खटिया खड़ी करना मुहावरा है। कांग्रेस पार्टी ने खटिया पे
चर्चा शुरू करके राजनीति में अपनी वापसी की कोशिशें शुरू की हैं। राहुल गांधी अपने
जीवन की सबसे लम्बी यात्रा पर निकले हैं। पार्टी के लिए यह दौर बेहद महत्वपूर्ण
है। उसे एक तरफ संगठनात्मक पुनर्गठन के काम को पूरा करना है और दूसरी ओर राष्ट्रीय
राजनीति में अपनी मौजूदगी को लगातार बनाए रखना है। कांग्रेस फिलहाल राष्ट्रीय
पहचान के लिए संघर्ष कर रही है। पर क्षेत्रीय आधार के बगैर वह अपनी राष्ट्रीय
पहचान किस तरह बचाएगी?
राष्ट्रीय स्तर पर उसकी सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धी
बीजेपी है, पर उसके क्षेत्रीय शत्रु और मित्र कौन हैं? मसलन यूपी में बीजेपी के विरोधी सपा और बसपा भी
हैं। पंजाब और गोवा में आम आदमी पार्टी भी उसके साथ भाजपा विरोधी पार्टी है।
गुजरात में सामाजिक समीकरण बदल रहा है। वहाँ पटेल आंदोलित हैं, पर क्या वे
कांग्रेस के साथ आएंगे? क्या उत्तराखंड और हिमाचल में कांग्रेस की सरकारें बचेंगी? और यह भी कि क्या
राहुल गांधी पार्टी के पूर्ण अध्यक्ष घोषित होंगे, जिसका लम्बे अरसे से इंतजार है।
अगले साल हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव हैं। पंजाब में कांग्रेस
के लिए मौका है। राष्ट्रीय असर के लिहाज से उत्तर प्रदेश और गुजरात के चुनाव ज्यादा
महत्वपूर्ण हैं। सवाल है कि क्या कांग्रेस यूपी में 2012 की सफलता यानी 403 में से
28 के ऊपर जाएगी? राहुल गांधी देवरिया से
दिल्ली की 2500 किलोमीटर लम्बी किसान-यात्रा पर निकले हैं। इस दौरान वे उत्तर
प्रदेश के 80 में से 55 लोकसभा और 403 में से 223 विधानसभा क्षेत्रों को छूएंगे।
अभी तक कांग्रेस 2019 की तैयारी ही करती नजर आती है। उत्तर
प्रदेश के परिणाम भी कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति को कोई शक्ल देंगे। हाल में
जीएसटी और कश्मीर मामलों में कांग्रेस को राष्ट्रीय मसलों में अपनी भूमिका को
बेहतर बनाने का मौका मिला था। विधानसभाओं के चुनाव परिणाम कांग्रेस के वज़न को
बढ़ाने घटाने का काम करेंगे। उम्मीदें बहुत हैं, पर जोखिम कम नहीं हैं।
‘खाट पर चर्चा’ चुनावी ब्रैंडिंग है। खाट-सभा ग्रामीण भारत से जुड़ने की कोशिश है। मुहावरा
अच्छा है, पर राहुल गांधी देसी मुहावरों का मास्टर बनना होगा। साथ ही अपने आर्थिक
दर्शन को धारदार बनाना होगा। खाट-सभा के लॉजिस्टिक्स पर अच्छी
तरह विचार नहीं किया गया था। पहली सभा में लोग खाटें उठा ले गए। पर इसके बाद हुई सभा में ऐसा
नहीं हो पाया। यानी पार्टी ने अनुभव हासिल किया। ये माइक्रोसभाएं है, बड़ी रैलियाँ
नहीं। इनका असर ज्यादा बड़ा होता है। बड़ी रैलियाँ मीडिया को प्रभावित करती हैं और
छोटी सभाएं जनता को। मीडिया आभासी है, जबकि जनता का विचार बुनियादी।
पहले चार-पाँच दिन का अनुभव है कि राहुल गांधी अपनी सभाओं
में नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार को निशाना बना रहे हैं। उन्होंने बाढ़, फसल नुकसान के मुआवजे, गन्ने के बकाया जैसे मामले उठाए, पर ज्यादातर हमले
मोदी सरकार पर हैं। उनके सीधे निशाने पर समाजवादी पार्टी या बसपा नहीं है। उत्तर प्रदेश के
प्रतीकों से वे मोदी को निशाना बना रहे हैं। सीधा मतलब यह कि वे यूपी का चुनाव जीतने के लिए नहीं, राष्ट्रीय राजनीति में
बीजेपी को धक्का पहुँचाने के लिए आए हैं। क्या वे इस उद्देश्य को पूरा कर पाएंगे?
