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Monday, September 14, 2020

वैश्विक पूँजी क्या चीनी घर बदलेगी, भारत आएगी?

जापान सरकार अपने देश की कंपनियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर रही है कि वे चीन से अपने कारोबार को समेट कर भारत, बांग्लादेश या किसी आसियान देश में ले जाएं, तो उन्हें विशेष सब्सिडी दी जा सकती है। इसके पीछे देश के सप्लाई चेन का विस्तार करने के अलावा किसी एक क्षेत्र पर आधारित न रहने की इच्छा है। और गहराई से देखें, तो वैश्विक तनातनी में चीन के बजाय दूसरे देशों के साथ आर्थिक रिश्ते कायम करने की मनोकामना। चीन से विदेशी कंपनियों के हटने पर दो बातों मन में आती हैं। एक, क्या इससे चीनी अर्थव्यवस्था को धक्का लगेगा? और दूसरे क्या हमें इसका कोई फायदा मिलेगा?

चीन के बढ़ते वैश्विक हौसलों के पीछे उसकी बढ़ती आर्थिक शक्ति का हाथ है। तीस साल पहले चीन में वैश्विक पूँजी लग रही थी, पर अब चीनी पूँजी का वैश्वीकरण हो रहा है। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और यूरोप में भी। चीनी आर्थिक रूपांतरण में उन अमेरिकी कंपनियों की भूमिका है, जिन्होंने अपने सप्लाई चेन को किफायती बनाए रखने के लिए चीन में अपने उद्योग लगाए थे। अब चीन से उद्योग हटेंगे, तो उसका असर क्या होगा? अमेरिका और यूरोप के बाजार चीनी माल मँगाना बंद करेंगे, तो चीन को कितना धक्का लगेगा?

चीन की व्यवस्था शुरूआती वर्षों में निर्यात आधारित थी, पर आज वैसी बात नहीं है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के बाद आज चीन दुनिया का तीसरे नंबर का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। भारत के उपभोक्ता बाजार का भी विस्तार हो रहा है, पर आज भी चीन का उपभोक्ता बाजार भारत के बाजार का तिगुना है। ऑटोमोबाइल्स का तो सबसे बड़ा बाजार अब चीन है। चीन सरकार की लगातार कोशिश है कि उसकी अर्थव्यवस्था आंतरिक उपभोग पर केंद्रित हो। उसका मध्यवर्ग अब काफी समृद्ध है। 

जापानी पहल

जापानी मीडिया हाउस निक्की एशियन रिव्यू की हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जापान चाहता है कि इमर्जेंसी में देश की मेडिकल उपकरणों और इलेक्ट्रॉनिक सामग्री की सप्लाई जारी रहे। हाल में चीन में कोरोना वायरस के प्रसार के कारण कुछ दिक्कतें पैदा हुई थीं। जापान सरकार ने इस साल के सप्लीमेंट्री बजट में 23.5 अरब येन (22.1 करोड़ डॉलर) की रकम इन कंपनियों को चीन से अपना बेस हटाने की दिशा में प्रोत्साहन सब्सिडी के रूप में रखी है।

इस परियोजना का दूसरा दौर गत 3 सितंबर से शुरू हुआ है। इसमें भारत और बांग्लादेश में उद्योग लगाने वालों को सुविधाएं दी जाएंगी। इस दौरान उत्पादन इकाइयों के विकेंद्रीकरण और मॉडल परियोजनाओं की प्रयोगात्मक शुरुआत करने के बारे में अध्ययन किए जाएंगे। निक्की के अनुसार सब्सिडी की यह राशि आगे जाकर अरबों येन तक बढ़ जाएगी।

चीन में सबसे ज्यादा जापानी कम्पनियों की सहायक इकाइयाँ लगी हैं। कोविड-19 के दौर में जापान को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जापान ने इस दिशा में पहले से ही कदम उठाएं हैं और इस परियोजना का पहला दौर जून के महीने में पूरा हुआ है। इस पहले दौर में जापान सरकार ने 30 उद्योगों को चीन में काम बंद करके वियतनाम और लाओस जैसे देशों में ले जाने के काम को स्वीकृति दी है। इसमें होया कॉरपोरेशन की इलेक्ट्रॉनिक परियोजनाएं वियतनाम और लाओस में लाई जा रही हैं। इस कार्यक्रम के लिए 10 अरब येन की सब्सिडी दी गई है। चीन से निकलने वाली कंपनियों के लिए वियतनाम पसंदीदा देश बना हुआ है।

भारत की संभावनाएं

चीन से हटने का मतलब यह नहीं है कि यह निवेश भारत आ जाएगा। पूँजी निवेश बच्चों का खेल नहीं है। निवेशक अपने हितों को अच्छी तरह देख लेने के बाद ही निवेश करते हैं। भारत को यदि इस प्रतियोगिता में शामिल होना है, तो उसे अपनी सामर्थ्य को साबित करना होगा। कोरोना संकट की शुरुआत में हमारे पास न तो पीपीई (स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा के लिए पहनावा और उपकरण) पर्याप्त संख्या में थे और न टेस्टिंग किट। हम उन्हें बनाते भी नहीं थे। पिछले तीन-चार महीनों में इस क्षेत्र में बदलाव आया है।

