अगस्त 2014 में विदेशमंत्री सुषमा
स्वराज ने वियतनाम की राजधानी हनोई में कहा कि मोदी सरकार भारत की ‘लुक ईस्ट
पॉलिसी’ को सार्थक बनाते हुए उसे ‘एक्टिंग ईस्ट’ का रूप देना चाहती है। मई में
विदेशमंत्री बनने के बाद वह सुषमा स्वराज की छठी विदेश यात्रा थी। उसके अगले महीने
सितम्बर 2014 में तीन बड़ी गतिविधियों ने भारत की विदेश
नीति को नई दिशा दी। महीने के पहले हफ्ते में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जापान यात्रा
पर गए। तीसरे हफ्ते में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत यात्रा पर आए और महीने के
अंतिम सप्ताह में प्रधानमंत्री अमेरिका यात्रा पर गए।
इन तीनों यात्राओं के तीन निष्कर्ष थे। एक, चीन एक महत्वपूर्ण ताकत है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। दो, भारत को पूँजी निवेश और नवीनतम तकनीक चाहिए और ऐसी सामरिक
नीतियाँ जो दक्षिण एशिया से प्रशांत क्षेत्र तक शांति और स्थिरता कायम करें।
दुनिया की नम्बर एक अर्थ व्यवस्था चीन बन भी जाए, पर वह
तकनीक-विज्ञान में अमेरिका को अगले पाँच दशक में भी नहीं पकड़ पाएगा। तीसरी और
सबसे महत्वपूर्ण बात थी ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ का विस्तार।
भारत केवल जापान और आसियान देशों के साथ जो नए रिश्ते बना
रहा है वे सितम्बर 2016 में प्रौढ़ हो रहे हैं।
यह बात अगले कुछ महीनों में जापान में होने वाले भारत-जापान वार्षिक शिखर सम्मेलन
में और स्पष्ट होगी। हमारे ज्यादातर विवाद पश्चिमी सीमा पर हैं और सहयोग की
सम्भावनाएं पूर्व में। भारतीय राजनय के सामने इस वक्त कम से कम तीन बड़े लक्ष्य
हैं। आर्थिक प्रगति के लिए वैश्विक सहयोग की तलाश। दूसरे, राष्ट्रीय सुरक्षा की दीर्घकालीन योजना, जो बदलते वैश्विक परिदृश्य से मेल खाए। और तीसरे, पड़ोस और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बदलते घटनाक्रम के
मद्देनजर राष्ट्रीय हितों की रक्षा।
दक्षेस के विकल्पों की खोज
मोदी सरकार ने 2014 में शुरुआत पड़ोस के आठ
शासनाध्यक्षों के स्वागत के साथ की थी। उम्मीद थी कि दक्षिण एशिया में सहयोग का
माहौल बनेगा और आर्थिक प्रगति की राहें खुलेंगी। ऐसा हुआ नहीं। काठमांडू के दक्षेस
शिखर सम्मेलन में पहली ठोकर लगी। उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल
सम्पर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़
सभी देश इसके लिए तैयार थे। काठमांडू में दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड बनाने पर
पाकिस्तान सहमत हो गया था, पर कहना मुश्किल है कि वह इसमें उत्साह से
हिस्सा लेगा या नहीं।
काठमांडू के बाद दक्षेस का अगला शिखर सम्मेलन इस साल
पाकिस्तान में होगा। हाल में पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायुक्त ने कहा है कि
नरेन्द्र मोदी इसमें हिस्सा लेंगे, पर कहना मुश्किल है कि दक्षेस की गाड़ी आगे
चलेगी या नहीं। काठमांडू में मोदी ने पाकिस्तान के रुख को देखते हुए कहा था, दक्षिण
एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण होकर रहेगा, दक्षेस के मंच पर नहीं तो किसी दूसरे मंच से सही। यानी कि ज्यादातर परियोजनाओं में
दक्षेस के बजाय किसी दूसरे फोरम के मार्फत काम करना होगा।
‘माइनस पाकिस्तान’ राजनय
