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Sunday, September 13, 2020

चीन क्या दबाव में है या दबेगा?

मॉस्को में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के दौरान भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच पाँच सूत्री समझौता हो जाने के बाद भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि चीनी सेना अप्रेल-मई की स्थिति पर वापस चली जाएंगी। ऐसा मानने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इस समझौते में न तो वास्तविक नियंत्रण रेखा का नाम है और न यथास्थिति कायम करने का जिक्र है। होता भी तो वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर चीन और भारत की अलग-अलग परिभाषाएं हैं। सन 2013 में जब चीनी सैनिकों की लद्दाख में घुसपैठ का मामला सामने आया, तब भी यही बात कही गई थी। 

भारत और चीन की सीमा पर कम से कम 20 जगहों के सीमांकन को लेकर दोनों देशों के बीच असहमतियाँ हैं। सन 1980 से लेकर अबतक दोनों के बीच वार्ताओं के कम से कम 20 दौर हो चुके हैं। चीन के सीमा विस्तार की रणनीति को ‘सलामी स्लाइस’ की संज्ञा दी जाती है। माना जाता है कि चीनी सेनाएं धीरे-धीरे किसी इलाके के में गश्त के नाम पर घुसपैठ बढ़ाती हैं और सलामी के टुकड़े की तरह उसे दूसरे देश से काटकर अलग कर देती हैं। चीन इस रणनीति को दक्षिण चीन सागर में भी अपना रहा है। इस इलाके में अंतरराष्ट्रीय सीमा तो स्पष्ट नहीं है, सन 1962 के युद्ध के बाद की वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर भी अस्पष्टता है।

सन 2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में इसी किस्म की गश्त से भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम सरन तब यूपीए सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंतर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। सरकार ने उनकी बात को स्वीकार नहीं किया, पर यह बात रिकॉर्ड में मौजूद है। लगभग उसी अंदाज में इस साल सरकार ने शुरू में चीनी घुसपैठ की बात को स्वीकार नहीं किया था।

भारत ने उसी साल चीन के साथ बॉर्डर डिफेंस कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीसीडीए) पर हस्ताक्षर किए थे। बीसीडीए प्रस्ताव चीन की ओर से आया था। वह चाहता था कि चीन के प्रधानमंत्री ली खछ्यांग की भारत यात्रा के पहले वह समझौता हो जाए। इस समझौते के बावजूद उसी साल अप्रैल में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में। दरअसल चीन के साथ 1993, 1996, 2005 और 2012 में भी ऐसे ही समझौते हुए थे, पर सीमा को लेकर चीन के दावे हर साल बदलते रहे।

बहरहाल मॉस्को में हुआ समझौता दो कारणों से महत्वपूर्ण है। लगता है कि चीन को इस टकराव के दूरगामी परिणाम समझ में आए हैं, और वह दबाव में है। यह हमारा अनुमान है। वास्तव में ऐसा है या नहीं, यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। हम मानते हैं कि वह फिर भी नहीं माना और टकराव बढ़ाने कोशिश करता रहा, तो उसे उसकी कीमत चुकानी होगी। सीमा विवाद को लेकर जिस पाँच सूत्री योजना पर सहमति बनी है, उसे पढ़ने से कोई सीधा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। असल बात भरोसे की और समझौते की शब्दावली को समझने की है। दूसरी बात यह है कि चीनी सेना की ताकत को लेकर दुनिया का भ्रम टूटा है। अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों ने चीन को सैनिक महाशक्ति के रूप में दिखाना शुरू कर दिया है। चीन खुद भी ऐसा दिखाने का प्रयास करता है। वह भ्रम टूटा है और यदि गतिरोध बना रहा, तो और टूटेगा। 

सवाल है कि अप्रेल-मई से पहले की स्थिति पर चीन वापस जाएगा या नहीं? नहीं गया, तो हमारे पास उसे रास्ते पर लाने का तरीका क्या है? इस समझौते के सिलसिले में जो खबरें मिली हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय विदेशमंत्री ने कहा है कि अब भारतीय सेना तबतक पीछे नहीं हटेगी, जबतक वह चीनी सेना के पीछे हटने के बारे में आश्वस्त नहीं हो जाएगी। इसका मतलब है कि भारत अब दबकर नहीं, बल्कि चढ़कर बात करेगा। 

गत 15 जून को गलवान में हुए हिंसक टकराव के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच 5 जुलाई को टेलीफोन पर बातचीत हुई थी। तब फैसला हुआ था कि दोनों देशों की सेनाएं पीछे हट जाएंगी। भारतीय सेना पीछे हट भी गई, पर चीनी सेना कई जगह से नहीं हटी। मसलन पैंगांग झील के तट पर उसे फिंगर 8 के पीछे चले जाना चाहिए था, पर वह फिंगर 5 पर डटी रही। चीनी राजनयिकों की बातों से जबर्दस्त अहंकार की गंध आने लगी थी। टेलीफोन से संपर्क करने पर वे जवाब नहीं देते थे और उनके बयानों से लगता था कि जो हो गया, सो हो गया अब बढ़े हुए कदमों को वापस नहीं लेंगे।

