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Friday, September 29, 2017

हर वक्त प्रासंगिक गांधी


कुछ लोग कहते हैं, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? सन 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी ने दुनियाभर का ध्यान खींचा, तब इस विषय पर एकबार फिर चर्चा हुई कि क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं? वह केवल भारत की बहस नहीं थी।

शीतयुद्ध खत्म होने और सोवियत संघ के विघटन के करीब दस साल पहले चली उस बहस का दायरा वैश्विक था। गांधी अगर प्रासंगिक हैं, तो दुनिया के लिए हैं, केवल भारत के लिए नहीं, क्योंकि उनके विचार सम्पूर्ण मानवता से जुड़े है। फिर भी सवाल है कि क्या उनका देश भारत आज उन्हें उपयोगी मानता है?


महात्मा गांधी का चश्मा नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत कार्यक्रम का प्रतीक चिह्न है। हमारी करेंसी पर गांधी हैं और अब नए नोटों में उनका चश्मा भी है। सन 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी सरकार ने गांधी की प्रतीकात्मकता का काफी इस्तेमाल किया है। उन्होंने 2 अक्तूबर 2014 को देशवासियों को स्वच्छ भारत अभियान की शपथ दिलाई और 2 अक्तूबर 2019 तक भारत को स्वच्छ बनाने के उद्देश्य के लिए पाँच साल के एक राष्ट्रीय अभियान की घोषणा की।

हाल में मोदी सरकार ने गांधी के अगस्त क्रांति कार्यक्रम को आज के हालात से जोड़ा। अपने 'मन की बात'  कार्यक्रम में मोदी ने भारत छोड़ो आंदोलन का उल्लेख करते हुए कहा कि देश की जनता को अस्वच्छता, गरीबी, आतंकवाद, जातिवाद और संप्रदायवाद को खत्म करने की शपथ लेनी चाहिए। अगस्त क्रांति आंदोलन जनता का संकल्प था, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का नेतृत्व सलाखों के पीछे चला गया था और जनता आगे आ गई थी।

अगस्त क्रांति के संदर्भ में गांधी की विचारधारा के एक और पहलू पर भी बहस है। गांधी अहिंसा के पुजारी थे। सन 1922 का चौरी-चौरा आंदोलन हिंसा के कारण उन्होंने फौरन वापस ले लिया था। भगत सिंह की हिंसा के विरोधी थे। पर अगस्त क्रांति आंदोलन में गांधी ने हिंसा की अनदेखी की। उनकी अहिंसा व्यावहारिक रणनीति थी। पर पत्थर की लकीर वह भी नहीं थी। वह वीरों की अहिंसा थी, कायरों की नहीं।

कुछ लोगों को यह सोचना मजेदार लगता है कि गांधी आज होते तो क्या करते? क्या कश्मीर का विवाद खड़ा होने देते? क्या 1962, 65 और 71 की लड़ाइयाँ होतीं? क्या भारत एटम बम बनाता? क्या बाबरी मस्जिद को ढहाया जा सकता था? क्या चीन के साथ डोकलाम जैसा विवाद होता? हमें लगता है कि इस व्यावहारिक दुनिया से गांधी की समझ मेल नहीं खाती। बहरहाल कश्मीर का विवाद गांधी के सामने ही पैदा हो गया था और उन्होंने कश्मीर में सेना भेजने का समर्थन किया था।

हमने गांधी की ज्यादातर भूमिका स्वतंत्रता संग्राम में ही देखी। और हम उन्हें प्रतिरोध के आगे देख नहीं पाते हैं। स्वतंत्र होने के बाद देश के सामने जब कई तरह के प्रशासनिक-राजनीतिक समस्याएं आईं तबतक वे चले गए। गांधी की प्रशासनिक समझ का जायजा उनके लेखन और व्यावहारिक गतिविधियों से लिया जा सकता है। उनकी सबसे बड़ी काबिलीयत थी समूह को साथ लेकर चलना। पिछले कई सौ साल में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ, जिसने दक्षिण एशिया के जन-समूह को इस कदर सम्मोहित किया हो।