इसके बाद भारतीय राजनय में बदलाव आया। ‘माइनस पाकिस्तान’ अवधारणा बनी। दक्षेस से बाहर जाकर
सहयोग के रास्ते खोजने शुरू हुए। शुरुआत 15 जून 2015 को थिम्पू में हुए बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल मोटर वेहिकल एग्रीमेंट (बीबीआईएन) से हुई। इसी आशय का
एक त्रिपक्षीय समझौता अफगानिस्तान और ईरान से हुआ है। इसके तहत ईरान के चहबहार
बंदरगाह का विकास भारत करेगा, जहाँ से अफगानिस्तान तक
माल का आवागमन सड़क मार्ग से होगा।
ईरान से रूस और अंततः यूरोप तक के लिए ‘नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर’ की एक अवधारणा भी है। मध्य एशिया
से जुड़ने के लिए हमें रास्ते की जरूरत इसलिए है,
क्योंकि
पाकिस्तान ने अफगानिस्तान तक जमीनी रास्ता देने से मना कर दिया है। इसके पहले भारत
साउथ एशिया सब रीजनल इकोनॉमिक को-ऑपरेशन संगठन में शामिल हुआ। इसमें भारत के अलावा
बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका सदस्य हैं। इसी तरह बे ऑफ बंगाल
इनीशिएटिव फॉर टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (बिमस्टेक) में भारत के अलावा
बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के
अलावा म्यांमार तथा थाईलैंड भी हैं।
दक्षिण पूर्व से जुड़ते तार
भारत आसियान का डायलॉग पार्टनर है। हम मीकांग-गंगा सहयोग
समूह में भी शामिल हैं, जिसमें भारत के अलावा म्यांमार, थाईलैंड,
वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस सदस्य हैं। मीकांग-गंगा सहयोग समूह इंफ्रास्ट्रक्चर, खासतौर पर हाईवे निर्माण और व्यापार के लिहाज से महत्वपूर्ण
साबित हो सकता है। परिवहन लागत कम होने से भारत की सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के साथ
कनेक्टिविटी बढ़ सकती है। आकर्षक विचार होने के बावजूद इस समूह की
गतिविधियाँ बहुत धीमी हैं, पर सम्भावनाएं काफी बड़ी हैं। म्यांमार से होकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों
को जोड़ने वाली दो बड़ी हाइवे परियोजनाओं पर काम चल रहा है, जिनमें जापान और चीन
की भागीदारी भी है।
पिछले साल दिसम्बर में आसियान ने आर्थिक सहयोग समुदाय बनाने
की घोषणा की है। इन देशों की अर्थ-व्यवस्थाओं के एकीकरण की कोशिशें लगातार हो रही
हैं। हालांकि भारत ने इसके साथ जुड़ने में देरी की है, पर अब यह भारत का
महत्वपूर्ण पार्टनर है। इन देशों को साथ हमारा फ्री ट्रेड एग्रीमेंट है। आसियान के
साथ हमारा लगभग 75 अरब डॉलर का सालाना कारोबार है, जो इसके पूरे कारोबार का तकरीबन
3 प्रतिशत है। यानी आसियान के साथ प्रचुर सम्भावनाओं का बाजार खुला है।
हमारी विदेश नीति के दो लक्ष्य हैं. एक, सामरिक और दूसरा आर्थिक। देश को जैसी आर्थिक गतिविधियों की
जरूरत है वे उच्चस्तरीय तकनीक और विदेशी पूँजी निवेश पर निर्भर हैं। भारत को तेजी
से अपने इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना है जिसकी पटरियों पर आर्थिक गतिविधियों की
गाड़ी चले। अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लियर डील का निहितार्थ केवल नाभिकीय ऊर्जा की
तकनीक हासिल करना ही नहीं था। मूल बात है आने वाले समय की ऊर्जा आवश्यकताओं को
समझना और उनके हल खोजना। दुनिया से शीतयुद्ध विदा हो चुका है, पर पिछले कुछ वर्षों में उसकी वापसी नई शक्ल में होती दिखाई
पड़ रही है। उसके छींटे भी पड़ेंगे।