चीन को लगता था कि भारत के पास अब इस स्थिति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसकी यह समझ गलत थी। पता नहीं किस कारण से भारत सरकार ने शुरू में इस बात को स्वीकार नहीं किया कि चीन ने भारतीय जमीन पर कब्जा किया है। चीन को लगा कि भारत की ओर से किसी किस्म की जवाबी कार्रवाई नहीं होगी। उसने भारत की उपेक्षा की, पर सेना की एक कार्रवाई ने कहानी बदल दी। 29-30 अगस्त की रात भारतीय सेना ने पैंगांग के दक्षिणी किनारे की ऊँची पहाड़ियों पर कब्जा करके अपनी स्थिति बेहतर बना ली। साथ ही भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ विपिन रावत ने बयान दिया कि सैनिक कार्रवाई भी विकल्प है। भारतीय नौसेना के पोत दक्षिण चीन सागर में भेजे गए जहाँ अमेरिकी नौसेना चीन पर दबाव बना रही है।

कुल मिलाकर भारतीय सेना को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने चीन को समझौते की मेज पर आने को मजबूर किया है। दूसरी तरफ भारत सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में कुछ बड़े फैसले किए और कुछ चीनी एप्स पर पाबंदी लगाई गई। शायद इन कदमों के बाद चीन को असलियत समझ में आई, वर्ना उसका इरादा बात करने का भी नहीं था। पहले मॉस्को में चीनी रक्षामंत्री के अनुरोध पर भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के साथ उनकी मुलाकात हुई और अब विदेशमंत्रियों का समझौता हुआ।

समझौते में एक संयुक्त घोषणापत्र जारी हुआ है और उसके बाद दोनों देशों की ओर से समझौते की भावना को समझाने के लिए अलग-अलग बयान दिए गए हैं। भारतीय बयान में इस बात पर जोर है कि अप्रेल-मई से पहले की स्थिति कायम होनी चाहिए, वहीं चीनी बयान में ऐसी कोई बात नहीं कही गई है। इसलिए इस हफ्ते देखना होगा कि उसकी सेना की वापसी शुरू होती है या नहीं। अब इस बात की पुष्टि सैनिक कमांडर करेंगे कि चीनी सेना की वापसी हुई है या नहीं।

चीनी अखबार 'ग्लोबल टाइम्स' के अनुसार यह सहमति दोनों देशों के नेताओं के बीच मुलाक़ात का रास्ता भी प्रशस्त करेगी। यहाँ नेताओं से आशय नरेंद्र मोदी और शी चिनफिंग से है। क्या इन दोनों नेताओं की जल्द मुलाकात होगी? होगी भी तो क्या रिश्ते वापस उसी धरातल पर आ पाएंगे, जिसपर पहले थे? चीन अब भी दोनों देशों के रिश्तों को सीमा पर की जा रही हरकतों और पाकिस्तान के साथ मिलकर की जा रही साजिशों से हटाकर देखना चाहता है, पर विदेशमंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कहा है कि सारी बातें जुड़ी हुईं हैं। यदि सीमा पर घुसपैठ जारी रही, तो शेष रिश्तों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

चीनी हरकत के पीछे निश्चित रूप से कोई बड़ी योजना है। उस योजना को समझने और उसे विफल करने की जरूरत है। संयोग से मॉस्को का समझौता पाँच बिंदुओं पर है, जो हमें उस पंचशील समझौते की याद दिलाता है, जिसे चीन ने 1962 में तोड़ा था। जवाहर लाल नेहरू और चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के बीच 29 अप्रैल 1954 को हुए समझौते में भी पाँच सिद्धांत थे।

इस बात को साफ होने में समय लगेगा कि चीन ने अप्रेल-मई में घुसपैठ क्यों की थी। पीएलए के इस अतिक्रमण से भारत के साथ उन चार समझौतों का उल्लंघन हुआ था, जो सीमा पर शांति बहाल करने के लिए दोनों देशों के बीच हो चुके थे। भविष्य में चीन पर भरोसा कैसे किया जा सकता है?  बहरहाल इस टकराव का परिणाम यह हुआ कि भारत अब खुलकर अमेरिका के साथ चला गया है। दक्षिण चीन सागर में चीनी परेशानियाँ बढ़ी हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चतुष्कोणीय सुरक्षा कार्यक्रम क्वाड के साथ जुड़ने में भारत को हिचक थी, जो अब दूर हो गई है। हाल में भारत ने जापान के साथ रक्षा समझौता किया है। इन बातों के दूरगामी परिणाम होंगे।

भारतीय विदेश-नीति के लिए महत्वपूर्ण समय है। इस टकराव का सबक यह है कि चीन पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता। दूसरा यह कि लड़ाई हुई भी तो आज 1962 की स्थिति नहीं है। भारतीय सेना काफी अच्छी स्थिति में है और चीन उतनी बड़ी ताकत नहीं है, जितना उसे समझा जा रहा है। चीन को साफ शब्दों में समझा दिया जाना चाहिए कि हमें परेशान करने की कोशिश की जो उसकी पूरी कीमत उसे चुकानी होगी। इसे युद्धोन्माद न माना जाए, पर जरूरत पड़ने पर अपनी ताकत को दिखाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।

हरिभूमि में प्रकाशित

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