जिस तरह सत्तर के दशक में चीन ने दुनिया की पूँजी को अपने यहाँ निमंत्रण दिया, क्या वैसा ही भारत के साथ अब होगा? खबरें यह भी हैं कि जापान की ही नहीं, दूसरे देशों की कंपनियों के लिए भारत में भी जगह बन रही है। स्मार्टफोन बनाने वाली 24 कंपनियां चीन को छोड़कर भारत में अपना प्रोडक्शन यूनिट लगाने की तैयारी कर रही हैं। इनमें सैमसंग और एपल शामिल हैं। भारतीय माल की गुणवत्ता, नवोन्मेष, कानून-व्यवस्था, परिवहन और इंफ्रास्ट्रक्चर तथा श्रम संबंध तय करेंगे कि हम विदेशी पूँजी निवेश को आकर्षित कर पाएंगे या नहीं। अमेरिकी कम्पनियाँ भी चीन से हटना चाहती हैं, पर वे कहाँ जाएंगी, कह नहीं सकते।

भारत अब दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल निर्माता देश है। देश में अब तक 300 मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स लग चुकी हैं। भारत में कॉरपोरेट टैक्स एशिया में सबसे कम है। मार्च में सरकार ने कुछ प्रोत्साहनों की घोषणा की थी, जिनके अनुसार इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माताओं को अगले पांच वर्षों में वृद्धिमान अनुपात से लाभ मिलेंगे। इस वजह से लगभग दो दर्जन कंपनियों ने देश में मोबाइल फोन फैक्टरी की स्थापना के लिए करीब 1.5 अरब डॉलर निवेश का वायदा किया है।

भारत ने फार्मास्युटिकल, ऑटोमोबाइल्स, वस्त्र और अन्य बिजनेस के लिए भी इंसेंटिव देने की घोषणा की है। सरकार को उम्मीद है कि अकेले इलेक्ट्रॉनिक्स कार्यक्रम अगले पांच वर्षों में 153 अरब डॉलर मूल्य की सामग्री का निर्माण भारत में होगा। इससे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लगभग 10 लाख नौकरियां/रोजगार पैदा होंगे। साथ ही इससे सरकारी राजस्व भी बढ़ेगा। भारत के आकार को देखते हुए यह सफलता फिर भी आंशिक सफलता ही है। स्टैंडर्ड चार्टर्ड पीएलसी के एक सर्वे के अनुसार, चीन से बाहर निकलने वाली कंपनियों के लिए वियतनाम सबसे पसंदीदा देश है। इसके बाद कंबोडिया, म्यांमार, बांग्लादेश और थाईलैंड हैं।

त्रिपक्षीय समझौता

इस बीच एक और खबर ने ध्यान खींचा है। गत 1 सितंबर को जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया ने चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए त्रिपक्षीय ‘सप्लाई चेन रेज़ीलिएंस इनीशिएटिव’ की शुरुआत की है। अन्य देशों से भी इसमें शामिल होने का आग्रह किया है। संयोग से ये तीनों देश एशिया प्रशांत क्षेत्र में सामरिक सहयोग भी कर रहे हैं, जो घोषित रूप से चीन के विरुद्ध नहीं है, पर व्यावहारिक रूप से चीन-विरोधी मोर्चा है।

यह भी सच है कि हाल के वर्षों में भारत और जापान के बीच कई समझौते हुए हैं, जिनके तहत दोनों देशों ने एक-दूसरे को शुल्क में रियायतें दी हैं, जो चीन को नहीं दी गईं। इसके बावजूद चीन के वर्चस्व को चुनौती नहीं दी जा सकी है। कोरोना संक्रमण से काफी हद तक मुक्त होने के बाद चीनी उद्योगों का उत्पादन शुरू हो गया है, जबकि दूसरी तरफ अमेरिका के फैक्ट्री उत्पादन में गिरावट आ रही है। नब्बे के दशक में पश्चिमी पूँजी का प्रसार हुआ था। परिणाम यह हुआ कि चीन ने प्रतिस्पर्धी पूँजी तैयार कर दी। अब उसे रोकने की कोशिश अमेरिका कर रहा है।

चीन की आंतरिक शक्ति

चीन की जीडीपी मुख्यतः अब  उसकी आंतरिक संरचना पर केंद्रित है। वह केवल निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था नहीं रही। अलबत्ता उसका निर्यात अब भी करीब एक ट्रिलियन डॉलर के आसपास हैवैश्विक सप्लाई चेन अभी उसका विकल्प तैयार कर नहीं पाई है। चीन से कंपनियों की वापसी भी तभी होगी, जब उद्योगपतियों को चीन का विकल्प मिले। अमेरिका की आर्थिक लड़ाई काफी हद तक उसके उद्योगपतियों की मनोकामना पर निर्भर करेगी। 

भारत के पर्यावरण कानून बहुत कठोर नहीं हैं और श्रम सस्ता है। इसके अलावा भारत की अर्थव्यवस्था का आकार और संभावनाएं बहुत बड़ी हैं। इस बाजार का विस्तार अमेरिकी कंपनियों की दिलचस्पी बढ़ाएगा। भारत और अमेरिका के बीच एक व्यापक व्यापार समझौते के बाद ही पता लगेगा कि संभावना क्या है। हमने अपने इंफ्रास्ट्रक्चर को तैयार करने में देरी की है, जिसका नुकसान उठाना पड़ा है। सरकार अब इंफ्रास्ट्रक्चर पर पैसा लगा रही है, जिसका परिणाम आने वाले कुछ वर्षों में मिलेगा। दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्थाएं जुड़तीं, तो परिणाम अच्छे होते, पर राजनीतिक कारणों से ऐसा संभव नहीं है। यह राजनीति नहीं होती, तो भारत और चीन की प्रतिद्वंद्विता भी इस स्तर की नहीं होती। दोनों इतने करीब हैं कि अर्थव्यवस्थाएं आसानी से जुड़तीं। बहरहाल इतिहास को अभी यह बात मंजूर नहीं।  

नवजीवन में प्रकाशित

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