म्यांमार के द्वार
प्रधानमंत्री मोदी की वियतनाम और चीन यात्रा के ठीक पहले
म्यांमार के राष्ट्रपति यू हटिन क्याव भारत के दौरे पर आए थे। इस साल आंग सान सू
ची की पार्टी ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ के सत्ता में आने के बाद म्यांमार के
राष्ट्रपति पहली बार भारत के दौरे पर आए थे। परम्परा से ‘बर्मा’ हमारे सबसे करीबी
पड़ोसी देशों में है। ऐतिहासिक कारणों से वह दक्षिण के बजाय दक्षिण पूर्व एशिया का
हिस्सा बन गया है, पर वह दोनों के बीच है। दुनिया की दो सबसे तेज गति से विकसित
होती अर्थ-व्यवस्थाएं उसकी पड़ोसी हैं। भारत के साथ उसकी 1700 किलोमीटर लम्बी और चीन के साथ 2000 किलोमीटर लम्बी सीमा है।
म्यांमार की राजनीतिक व्यवस्था में आंग सान सू ची सबसे
महत्वपूर्ण नेता हैं। विदेशमंत्री बनने के बाद वे सबसे पहले चीन की यात्रा पर गईं।
उनके वहाँ से वापस लौटने के फौरन बाद श्रीमती सुषमा स्वराज ने म्यांमार का दौरा
किया। फिर वहाँ के राष्ट्रपति भारत यात्रा पर आए। भारत को अपने पूर्वोत्तर की
अशांति पर नियंत्रण के लिए म्यांमार के सहयोग की जरूरत है। सैनिक शासन के दौरान
भारत ने म्यांमार को वैश्विक समुदाय से अलग-थलग होने से बचाया। भारत की इस खामोश
पहल के कारण वह चीन पर अतिशय आश्रित नहीं रहा और पश्चिमी देशों के साथ उसके रिश्ते
ज्यादा खराब नहीं हुए।
म्यांमार में लगभग 30 लाख भारतीय मूल के
निवासी रहते हैं। बौद्ध धर्म दोनों देशों की एकता का एक महत्वपूर्ण सूत्र है। उसके
पास खनिज तेल है, पर तेलशोधन की व्यवस्था नहीं है। भारत इसमें
मदद कर सकता है। प्राकृतिक साधनों से सम्पन्न यह देश गरीब है। उसके लगभग 70 प्रतिशत निवासियों तक बिजली नहीं पहुँची है। हमारे
पूर्वोत्तर के विकास के साथ म्यांमार के रूपांतरण की भी काफी सम्भावनाएं हैं। इन
दिनों भारत-म्यांमार-थाईलैंड को जोड़ने वाले 3200 किलोमीटर लम्बे हाईवे के
निर्माण का काम चल रहा है। गुवाहाटी से शुरू होकर यह रास्ता बैंकॉक तक जाएगा।
फिलहाल गुवाहाटी से म्यांमार के मांडले तक की सड़क इसी साल बन जाने की आशा है।
अंततः यह परियोजना एशियन हाईवे की परिकल्पना को साकार करेगी। भविष्य में भारत से
कम्बोडिया-लाओस तक प्रस्तावित राजमार्ग भी म्यांमार से होकर गुजरेगा। एक रास्ता
दक्षिण चीन से कोलकाता तक लाने की योजना है।
आतंकवाद की छाया
वैश्विक आर्थिक विकास की धारा बदल रही है। इसके साथ ही
आतंकवाद भी सिर उठा रहा है। यह आतंकवाद मध्ययुगीन धारणाओं से प्रेरित है। इसका समाधान
है तेज आर्थिक विकास और आधुनिकता। नरेन्द्र मोदी ने चीन के हांगचो में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान का नाम लिए बगैर सीधा इशारा
उसकी ओर किया है। भारत-पाकिस्तान रिश्तों में कड़वाहट कम नहीं हो रहा है। इधर
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत की सदस्यता को लेकर चीन की आपत्तियों इसका एक
नया आयाम पैदा हुआ है।
पिछले साल मई में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपनी
पाकिस्तान यात्रा के दौरान चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के लिए 46 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा करके आग में घी डालने का काम
किया। यह परियोजना पाकिस्तान के आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होगी, पर इसके
