देश के सबसे बड़े समाजवादी परिवार की कलह फिलहाल दबा
दी गई है, पर अपने पीछे कुछ सवाल छोड़ गई है। अखिलेश और शिवपाल यादव ने इस विवाद
को सार्वजनिक रूप से और ज्यादा न बढ़ाने का फैसला करके कलह पर पर्दा डाल दिया है,
पर किसी न किसी सतह पर विवाद कायम रहेगा। मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश की महत्वाकांक्षा की आलोचना की है। उन्होंने शिवपाल को मंत्री के रूप में प्रतिष्ठित करने के साथ-साथ पार्टी का अध्यक्ष पद भी सौंपा है। पर एक इंटरव्यू में यह भी कहा है कि रामगोपाल यादव पार्टी में नम्बर 2 हैं। बहरहाल सपा के भीतर जो सवाल उठ रहे हैं वे केवल
समाजवादी पार्टी ही नहीं उन सभी पार्टियों के भीतर उठेंगे, जो व्यक्ति केन्द्रित
हैं। देश के ज्यादातर दल इस रोग के शिकार हैं।
सपा में अब या कुछ साल बाद पूछा जाएगा, मुलायम के बाद कौन? यही सवाल मायावती, लालू यादव,
ममता बनर्जी, जयललिता, करुणानिधि, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौडा और नवीन पटनायक
वगैरह-वगैरह की पार्टियों के भीतर भी उठेगा। सुप्रीमो संस्कृति पार्टियों के
आंतरिक लोकतंत्र के लिए चुनौती है। पर भारतीय परिस्थितियों में यह एक बड़ा सच है।
इसकी शुरुआत नेहरू-गांधी परिवार से हुई है।
समाजवादी पार्टी में यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि यह संधिकाल
में आ गई है। नेतृत्व के संधिकाल के अलावा यूपी में चुनाव सिर पर हैं और इसके भीतर
शामिल अलग-अलग ताकतें भविष्य को लेकर अपने-अपने कीट-काँटे तैयार रखना चाहती हैं। शुक्रवार
को लखनऊ में पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह ने कहा, मेरे रहते पार्टी में फूट नहीं
हो सकती है। उनके इस बयान से ही पहला सवाल बनता है कि उनके रहते फूट की सम्भावना
क्योंकर बनी। और आने वाले वक्त में क्या फूट नहीं पड़ेगी?
वर्तमान विवाद के पीछे क्या वजह है? यह सैद्धांतिक मसला नहीं, शुद्ध
व्यक्तिगत और विरासत की लड़ाई है। पहले दौर में मुलायम सिंह ने भाई शिवपाल यादव के
पक्ष में ही फैसले किए हैं। बावजूद इसके दोनों पक्ष खुद को आहत महसूस कर रहे हैं। बताया
जाता है कि पार्टी में समझौता
तीन बिंदुओं पर हुआ है। शिवपाल यादव के सभी विभाग वापिस किए जाएंगे। गायत्री प्रजापति
की वापसी होगी और दीपक सिंघल पर फैसला बाद में होगा।
चौथे बिन्दु के रूप में यह बात भी जोड़ी जानी चाहिए कि
अखिलेश से लिया गया पार्टी अध्यक्ष पद शिवपाल यादव के पास रहेगा। यह बात अखिलेश को
सालती रहेगी। शुक्रवार को अखिलेश ने एक टीवी चैनल से कहा भी था कि पार्टी अध्यक्ष
पद से हटाए जाने पर, ‘बुरा तो मुझे लगा और
इसका असर भी आपने देखा।’ यानी शिवपाल यादव के विभागों को कम करना अखिलेश का जवाबी कदम था। उसे वापस ले
लिया गया।
ये बातें पार्टी और सरकार पर वर्चस्व की कहानी
कहती हैं। यह ठीक है कि चुनाव के ठीक पहले पैदा हुए इस विवाद का निपटारा हो गया
है, पर पार्टी के भावी विभाजन की सम्भावनाएं भी तैयार हो गई हैं। फिलहाल कहा जा
रहा है कि विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के चयन में अखिलेश की भूमिका ज्यादा
बड़ी होगी। अखिलेश ने यह बात कही भी है। चूंकि उसमें अंतिम राय मुलायम सिंह की
होगी, इसलिए कहना मुश्किल है कि अखिलेश कितने प्रभावशाली होंगे।
अखिलेश को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने की जरूरत क्यों हुई? शिवपाल यादव का कहना है कि
मुख्यमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को दंभ से बचना चाहिए। अखिलेश को अनंत काल तक
बच्चा समझ कर नहीं चला जा सकता। अखिलेश ने खुद को हटाए जाने पर जितनी तेजी से
फैसले किए उनसे जरूर विस्मय पैदा हुआ। बाद में अखिलेश ने इसकी सफाई भी दी कि कम
उम्र का होने के कारण उनमें जोश ज्यादा था। पर इतना तय है कि यह फैसला उन्हें
