यशवंत
सिन्हा ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की बखिया उधेड़ कर दो बातों की ओर इशारा
किया है। पहली नजर में यह पार्टी के नेतृत्व और सरकार की रीति-नीति की आलोचना है
और आर्थिक मोर्चे पर आ रहे गतिरोध की ओर इशारा। पर यह सामान्य ध्यानाकर्षण नहीं
है। इसके पीछे गहरी वेदना को भी हमें समझना होगा। आलोचना के लिए उन्होंने पार्टी
का मंच नहीं चुना। अख़बार चुना, जहाँ पी चिदंबरम हर हफ्ते अपना कॉलम लिखते हैं। सरकार
की आलोचना के साथ प्रकारांतर से उन्होंने यूपीए सरकार की तारीफ भी की है।
पार्टी-इनसाइडरों
का कहना है कि यह आलोचना दिक्कत-तलब जरूर है, पर पार्टी इसे अनुशासनहीनता का मामला
नहीं मानती। इसका जवाब देकर मामले की अनदेखी की जाएगी। उन्हें पहला जवाब रेलमंत्री
पीयूष गोयल ने दिया है। उन्होंने कहा कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम देश की
अर्थ-व्यवस्था में सुधार के चरण हैं। ऐसे में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर हालात न तो
खराब हैं और न उनपर चिंता करने की कोई वजह है। इन कदमों से अर्थ-व्यवस्था में
अनुशासन आएगा और गति भी बढ़ेगी। स्वाभाविक रूप से यह देश की आर्थिक दशा-दिशा की
आलोचना है। उनके लेख के जवाब में उनके बेटे जयंत सिन्हा ने भी एक लेख लिखा है, जो
उनके लिए बदमज़गी पैदा करने वाला है।
सरकार
मानती है कि आर्थिक संवृद्धि की दर में गिरावट है। यह गिरावट पिछले साल नोटबंदी के
भी तिमाही पहले से शुरू हो गई थी। पूँजी निवेश की स्थिति अच्छी नहीं है। देश के
बैंकों की स्थिति खराब है। सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो बड़े फैसले किए
हैं। इनकी वजह से अर्थ-व्यवस्था की गति धीमी पड़ी जरूर है, पर इसका दूरगामी लाभ भी
मिलेगा। केवल संवृद्धि की दर में कुछ अंकों की गिरावट का मतलब यह नहीं है कि
अर्थ-व्यवस्था डूब रही है। डूब रही होती तो राजस्व में वृद्धि कैसे होती?
अरुण
जेटली के अनुसार प्रत्यक्ष करों में 15.7 फीसदी की वृद्धि मामूली बात नहीं है।
जुलाई और अगस्त के महीनों में जीएसटी कलेक्शन 90,000 करोड़ के ऊपर आया है। देश लगातार
रिकॉर्ड प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश प्राप्त कर रहा है। 400 अरब डॉलर के ऊपर
हमारा विदेशी मुद्रा भंडार है। रुपये की स्थिति मजबूत है। हालांकि इस वित्त वर्ष
की पहली तिमाही में संवृद्धि दर 5.7 फीसदी रही है, फिर भी इस साल की दर 7.00 फीसदी
के आसपास रहने की आशा है।
यशवंत
सिन्हा की बातों से विपक्ष को स्वर मिले हैं। ये स्वर अभी तीखे होंगे। कुछ महीनों
के भीतर गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। राजस्थान,
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ भी चुनाव की लाइन में हैं। इन राज्यों में सरकार को जनता
के पास जाना है। हाल में सरकार की इस बात के लिए आलोचना हो रही थी कि जब
अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल महंगा था, तब जो खुदरा भाव थे वही खुदरा भाव आज
हैं। सरकार के पास इस बात का जवाब है। आज सब्सिडी का स्तर वही नहीं है, जो तब था।
यही नहीं आज राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर है।
अरुण
जेटली ने जो जवाब दिया है उसमें पलटवार है। उन्होंने यशवंत सिन्हा के साथ-साथ पी
चिदंबरम पर भी तंज किया। इन दिनों पी चिदंबरम एक दैनिक अख़बार के अपने साप्ताहिक
स्तंभ में आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हैं। यशवंत सिन्हा के स्वर चिदंबरम के
स्वरों से मिलते हुए हैं। जेटली ने यशवंत सिन्हा और चिदंबरम के कार्यकाल की
नीतियों की ओर भी इशारा किया है। यशवंत सिन्हा ने अपनी टिप्पणियों में न केवल
चिदंबरम और मनमोहन सिंह का नाम लिया, बल्कि यूपीए सरकार की तरफदारी भी की। उन्होंने
अरुण जेटली को लोकसभा चुनाव में मिली हार को भी निशाने पर लिया। इस बात से उनके
भीतर की ईर्ष्या भी खुलकर सामने आई है।
यह
पहला मौका नहीं, जब यशवंत सिन्हा की बातों से पार्टी की फज़ीहत हुई है। वे धारा के
खिलाफ चलते रहे हैं। नवम्बर 2012 में उन्होंने एक कारोबारी संस्था की शिकायतें
मिलने पर पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को हटाने की माँग कर दी थी। यूपीए के दौर में
जब बीजेपी जीएसटी के खिलाफ थी, तब यशवंत सिन्हा उसका समर्थन कर रहे थे। और आज जब
बीजेपी ने उसे लागू किया है तो वे उसके विरोध में हैं। उनके बारे में करीबी
जानकारी रखने वाले मानते हैं कि वे अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए भी विवाद खड़े
करते हैं। उनका विवाद मोदी या अरुण जेटली के साथ ही खड़ा नहीं हुआ है। कर्पूरी
ठाकुर, वीपी सिंह, चंद्रशेखर और आडवाणी तक उनके रिश्तों में खटास और मिठास का
मिश्रण रहा है।
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने के
विरोध में बीजेपी के जो वरिष्ठ नेता खड़े थे उनमें यशवंत सिन्हा भी थे। गोवा में जून
2013 में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को महत्वपूर्ण
जिम्मेदारी देने के बारे में फैसला होना था। उस बैठक में लालकृष्ण आडवाणी नहीं आए।
यशवंत सिन्हा भी नहीं आए। आडवाणी जी ने तबीयत ठीक न होने का बहाना किया, पर यशवंत
सिन्हा ने कहा, मैं कुछ और कारणों से नहीं गया। बाद में उन्होंने कहा, मीडिया ने
मेरी अनुपस्थिति को ग़लत तरीक़े से पेश किया है। मैं तो मोदी का समर्थक हूँ।
सन 2014 के चुनाव में टिकट कटने से भी उन्हें धक्का लगा।
सन 2015 में नवगठित ब्रिक्स बैंक के अध्यक्ष का पद भारत को मिला। इस पद के लिए
यशवंत सिन्हा के नाम की अटकलें भी लगीं। आईसीआईसीआई बैंक के गैर-कार्यकारी चेयरमैन
केवी कामथ को यह पद मिल गया। बताते हैं इस फैसले के पीछे नरेन्द्र मोदी का हाथ था।
इधर वे कश्मीर मामले के समाधान में जुटे थे। इस सिलसिले में वे प्रधानमंत्री से
मिलना चाहते थे, पर उन्हें समय नहीं मिला। ये सब बातें भी इस विवाद के पीछे कहीं न
कहीं हैं।
राष्ट्रीय सहारा के 30 सितम्बर, 2017 के अंक के सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित
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