सामरिक निहितार्थ भी हैं। यह कॉरिडोर कश्मीर के गिलगित-बल्तिस्तान से होकर
गुजरेगा। इसके निर्माण की आड़ में चीन की सेना पाक अधिकृत कश्मीर में भी तैनात हो
गई है। इसके साथ ही पाकिस्तान करीब बीस हजार सैनिकों की एक अलग फौज इसके लिए तैयार
कर रहा है। इसके निर्माण के साथ पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्विरोध भी
जुड़े हैं। बलूचिस्तान, सिंध और पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के लोगों को पंजाब से
शिकायतें हैं।
यह कॉरिडोर जिस इलाके से गुजरता है उसके स्वामित्व को लेकर
भारत का दावा है। एक ओर भारत के चीन और पाकिस्तान के साथ रिश्तों में कड़वाहट आ
रही है, दूसरी ओर भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग के समझौते हुए हैं। अमेरिका
की मदद से भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम का सदस्य बन गया है। भारत को
एनएसजी का सदस्य बनाने की पहल है। एकबारगी लगता है कि भारत ने अमेरिका के पाले में
जाने का फैसला कर लिया है। उधर रूस और चीन के रिश्ते फिर से परिभाषित हो रहे हैं। वैश्विक
राजनीति एशिया-प्रशांत क्षेत्र पर केन्द्रित हो गई है। इसकी वजह समुद्री व्यापार
मार्ग हैं। चीन को लेकर हमारी ज्यादा बड़ी शिकायत सीमा और आर्थिक रिश्ते नहीं हैं।
हमें शिकायत पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों को लेकर है।
चीन से पहले वियतनाम यात्रा
नरेन्द्र मोदी की वियतनाम यात्रा का कार्यक्रम अंतिम क्षणों
में बना। मूल रूप में उन्हें हांगचो के जी-20 शिखर सम्मेलन में जाना
था। उसके बाद विएनतिएन के आसियान सम्मेलन में। पर चीन के पहले वियतनाम जाकर भारत
ने राजनयिक संदेश दिया है। दक्षिण चीन सागर को अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के
निर्णय के बाद भारत का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत संतुलित रहा है, पर इस यात्रा के बाद
वियतनाम और आसियान देशों के पक्ष में हमारा झुकाव प्रकट हुआ है। पर इससे यह
निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि हमने चीन से पंगा लेने का फैसला कर लिया है। फिलहाल
भारत इस मामले को शांतिपूर्ण तरीके से निपटाने के पक्ष में है। अभी सभी पक्ष
सावधानी बरत रहे हैं।
मोदी की वियतनाम यात्रा के दौरान 12 समझौतों पर दस्तखत हुए। उन्होंने प्रधानमंत्री एनग्वेन
शुआन फुक से बातचीत के बाद रक्षा सहयोग को बढ़ाते हुए 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण भी वियतनाम को देने की घोषणा की।
हालांकि ब्रह्मोस मिसाइल के बाबत कोई घोषणा नहीं हुई, पर जल्द ही औपचारिक घोषणा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। इस
सौदे के पीछे रूस की भूमिका भी है, क्योंकि यह संयुक्त उपक्रम है। इसलिए पृष्ठभूमि
में चल रही गतिविधियों को समझना भी जरूरी है।
चीन यात्रा के ठीक पहले मोदी का वियतनाम जाना सांकेतिक रूप
से महत्वपूर्ण तो है ही। दोनों देशों के रिश्तों को पिछले कुछ समय से भारत-चीन
रिश्तों के संदर्भ में देखा जाने लगा है। सवाल है कि क्या हमारे लिए वियतनाम वैसा
ही साबित होगा जैसे चीन के लिए पाकिस्तान है? और यह भी कि क्या चीन को घेरने की अमेरिकी नीति का हिस्सा भारत
बनने जा रहा है?
कौन किसको घेर रहा है?
