हाल में गूगल की एशिया-प्रशांत
भाषा प्रमुख रिचा सिंह चित्रांशी ने राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के
छात्रों से कहा कि सन 2020 तक भारत की ऑनलाइन जनसंख्या 50 करोड़ पार कर जाएगी.
इनमें से ज्यादातर लोग भारतीय भाषाओं के जानकार होंगे. यह सामान्य खबर है, पर इसके
निहितार्थ असाधारण हैं. कनेक्टिविटी ने ‘डायरेक्ट डेमोक्रेसी’ की
सैद्धांतिक सम्भावनाओं को बढ़ाया है. गोकि उस राह में अभी काफी दूर तक चलना है, पर
भारत जैसे साधनहीन समाज में इंटरनेट ने बदलाव के नए रास्ते खोले हैं.
दस साल पहले लोग नेट पर काफी कम
लोग हिन्दी लिख पाते थे. आज ज्यादातर स्मार्टफोन हिन्दी लिखने की सुविधा देते हैं.
हालांकि ह्वाट्सएप और फेसबुक पर चुटकुलों और अफवाहों की भरमार है, पर यह ज्वार भी
उतरेगा. संजीदगी की सम्भावनाएं भी कम नहीं हैं. खासतौर से प्रशासनिक व्यवस्था को
सुचारु बनाने में डिजिटाइज़ेशन का आकाश खुला हुआ है.
एक जमाने में हम लोग हाईस्कूल के प्रमाणपत्र की ‘ट्रू कॉपी’ बनाने के लिए परचूनी दुकान से
छपा हुआ फॉर्म लाते थे. उसे भरकर किसी सम्मानित व्यक्ति की चिरौरी करते थे. फिर
फोटोकॉपी का जमाना आया. ‘सेल्फ अटेस्टेशन’ की अनुमति हुई. जटिलताएं अब भी हैं.
पासपोर्ट बनवाकर देखिए पसीने आ जाएंगे. कम्प्यूटराइज्ड रेलवे रिजर्वेशन ने काफी
परेशानियाँ दूर कीं, पर कहीं न कहीं पेच फँसे है. ऑनलाइन रिजर्वेशन ने जीवन सरल
किया, पर दलाली का चक्कर खत्म नहीं हुआ है. ड्राइविंग लाइसेंस के नियम पारदर्शी बने,
पर दिक्कतें कहीं न कहीं फिर भी कायम हैं.
हाल में मुझे एक मृत्यु प्रमाणपत्र के सिलसिले में नगर निगम
के कार्यालय में कई बार दौड़ लगानी पड़ी. इस दौड़ का लम्बा अनुभव हममें से ज्यादातर
लोगों के पास है. हम राशन कार्ड, गैस कनेक्शन, आधार कार्ड, वोटर कार्ड न जाने किस-किस
चीज के लिए दौड़ते रहे हैं. कागज बन जाता है तो आपके नाम के हिज्जे गलत होते
हैं. या पिता/पति के नाम गलत. दो साल के
बच्चे की उम्र 72 साल हो जाती है या मकान नम्बर गलत. बिजली के बिल की रीडिंग गलत
होती है. रीडिंग है तो कम्प्यूटर में गलत फीड होती है. गलती होने के बाद करेक्शन
के लिए दौड़ते हैं. एक मित्र अपना अनुभव बता रहे थे कि ‘आधार’ में करेक्शन कराने के लिए दस्तावेज लेकर
बिहार आने का हुक्म हुआ है. दिल्ली में काम करते हैं, घर बिहार में है. परेशानी तो
है.
बताते हैं कि अमेरिका में सारे काम मिनटों में होते हैं.
एकबार सोशल सिक्योरिटी नम्बर मिल जाए, फिर सारे काम चट-पट हो जाते हैं. हम
उसी रास्ते पर हैं, पर मशीनरी पुरानी है. अर्थशास्त्री इशर जज अहलूवालिया ने देश के शहरीकरण पर काफी काम
किया है. अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने एक दौर में इंडियन एक्सप्रेस में
‘पोस्टकार्ड्स ऑफ चेंज’ नाम से लेखों की लम्बी सीरीज़ लिखी थी, जिसमें यह बात
रेखांकित हुई कि किस तरह सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल ने व्यवस्था को चमत्कारिक
तरीके से बदल दिया.