गांधी की रणनीति प्रासंगिक रहेगी। वे आज होते तो समय के लिहाज से कोई न कोई रणनीति लेकर वे आते। गांधी जी ने तमाम लेख लिखे, पर उन्होंने अपनी विचारधारा को लेकर ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिसे प्रतिनिधि लेखन कहा जाए। अलबत्ता सन 1909 में लिखी छोटी सी पुस्तिका हिन्द स्वराज्य में व्यक्त उनके स्फुट विचार महत्वपूर्ण हैं। उनमें उनकी व्यावहारिकता प्रकट होती है।

गांधी को आधुनिकता का विरोधी माना जाता है। मसलन वे यंत्रों के विरोधी थे। सवाल है कि विरोधी क्यों थे? इसलिए नहीं कि तकनीकी विकास से उनका बैर था। बल्कि इसलिए कि वे तकनीक को सामाजिक जरूरत के रूप में देखते थे, जो वास्तव में तकनीक का उद्देश्य है। तकनीक से उस समाज की असलियत का पता लगता है, जिसकी वह तकनीक है। गांधी की तकनीक के बारे में समझ का पता महादेव देसाई के एक लेख से मिलता है। उन्होंने इस लेख में सन 1924 में गांधीजी और एक व्यक्ति के बीच हुए संवाद का उदाहरण दिया है:-

क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?’ रामचंद्रन ने सरल भाव से पूछा।

गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा, वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दाँत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है...समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परन्तु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए।

इस लेख में गांधीजी को यह कहते हुए उधृत किया गया है, ...सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा...सिंगर ने अपनी पत्नी को सीने और बखिया लगाने का उकताने वाला काम करते देखा...ऐसी खोज करके उसने अपनी पत्नी का श्रम बचाया। गांधीजी ने आगे यह भी कहा कि मैं बड़े कारखानों का विरोध भी नहीं करूँगा, पर उनका मालिक राष्ट्र हो।

गांधी के ट्रस्टीशिप के विचार पर गंभीरता से विवेचन नहीं हुआ। उसे हवाई परिकल्पना माना गया, पर क्या वास्तव में कॉरपोरेट मैनेजर अपने मालिकों का ट्रस्टी नहीं होता? दुनिया की कम्पनियाँ अब जनता के अंशदान (शेयर पूँजी) के सहारे खड़ी होती हैं। वैश्विक पूँजीवाद जिस कॉरपोरेट लोकतंत्र और शेयरहोल्डर के अधिकारों की बात करता है, उससे गांधी के विचारों का टकराव नहीं है। गांधी गाँवों में गए तो जमींदारों को साथ लिया और मजदूरों के बीच गए तो मालिकों को साथ रखा। पर बात किसानों की और मजदूरों की ही की। आज देश के वामपंथियों ने गांधी को मंजूर कर लिया है, पर कुछ दशक पहले तक तो उनकी नजर में वे क्रांति-विरोधी थे।  

गांधी की अहिंसा को लेकर दक्षिण अफ्रीका के नेता नेल्सन मंडेला ने अच्छा विवेचन किया है। मंडेला और गांधी की मुलाकात कभी नहीं हुई, फिर भी ऐसा लगता है कि दोनों गहरे दोस्त रहे होंगे। गांधी ने भेदभाव के खिलाफ पहली लड़ाई दक्षिण अफ्रीका में लड़ी। और मोहन दास करमचंद को महात्मा गांधी बनाकर दक्षिण अफ्रीका ने ही भारत भेजा। मंडेला ने 31 दिसम्बर 1999 में टाइम पत्रिका के लिए महात्मा गाँधी पर एक लेख लिखा था। टाइम का यह अंक सदी के महान व्यक्तियों पर केन्द्रित था।

मंडेला ने लिखा, गाँधी ने अहिंसा को हथियार तब बनाया जब हिरोशिमा और नगासाकी की हिंसा हम पर फटी नहीं थी। महात्मा गाँधी उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने वाले क्रांतिकारी थे। दक्षिण अफ्रीका के स्वतंत्रता आंदोलन को मूर्त रूप देने में मैंने उनसे ही प्रेरणा पाई। मंडेला के अनुसार गांधी दक्षिण अफ्रीका की देन हैं। भारत ने दक्षिण अफ्रीका को जो गाँधी सौंपा वह बैरिस्टर था। दक्षिण अफ्रीका ने उस गाँधी को महात्मा बनाकर भारत को लौटाया।