प्रति-प्रश्न यह भी है कि ‘क्या वन बेल्ट, वन रोड’ चीन की भारत को घेरने की योजना है, जिसे ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ कहा जाता है? चीन ने श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह का विकास किया है। मालदीव में उसने पैठ
बनाई है। बंगाल की खाड़ी में कोको द्वीप में फौजी अड्डा बनाया है। क्या हम वियतनाम
में इन बातों का जवाब दे रहे हैं? ऐसे निष्कर्ष
निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। वियतनाम के साथ चीन के रिश्ते उतने खराब
नहीं हैं जितने हम दूर से समझ रहे हैं। उनके आर्थिक रिश्ते मुकाबले भारत के कहीं
ज्यादा गहरे हैं। भारत और वियतनाम के बीच व्यापार 7.8 अरब डॉलर का है जिसे 2020 तक
15 अरब डॉलर करने पर दोनों देशों के बीच सहमति है। इसके मुकाबले वियतनाम और चीन के
बीच 80 अरब डॉलर से ज्यादा का व्यापार अभी हो रहा है।
भारत और चीन के बीच 70 अरब डॉलर से ज्यादा का
कारोबार है। बावजूद इसके दोनों देशों को सामरिक प्रतिद्वंद्वी माना जाता है। दूसरी
ओर पाकिस्तान और चीन सामरिक दृष्टि से दोस्त हैं, पर उनके बीच
कारोबार 12 अरब डॉलर के आसपास ही है। भारत-वियतनाम सामरिक
रिश्ते निराधार भी नहीं हैं। उनकी शुरुआत 2003 में हो गई थी, जब सहयोग-रूपरेखा की संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर हुए थे।
इसके आधार पर सन 2007 में दोनों देशों के बीच सामरिक साझेदारी की स्थापना
हुई। सन 2001 से अबतक भारत के दो राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील
और प्रणब मुखर्जी और तीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेन्द्र मोदी वियतनाम की यात्रा कर चुके
हैं। यह सब अनायास नहीं है।
सच यह है कि चीन अपने उठान के बाद उतार पर है और भारत का
उठान शुरू हो रहा है। चीन के बरक्स भारत का भी दक्षिण पूर्व एशिया पर परम्परागत असर
है। यह असर सांस्कृतिक है और व्यापारिक भी। सामरिक नीतियाँ आर्थिक हितों की रक्षा
के लिए होती हैं। भारत की नौसेना यदि विमानवाहक पोतों के बेड़े तैयार कर रही है तो
उसका लक्ष्य सुदूर पूर्व प्रशांत क्षेत्र है। वह जल्द ही ‘हिन्द-प्रशांत’ क्षेत्र की निगहबानी करती नजर आएगी।
दोस्ती का विस्तार
वियतनाम आसियान का सदस्य है और भारत इस संगठन का डायलॉग
पार्टनर है। आसियान के साथ भारत का फ्री-ट्रेड समझौता है। वियतनाम ट्रांस-पैसिफिक
पार्टनरशिप का भी सदस्य है। दोनों देश मीकांग-गंगा सहयोग समूह के भी सदस्य हैं।
हालांकि यह समूह सक्रिय नहीं है, पर इसके तहत सहयोग की
काफी सम्भावनाएं हैं। वियतनाम के साथ हमने समुद्र में तेल-खोज का समझौता किया है।
यह खोज दक्षिण चीन सागर में हो रही है, जिसकी सीमा को लेकर चीन और वियतनाम के बीच मतभेद हैं। भारत ने
वियतनाम में सैटेलाइट ट्रैकिंग का एक केन्द्र भी बनाया है।
वियतनाम अपने वस्त्र उद्योग के लिए चीन के बजाय भारत से
कपास तथा अन्य सामग्री लेने जा रहा है। सामरिक दृष्टि से वियतनाम के पास रूस के
हथियार और उपकरण हैं। उनकी मरम्मत और उनसे जुड़ी ट्रेनिंग में भी भारत सहयोग कर
रहा है। दोनों देशों के बीच स्वास्थ्य, सायबर सुरक्षा, पोत निर्माण और नौसैनिक सूचना आदान-प्रदान से जुड़े समझौते