शहरों में सफाई, पानी और बिजली की सप्लाई से लेकर सार्वजनिक
चिकित्सा और परिवहन जैसे हर काम में डिजिटाइटेशन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सफाई
कर्मचारियों की हाजिरी से लेकर ट्रांसफॉर्मरों की स्थिति, कम्पलेंट और फॉल्ट दूर
करने के काम में हर जगह इंटरनेट और आईटी ने बदलाव किया है. पर तस्वीर के पहलू और
भी हैं. हाल में हमने उड़ीसा के दाना मांझी की तस्वीरें देखीं, जो अपनी पत्नी की
लाश को कंधे पर ढो रहा था. उसके बाद कई दिन तक अपने प्रियजन की लाशें ढोते लोगों
की तस्वीरें हमें देखने को मिलीं.
यह रोज का नजारा है. चूंकि यह टीवी पर दिखाई पड़ा इसलिए
हमें आश्चर्य हुआ. फर्क उस तकनीक से पड़ा है, जिसने इसे दर्ज करके पूरे देश को
हाथों-हाथ दिखाना शुरू किया है. वर्षों पहले हम अखबारों के दफ्तरों में सबसे तेज
खबर उसे मानते थे, जो तार के मार्फत मिलती थी. डाक से आई हफ्तों पुरानी खबरें प्रादेशिक
पेज पर छपती थी. नब्बे के दशक में फैक्स से खबरें आने लगीं. पर ज्यादा बड़ी
क्रांति इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में हुई जब इंटरनेट ने छोटे-छोटे कस्बों और
गाँवों में प्रवेश किया. फिर ब्रॉडबैंड ने इस गति को तेज किया.
अचानक हमें अपने जीवन की खामियाँ नजर आने लगीं हैं. ये दोष
हमारे जीवन और समाज में पहले से उपस्थित हैं. अब हर हाथ में कैमरा है और हरेक के
पास अपना चैनल है. ट्विटर और फेसबुक ने कहानी बदल कर रख दी है. इस दर्पण में हमारा
समाज नजर आ रहा है.
रॉबिन जेफ्री की किताब ‘इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवॉल्यूशन’ सन 2000 में प्रकाशित हुई थी. उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया कि
अखबारी क्रांति ने एक नए किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया है. उन्होंने 1993 में
मद्रास एक्सप्रेस से आंध्र प्रदेश की अपनी एक यात्रा का जिक्र किया, जिसमें उनका
सहयात्री एक पुलिस इंस्पेक्टर था. अखबारों की जिक्र हुआ तो पुलिस वाले ने कहा,
अखबारों ने हमारा काम मुश्किल कर दिया है. पहले गाँव में पुलिस जाती थी तो गाँव
वाले डरते थे. पर अब नहीं डरते.
रॉबिन जेफ्री जब दरोगा से बात कर रहे थे उसके बीस साल पहले कहानी
कुछ और थी. तब सबसे नजदीकी तेलुगु अख़बार तकरीबन 300 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से
आता था. सन 1973 में ईनाडु का जन्म भी नहीं हुआ था. 1993 में उस इंस्पेक्टर के
हल्के में तिरुपति और अनंतपुर से अख़बारों के संस्करण निकलते थे. रॉबिन जेफ्री के
उस अनुभव को चौथाई सदी बीत चुकी है और कहानी अखबारों के दायरे से बाहर जा चुकी है.
मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए
गाजियाबाद नगर निगम के दफ्तर में दौड़ लगाते वक्त मुझे ज्ञान हुआ कि ऑनलाइन
पंजीकरण कराने से नाम, पते और उम्र में गलती की सम्भावना कम होगी. वह काम आप खुद
अपने हाथ से करते हैं. किसी दूसरे को कम्प्यूटर में फीड नहीं करना होता. ‘आधार’
के करेक्शन के लिए दफ्तर जाकर दस्तावेज दिखाने की जहमत भी तब नहीं उठानी होगी, जब ‘डिजिटल
लॉकर’ पूरी तरह प्रभावी हो जाएगा.
पश्चिमी देशों के मुकाबले हमारी
चुनौतियाँ कहीं बड़ी हैं. वह समाज हमसे लगभग दो सौ साल पहले साक्षरता की न्यूनतम हदों
को पार कर चुका है. हमारी दौड़ अभी जारी है. अब साक्षरता के साथ डिजिटल शब्द और
जुड़ा है. जागरूक नागरिक माने डिजिटल नागरिक.
प्रभात खबर में प्रकाशित
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