पत्थर की तरह लगा। नेतृत्व ने भी इसके बारे में ज्यादा सोचा नहीं।
मुलायम सिंह के चचेरे भाई रामगोपाल यादव ने कहा कि
पार्टी नेतृत्व को अखिलेश को अध्यक्ष पद से हटाना नहीं चाहिए था। बाद में लखनऊ में
मुलायम सिंह ने भी कहा, ‘गलती हुई हमसे।’ हालांकि उन्होंने स्पष्ट नहीं किया कि क्या गलती हुई, पर अनुमान लगाया जा रहा
है कि उनका आशय यही था। मुलायम सिंह का उद्देश्य उत्तर प्रदेश के चुनावों को जीतना
है। इस चुनाव के साथ पार्टी की प्रतिष्ठा दाँव पर है। उन्होंने बाद में लखनऊ में
अपने कार्यकर्ताओं से कहा भी, ‘बस एक बात कहते हैं कि सरकार दोबारा बना लेना।’
और जो भी हो, बहरहाल इस घटनाक्रम के बाद पार्टी में फॉल्ट
लाइंस तैयार हो गईं हैं। भविष्य के मोर्चे खुल गए हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद यह
विवाद नई शक्ल में उभरेगा। सरकार बनी तब, और नहीं बनी तब भी। इसकी पृष्ठभूमि सन
2012 के चुनाव के दौरान ही बन गई थी। मुलायम सिंह यादव ने तब उत्तर प्रदेश की
बागडोर अखिलेश यादव को सौंपने का मन बना लिया था। अखिलेश ने अपनी छवि आधुनिकता
समर्थक, सौम्य और साफ बनाने की कोशिश की है। इसमें काफी हद तक वे सफल भी रहे।
उम्मीद थी कि 2014 के लोकसभा चुनाव में त्रिशंकु संसद बनी
तो मुलायम सिंह की केन्द्र में बड़ी भूमिका हो सकती है। वैसा हुआ नहीं। इस दौरान
मुलायम सिंह केन्द्र में तीसरे-चौथे मोर्चे की सम्भावनाओं के केन्द्र में भी रहे।
बिहार के महागठबंधन के साथ जुड़े और छोड़ा। मुलायम सिंह चाहते थे कि अखिलेश को
उत्तर प्रदेश में फ्री हैंड देने के लिए कुछ वरिष्ठ नेताओं को अलग करना होगा। इसके
लिए राज्यसभा की सीटों की मदद ली गई। दिल्ली में उन्हें विश्वस्त सहयोगी या
सहयोगियों की भी जरूरत है।
पार्टी उत्तर प्रदेश केन्द्रित है, इसलिए दिल्ली के नेताओं
की निगाहें भी यूपी पर रहती हैं। जब तक मुलायम सिंह सर्वोपरि हैं, तब तक पार्टी के
विवादों को निपटाया जा सकता है, पर भविष्य में एकता की धुरी क्या होगी? पार्टी के भीतर आलोड़न है। मुलायम सिंह को
पार्टी की भावी संरचना को लेकर अवधारणा बनानी होगी। उन्हें नैतिकता से जुड़े मसलों
को भी सोचना होगा। गायत्री प्रजापति को हटाने का कदम इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक आदेश
के संदर्भ में था। उनकी वापसी का संदेश गलत जाएगा।
हाल में पार्टी में अमर सिंह का प्रवेश भी हो गया है। यह
बात भी अखिलेश को पसंद नहीं आई। उन्होंने बाहरी व्यक्ति पर परोक्ष तंज भी किया। पर
अमर सिंह अखिलेश के महत्व को समझते हैं। हाल में उन्होंने एक चैनल पर कहा, हम सभी पुराने लोगों को
ये मानना होगा कि अखिलेश हमारे सामने खेलने वाला बच्चा नहीं है, बल्कि यूपी के करोड़ों लोगों का मुख्य अभिभावक है। व्यावहारिक राजनीति के लिहाज से संगठन पर शिवपाल
की पकड़ बेहतर है। पर व्यक्तिगत छवि अखिलेश की बेहतर है। दोनों का समन्वय मुलायम
को करना है। देखें वे करते क्या हैं।
एक बार धागा टूट जाये या टूटने की कगार पर आ जाये।, तो उसे गांठ लगा कर कब तक कितने दिन तक चलाया जा सकता है ?यह सिलसिला अब ज्यादा दिन नहीं चलना है ,दल पर अधिकार की दृष्टि से अब मुलायम कमजोर हो गए हैं ,संगठन में कई खेमे बन गए हैं , सब अपनी अपनी शक्ति की आजमाइश पर लगे हैं , राज्य में वापिस स पा की सरकार आने की संभावना और कम हो गयी है , यदि ऐसा हुआ तो शायद वापिस सम्बन्ध सुधर जाएँ , बिन सत्ता फिर करेंगे क्या ?जैसा आपने बताया कमोबेश यह हालात सभी दलों में आनी है , लेकिन यहाँ सब से बड़े कुनबे की अंदरूनी खींचातानी मुलायम के सामने ही आ गयी है , और वे कार्यकर्ताओं से एक बार जिताने की जो याचना कर रहे हैं वह इसीलिए है कि उनका खुद को केंद्र में कुछ बन जाने का सपना शायद साकार बन जाए , हालांकि मोदी के रहते यह होना सम्भव नहीं है
ReplyDelete