मंडेला ने गांधी के जनांदोलन और अहिंसा के द्वंद्व को बेहतर तरीके से व्यक्त किया है। मंडेला ने गाँधी से अहिंसा की रणनीति ली और फिर जब हिंसा का रास्ता पकड़ा तब भी गाँधी का नाम लिया। मंडेला ने टाइम में लिखा, मैं भरसक गांधी की अहिंसक रणनीति पर चला। पर मेरे जीवन में एक ऐसा क्षण भी आया, जब मैंने महसूस किया कि उत्पीड़क की हिंसा अब सहन नहीं होती। तब हमने अपने संघर्ष को एक सैनिक आयाम दिया और उमकोंतो वे सिज्वे (राष्ट्र की बरछी) नाम से संगठन बनाया।

नेल्सन मंडेला ने लिखा, मैंने 1962 में हुए पूर्वी और मध्य अफ्रीका के पैन अफ्रीकन फ्रीडम मूवमेंट के सम्मेलन में कहा, ताकत ही वह भाषा है जिसे साम्राज्यवादी समझ सकते हैं। और कोई भी देश ताकत का इस्तेमाल किए बगैर स्वतंत्र नहीं हुआ है। गांधी ने कभी हिंसा को पूरी तरह खारिज नहीं किया। उनके अनुसार जब हिंसा और कायरता के बीच फैसला करना होगा तो मैं हिंसा की सलाह दूँगा....मैं चुपचाप बेइज्जती को स्वीकार करने के बजाय सम्मान की रक्षा के लिए हथियार उठाने को कहूँगा...।

मंडेला के विचार से दुनिया पर आज हावी विकसित औद्योगिक समाज की अवधारणा के अकेले आलोचक गाँधी-विचार हैं। दूसरों ने इस अवधारणा के निरंकुश स्वरूप की आलोचना तो की है, पर इसके उत्पादक औजारों की निन्दा नहीं की।

गांधी विज्ञान और तकनीक के खिलाफ नहीं थे, पर वे काम करने के अधिकार को प्राथमिक मानते थे और मशीनीकरण का उस हद तक विरोध करते थे जिस हद तक वह व्यक्ति के इस अधिकार का हनन करता है। वे चाहते थे कि औजार उसके प्रयोक्ता के नियंत्रण में रहे वैसे ही जैसे क्रिकेट का बैट या कृष्ण की बाँसुरी। और उत्पादन प्रक्रिया में नैतिकता हो। ऐसे दौर में जब मार्क्स पूंजीपति और मजदूर के बीच टकराव देख रहा था गाँधी दोनों के झगड़े निपटा रहे थे।

मंडेला ने गांधी के भीतर अन्याय का प्रतिकार करने वाला इंसान देखा। उनकी यह टिप्पणी ध्यान देने योग्य है। गांधी एडम स्मिथ के इस विचार से असहमत थे कि मनुष्य स्वभावतः स्वार्थ और पाशविक लोभ-लालचों से घिरा है। उन्होंने इस दावे का भंडाफोड़ किया कि प्रत्येक व्यक्ति कठोर श्रम करे तो वह अमीर और सफल हो सकता है। उन्होंने लाखों-करोड़ों लोगों का उदाहरण दिया जो हाड़-तोड़ काम करते हैं और भूखे रह जाते हैं। गांधी अपने आरामगाह को यह कहते हुए छोड़कर आम जनता के साथ आए कि मैं आर्थिक बराबरी नहीं ला सकता, पर मैं खुद को तो कम करके गरीबों के बराबर ला सकता हूँ। 