अभी तक यात्रा के दौरान नागरिकों
से की गई मुलाकातों से
लगता है कि वे निजी और नजदीकी संवाद के जरिए गरीबों, मजदूरों और दलितों को लुभाना चाहते हैं। यह कांग्रेस का
परम्परागत वोटर है। पर कांग्रेस का वोटर तो पूरा देश था। उसे देखना होगा कि आज
उसका कोर वोटर कौन है। उत्तर प्रदेश में पार्टी ब्राह्मणों को भी लुभा रही है।
बीएसपी भी ब्राह्मणों को लुभा रही है और भाजपा दलितों को। पर अभी तक चुनाव में
मुद्दों की कोई लहर नहीं है। इसका मतलब है कि पार्टियों की संगठनात्मक शक्ति काम
करेगी।
राहुल के अयोध्या में हनुमानगढ़ी जाकर दर्शन करने के माने
यह निकाले गए कि वे हिन्दू मनोदशा को पुचकार रहे हैं, पर ‘रामलला विराजमान’ से बेरुखी बताती है कि
वे इसके जोखिम से घबराते हैं। लोकसभा की पराजय के बाद पार्टी के भीतर भी कहा गया
कि हमारी छवि हिन्दू-विरोधी है। यह संशय अभी कायम है। पर वे संतुलन चाहते हैं। इसीलिए हनुमानगढ़ी के बाद
किचौछा शरीफ़ भी गए। कांग्रेस की संतुलनकारी रणनीति राजीव गांधी के समय में ही
विफल हुई थी। पार्टी ने पहले शाहबानो प्रकरण पर कट्टरपंथियों को खुश किया, फिर
अयोध्या में शिलान्यास कराया।
इस अंतर्विरोध को दूर करने की वैचारिक योजना पार्टी के पास दिखाई
नहीं पड़ती। भारतीय राजनीति शहरीकरण और विकास के बरक्स गाँव-किसान और कृषि-आधारित
अर्थ-व्यवस्था के अंतर्विरोधों से घिरी है। आज राहुल सूट-बूट सरकार को कोसते हैं
और कल सूट-बूट पहने यूरोप में नजर आते हैं। उनकी व्यक्तिगत भूमिका को
लेकर भी कई सवाल हैं। वे संसदीय बहसों में कम हिस्सा लेते हैं। कश्मीर से लेकर
जीएसटी तक पार्टी ने मल्लिकार्जुन खड़गे, गुलाम नबी आजाद, आनन्द शर्मा, अम्बिका
सोनी और पी चिदम्बरम को आगे रखा, उन्हें नहीं। उनकी छवि है कि वे कुछ दिन नजर आते
हैं और फिर गायब हो जाते हैं।
यूपी की इस लम्बी यात्रा से उनकी
उपस्थिति अब कम से कम एक महीने तक लगातार रहेगी। उन्हें अब से लेकर 2019 तक निरंतर
इस सक्रियता को कायम रखना होगा। पार्टी प्रशांत किशोर की इंडियन पोलिटिकल एक्शन
कमेटी (आईपीएसी) की मदद ले रही है। यह बात संगठनात्मक स्तर पर पार्टी की कमजोरी को
भी रेखांकित करती है। यह कमी देश के ज्यादातर राज्यों में है। प्रशांत किशोर की
मदद जितनी व्यावहारिक रूप से कारगर है, उतनी ही स्थानीय कार्यकर्ता की उपादेयता के
सवाल भी खड़े करती है। बहरहाल इसके परिणाम अगले चुनाव के बाद ही पता लगेंगे।
इस यात्रा में प्रशांत किशोर की
टीम के करीब 50 युवा सदस्य लॉजिस्टिक्स सम्हाल रहे हैं। आयोजन के लिहाज से यह
उपयोगी है। खाट सभा से पैदा हुई अटपटी स्थिति का दोबारा न होना भी इस बात को
स्थापित करता है। यह टीम सोशल मीडिया में भी सक्रिय है। सन 2014 के पहले राहुल
गांधी की नकारात्मक इमेज बनाने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका थी। इमेज बिल्डिंग
से ज्यादा यह टीम और कुछ नहीं कर सकती। पार्टी को समझना होगा कि बीजेपी की सफलता
के पीछे केवल मोदी की इमेज बिल्डिंग है या कुछ और भी है।
आपका यह विश्लेषण तर्कों एवं तथ्यों दोनों पर आधारित है । अभिनंदन आपका । कांग्रेस अब केवल अपनी खोई हुई साख का कुछ भाग फिर से पाने की लड़ाई लड़ रही है । यदि वह अपना थोड़ा भी जनाधार पुनः प्राप्त करती है तो यह भारतीय राजनीति के हित में ही होगा जो 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस के पराभव तथा तदोपरांत उसके उत्तरोत्तर दुर्बल पड़ते जाने से लगातार पतित ही हुई है ।
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