भी हुए हैं। भारत ने इस इलाके में खाद्य प्रसंस्करण, उर्वरक, चीनी, ऑटो पार्ट्स, आईटी और कृषि-रसायन पर तकरीबन एक अरब डॉलर का निवेश किया
है। समय के साथ यह बढ़ेगा और हमारे हित इस इलाके में बढ़ेंगे। भारत को संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने और एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग संगठन
‘एपेक’ का सदस्य बनने के लिए भी वियतनाम का समर्थन चाहिए।
कामोर्टा सौदे का सबक
सितम्बर के पहले हफ्ते में फिलीपींस के रक्षा मंत्रालय ने भारत के गार्डन रीच शिप बिल्डर्स को कामोर्टा पोत के सौदे में
अयोग्य घोषित कर दिया। गार्डन रीच भारत की सरकारी कम्पनी है, जिसने फिलीपींस के
लिए दो कामोर्टा वर्ग के पोत बनाने के लिए जो निविदा भरी थी, वह सबसे उपयुक्त पाई
गई थी। पर कम्पनी के
आर्थिक आकलन के कारण यह सौदा हाथ से निकल गया और दक्षिण कोरिया की कम्पनी ह्यूंडे
को मिल गया। भारत का यह 2150 करोड़ रुपए सौदा अब तक का सबसे बड़ा रक्षा सौदा होता।
विस्मय की बात है कि भारत सरकार की कम्पनी आर्थिक रूप से कमजोर साबित हुई और उसकी
जगह दक्षिण कोरिया की निजी कम्पनी को यह ठेका मिल गया। भारतीय पोत तकनीकी लिहाज से
ह्यूंडे के पोत से बेहतर था। भारत रक्षा व्यापार में पहली बार उतर रहा है। शायद यह
अनुभवहीनता के कारण हुआ।
हमारी अर्थ-व्यवस्था का जैसे-जैसे विस्तार होगा उसे अपनी
सामरिक नीतियों को मजबूत बनाना ही होगा। हमने रक्षा निर्यात के क्षेत्र में उतरने
का फैसला काफी देर से किया है और अब भी हम काफी हिचक के साथ कदम उठा रहे हैं। जिस
तरह चीन अपने सिल्क रूट बना रहा है, उसी तरह भारत को अपने
कारोबारी रास्तों का विकास करना और उनकी सुरक्षा के बारे में भी सोचना होगा।
हिन्द-प्रशांत सम्पर्क
भारतीय विदेश नीति का समुद्री सुरक्षा के साथ गहरा रिश्ता
है। देश की 15,106.7 किलोमीटर लम्बी थल सीमा और 7,516.6 किलोमीटर लम्बे समुद्र तट की रक्षा और प्रबंधन का काम आसान
नहीं है। पिछले तीन सौ साल का अनुभव है कि हिन्द महासागर पर प्रभुत्व रखने वाली शक्ति
ही भारत पर नियंत्रण रखती है। हिन्द महासागर अब व्यापार और खासतौर से पेट्रोलियम
के आवागमन का मुख्य मार्ग है। भारत के विदेश व्यापार का 50 फीसदी इसी रास्ते से
आता है।
लम्बे अरसे तक भारत पूर्व एशिया के देशों से कटा रहा।
दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का सहयोग संगठन आसियान 1967 में बना था। उसे
बने 49 साल हो गए हैं। शुरूआत में भारत के पास भी
इसमें शामिल होने का अवसर था। पर वह शीतयुद्ध का दौर था और आसियान अमेरिकी गुट से
जुड़ा संगठन माना गया। सन 1992 में भारत आसियान का
डायलॉग पार्टनर बना। दिसम्बर 2012 में भारत ने जब आसियान
के साथ सहयोग के बीस साल पूरे होने पर समारोह मनाया तब तक हम ईस्ट एशिया समिट में
शामिल हो चुके थे और हर साल आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में भी शामिल होते हैं। सन 2005 में मलेशिया की पहल से शुरू हुआ ईस्ट एशिया समिट इसलिए
महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत भी इसका सदस्य है।
पांचजन्य में प्रकाशित
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