गांधी की प्रासंगिकता का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है कि उन्हें आज संघ परिवार के सदस्यों का भी समर्थन मिल रहा है, जो कभी उनके आलोचक थे। यह प्रासंगिकता केवल सत्य और अहिंसा को लेकर नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय समाज की मानसिकता को समझने में गांधी की सफलता के कारण है। गांधी को यह देश अप्रासंगिक नहीं मानता। केवल इतना मानता है कि आज कोई ईमानदार गांधी हमारे बीच नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र ने सन 2030 तक सतत वैश्विक विकास का जो कार्यक्रम बनाया है, वह गांधी की समझ के अनुरूप ही है। हम बदहाल दुनिया की उपेक्षा करके किसी कोने में खुशहाली नहीं ला सकते। दूसरी ओर दुनिया धार्मिक कट्टरपंथ के कारण टकराव के रास्ते पर बढ़ रही है। गांधी धार्मिक रूपकों और प्रतीकों को लेकर चलते था, पर धर्म के कट्टरपंथी स्वरूप को पीछे रखते थे। उनके धर्म में मानवीय मर्म का मरहम था, जिसकी आज सबसे बड़ी जरूरत है। गांधी की समझ कहती है कि आतंकवाद के मूल प्रश्न का समाधान होना चाहिए।

हाल में हमने गोरक्षा आंदोलन और गुरमीत राम रहीम प्रकरण में हिंसा का प्रदर्शन देखा। गांधी ने बड़े जनांदोलनों को चलाया, पर उसे अराजक नहीं होने दिया। सन 1942 का अगस्त क्रांति आंदोलन एक दौर में जाकर अराजक हो गया था। उसकी बड़ी वजह यह भी थी कि शासन ने उस आंदोलन का कठोरता से दमन किया था। पर मूलतः गांधी अनुशासित प्रतिरोध के ही समर्थक थे।

जालियाँवाला बाग़ और अहमदाबाद में हुई हिंसा के संदर्भ में गांधी ने 8 सितम्बर 1920 के यंग इंडिया में लोकशाही बनाम भीड़शाही शीर्षक लेख में लिखा, हम में भीड़ के शासन-प्रवाह में बह जाने की प्रवृत्ति बहुत अधिक है...अगर भारत को हिंसा द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करनी है तो यह अनुशासित और (अगर हिंसा के साथ भी प्रतिष्ठा जोड़ी जा सकती हो तो) प्रतिष्ठित हिंसा अर्थात युद्ध के द्वारा ही प्राप्त करनी होगी। उस हालत में यह भीड़शाही नहीं, लोकशाही का काम माना जाएगा।

गांधी ने अपने इस लेख में स्वयंसेवकों के अनुशासन पर काफी जोर दिया था। उन्होंने लिखा, ‘मेरे संतोष का कारण यह है कि भीड़ को प्रशिक्षित करने से ज्यादा आसान काम और कोई नहीं...भीड़ विचारशील नहीं होती। वह तो आवेश के अतिरेक में कोई काम कर गुजरती है। और जल्दी ही पश्चाताप भी करने लगती है।

भीड़ और लोकतंत्र के अंतर को समझना और भीड़ को लोकतांत्रिक ताकत बनाना, गांधी का प्रासंगिकता का महत्वपूर्ण पहलू है। इस पहलू से जुड़े दूसरे पहलुओं से गुजरते हुए पूरे देश को एक वैचारिक धारा से जोड़ पाना दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है। गांधी को देह छोड़े 70 साल होने वाले हैं। उनके विचारों का दायरा काफी विस्तृत है, वे इतनी जल्दी अप्रासंगिक नहीं होंगे।
गंभीर समाचार के अक्टूबर-प्रथम अंक 2017 में प्रकाशित


3 comments:

  1. Anonymous10:24 AM

    those who used to distribute the copies of "why i killed Gandhi" by Nathuram Godse, now have adopted and accepted Gandhi. Gandhi has replaced Godse, Hegdewar, Savarkar and Golwalkar in their political propaganda. (However, under the political surface, lies the communal polarisation where their heroes continue to be Godse, Hegdewar, Savarkar and Golwalkar)

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन हास्य अभिनेता महमूद अली और विश्व हृदय दिवस - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. नये खून को ये समझने की बहुत जरूरत है। बहुत सुन्दर आलेख।

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