पिछले नौ साल में इस मामले ने कम से कम तीन सवाल खड़े किए हैं। पहला सवाल हमारी आपराधिक विवेचना और न्याय-व्यवस्था को लेकर है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के विस्तृत फैसले के अनुसार सीबीआई की जाँच में न केवल खामियाँ थीं, बल्कि एजेंसी ने साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ भी की। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट पर फिल्म डायरेक्टर जैसा बर्ताव करने का आरोप भी लगाया। नोएडा पुलिस की भूमिका गैर-जिम्मेदाराना रही। पुलिस ने ही सबसे पहले घोषणा की कि हत्या घर के लोगों ने की है।
हालांकि सीबीआई की जाँच में यह धारणा पूरी तरह बदल गई,
पर न जाने क्या हुआ कि सीबीआई की जाँच टीम बदल गई। नई टीम ने पिछली टीम की अवधारणा
को पूरी तरह बदल दिया। इस फैसले के बाद सीबीआई की दोनों टीमों से जुड़े अधिकारियों
की प्रतिक्रिया पर गौर करें तो समझ में आ जाता है कि इस संगठन के भीतर कोई न कोई
खामी जरूर है। आपराधिक जाँच में एक से ज्यादा थ्योरी हो सकती हैं, पर सारी
थ्योरियाँ एक ही एजेंसी की हैं। उनके बारे में एजेंसी के भीतर ही समन्वय का कोई
तरीका होना चाहिए।
जाँच एजेंसी की भूमिका को लेकर ही सवाल नहीं हैं मेडिकल
और फोरेंसिक जाँच को लेकर भी सवाल हैं। सीडीएफडी में फोरेंसिक जाँच के लिए गई सभी
56 वस्तुओं की सील टूटी पाई गईं। किसने तोड़ीं सीलें? हेमराज के तकिए का गिलाफ कृष्णा के कमरे में
कसे पहुँचा? सीबीआई ने तमाम उन
तथ्यों की अनदेखी की, जो उसकी थ्योरी के विपरीत जाते थे। आरुषि की पोस्टमार्टम
रिपोर्ट की अनदेखी करके उसके और हेमराज के संबंधों को लेकर जो बातें अभियोजन पक्ष
ने कहीं, उनपर भी हाईकोर्ट ने गंभीर टिप्पणी की है।
अभियोजन पक्ष ने अपनी थ्योरी को सही साबित करने के
प्रयास में एक मासूम लड़की के बारे में ऐसी धारणाएं बनाने का काम किया, जो खुद में
आपराधिक हैं। उनके पास क्या प्रमाण था, जो उन्होंने आरुषि-हेमराज को लेकर ऐसी
बातें कहीं? यह आरुषि के
साथ अन्याय था। गवाह को तोते की तरह पाठ पढ़ाने पर भी अदालत ने टिप्पणी की है।
आपराधिक न्याय की ऐसी ही दर्दनाक व्यवस्था हमारे देश में है तो तमाम मामलों का
क्या होता होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
परिस्थितिजन्य साक्ष्य तभी अचूक माने जाते हैं, जब उनमें
किसी किस्म का संदेह नहीं हो। तलवार दम्पति के खिलाफ परिस्थितिजन्य साक्ष्य में
संदेह की संभावनाएं थीं। अपराध से जुड़ी एक और थ्योरी भी थी। उसके पीछे भी आधार थे।
हाईकोर्ट ने माना कि उस रात घर में कुछ और लोगों के होने की संभावना भी थी। सच यह
है कि दूसरी थ्योरी के साथ भी सीबीआई के पास पुख्ता साक्ष्य नहीं थे। इसीलिए उसने मामले
में क्लोजर रिपोर्ट लगाई थी। पर ट्रायल कोर्ट की पहल पर उस रिपोर्ट को ही चार्जशीट
बना दिया गया।
सवाल है कि तलवार दम्पति को दोषी मानने पर जोर किसने
दिया? कहाँ से यह धारणा आई
कि वे अपनी बेटी के हत्यारे हैं? यह इस मामले
का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है। इसमे मीडिया ट्रायल की भूमिका है। चैनलों के स्टूडियो अदालतों में तब्दील
हो गए। अनेक विशेषज्ञों ने, जिनमें प्रसिद्ध लेखिका शोभा डे भी शामिल थीं, तलवार दंपति के खिलाफ फैसला सुनाया। परिवार के
चाल-चलन पर सवाल उठाए गए। चटपटापन, साजिश और कांस्पिरेसी यों भी मीडिया पर हावी
रहती है। इस बात पर हम विचार नहीं करते कि इससे किसी का जीवन तबाह हो रहा है।
बहरहाल
तलवार दम्पति के पक्ष में भी कुछ पत्रकार सामने आए। खासतौर से शोमा चौधरी ने कहानी
के दूसरे पहलू की ओर भी ध्यान दिलाया। पत्रकार अविरूक सेन ने ‘आरुषि’ नाम से एक किताब लिखी, जिसमें सीबीआई की थ्योरी पर सवाल उठाए गए। अविरूक
सेन का कहना है मेरी इस मामले के बारे में कोई राय नहीं थी, पर पूरा मीडिया कहने लगा था कि माता-पिता
ने ही ये अपराध किया होगा। इस बात ने जांच को प्रभावित किया ही होगा।
अविरूक
सेन ने सीबीआई की जांच प्रक्रिया पर सवाल उठाए और तलवार दंपति का बचाव किया है। उनके मुताबिक सीबीआई ने घटनास्थल पर जो
नमूने इकट्ठा किए और प्रयोगशाला भेजे, उनके
साथ छेड़खानी की गई। घटनास्थल के साथ छेड़छाड़ हुई। हैदराबाद की सेंटर फॉर डीएनए फिंगर-प्रिंटिंग
एंड डायग्नोस्टिक लैब की रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा गया होता तो तलवार दंपति के उस
कथन को मज़बूती मिलती कि घर में कोई बाहरी व्यक्ति दाखिल हुआ। उन्होंने सीबीआई की रिपोर्ट की विसंगतियों की
तरफ भी ध्यान दिलाया।
केस
अब एक दौर से बाहर आ चुका है। पर अब क्या होगा? कैसे पता लगेगा कि आरुषि की हत्या किसने की? क्या इस मामले की फिर से जाँच की जा सकती है? दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173(8) के
तहत दुबारा जाँच भी कराने की व्यवस्था भी है। पर इस व्यवस्था के रहते यह जाँच कैसे
होगी?
एक तीसरी बात जो सबसे महत्वपूर्ण है। एक पक्ष माता-पिता और
परिवार का भी है। राजेश तलवार और नूपुर तलवार की दुनिया वैसे ही उजड़ चुकी है।
उनकी एकमात्र बेटी ही उनकी दुनिया थी। कितने ही स्वार्थी माता-पिता हों, हमारा मन
कहता है कि संतान के लिए सब अपना स्वार्थ छोड़ देते हैं। तलवार दम्पति ने न सिर्फ
अपनी बेटी को खोया, बल्कि उसकी हत्या का कलंक भी उनके ऊपर आया। हत्या ही नहीं तमाम
तरह के लांछन भी। वस्तुतः आरुषि की हत्या जिसने भी की, पर भावनात्मक रूप से इसमें समाज
के काफी बड़े हिस्से का हाथ भी है।
हरिभूमि में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment