रहा है। सन 1980 में भारत का मानव विकास इंडेक्स 0.369 था,
जबकि उस वक्त वैश्विक औसत था 0.559।
सन
1990 में वैश्विक औसत था 0.597 और भारत का स्कोर था 0.431। सन 2000 में हमारा
स्कोर हुआ 0.483 जबकि वैश्विक स्कोर बढ़कर हुआ 0.639। 2005 में हमारा स्कोर हो गया
0.527 और वैश्विक स्कोर हुआ 0.667। सन 2010 में वैश्विक स्कोर 0.693 के मुकाबले
भारत का स्कोर हुआ 0.570। सन 2014 में 0.711 के मुकाबले 0.615 और 2016 में 0.717
के मुकाबले भारत का स्कोर था 0.624।
इस
इंडेक्स से दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला यह कि हम औसत वैश्विक स्कोर से पीछे हैं,
पर अंतर लगातार कम हो रहा है। अब हम दक्षिण एशिया के औसत स्कोर 0.621 से बेहतर
हैं, जबकि 1990 में हम दक्षिण एशिया के औसत 0.438 से पीछे थे। सन 2010 में भी हम
दक्षिण एशिया के औसत 0.583 से पीछे थे। सन 2013 में हम दक्षिण एशिया के औसत 607 के
बराबर आए पर 2014 में 0.614 के औसत से थोड़ा आगे हो गए। बातों का लब्बो-लुबाव यह
कि धीरज रखिए। बदलाव होगा, जादू नहीं होगा।
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित
इस लेख पर कोई भी कमेन्ट न देना ग़लत होगा। इतनी सुन्दरता से प्रस्तुत इतना निष्पक्ष लेख लम्बे समय बाद पढ़ने को मिला। इस ईमानदार चर्चा के लिये बधाई। मेरे लिये काफी कुछ नया था इस लेख में।
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