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Monday, September 7, 2020

कितनी गहरी है मुस्लिम ब्लॉक में दरार?

बीसवीं सदी में मुस्लिम ब्लॉक कभी बहुत एकताबद्ध नजर नहीं आया, पर कम से कम फलस्तीन के मामले में उसकी एकजुटता नजर आती थी। अब लग रहा है कि वह भी बदल रहा है। इसके समांतर मुस्लिम देशों में दरार पड़ रही है। यह दरार केवल फलस्तीन, इसरायल या कश्मीर के कारण नहीं है। राष्ट्रीय मतभेदों के ट्रिगर पॉइंट के पीछे दीन नहीं, दुनिया है। यानी आर्थिक और सामरिक बातें, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और नेतृत्व हथियाने की महत्वाकांक्षाएं।  

संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद ने गत 29 अगस्त को 48 साल पुराने 'इसरायल बहिष्कार क़ानून' को खत्म करने की घोषणा की, तो किसी को हैरत नहीं हुई। इस तरह अरब देशों के साथ इसरायल के रिश्तों में बड़ा बदलाव आ गया है। दुनिया इस बदलाव के लिए तैयार बैठी थी। यूएई की घोषणा में कहा गया है कि इसरायल का बहिष्कार करने के लिए वर्ष 1972 में बना संघीय क़ानून नंबर-15 खत्म किया जाता है। यह घोषणा केवल अरब देशों के साथ इसरायल के रिश्तों को ही पुनर्परिभाषित नहीं करेगी, बल्कि इस्लामिक देशों के आपसी रिश्तों को भी बदल देगी।

इसके पहले इसरायल और यूएई ने गत 13 अगस्त को घोषणा की थी कि दोनों देश अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता में एक समझौता करने जा रहे हैं, जिसके ज़रिए राजनयिक और व्यापारिक ताल्लुक़ात बेहतर करने की कोशिश की जाएगी। वैश्विक राजनीति में तेजी से बदलाव आ रहा है। घटनाचक्र बड़ी तेजी से बदल रहा है, दूसरी तरफ एक नया शीतयुद्ध शुरू हो गया है। अमेरिका-चीन रिश्ते बिगड़ रहे हैं जिसका असर मुस्लिम देशों पर भी पड़ा है।

अभी तक मुस्लिम देशों का नेतृत्व सऊदी अरब के पास था, पर अब तुर्की और ईरान अपनी अलग पहचान बना रहे हैं और वे चीन के करीब जाते नजर आ रहे हैं। पिछले साल संयुक्त राष्ट्र महासभा में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के धुआँधार भाषण के पीछे इस नए बनते गठजोड़ की अनुगूँज भी थी। फिर 18 से 21 दिसम्बर के बीच मलेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में हुए इस्लामिक देशों के सम्मेलन ने सऊदी वर्चस्व को चुनौती दी थी, जो अब और ज्यादा मुखर होकर सामने आई है। 

क्वालालम्पुर में तुर्की, ईरान और मलेशिया ने इस नए गठजोड़ की बुनियाद डाली थी। इसके पीछे पाकिस्तान का भी हाथ था, पर सऊदी अरब के दबाव में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान उस सम्मेलन में नहीं गए। मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने क्वालालम्पुर सम्मेलन के एक दिन पहले कहा कि हमारा इरादा न तो कोई नया ब्लॉक बनाने का है और न हमारी सामर्थ्य नया ब्लॉक बनाने की है, फिर भी यह बात बार-बार कही जा रही है कि इस्लामी देशों का नया ब्लॉक तैयार हो रहा है।

यह नया ब्लॉक पूरी तरह इस्लामी देशों का ब्लॉक होगा या नहीं, अभी कहना मुश्किल है। फिलहाल लगता है कि उसमें तुर्की और ईरान दो महत्वपूर्ण देश होंगे। यदि इसका नेतृत्व चीन करेगा और इसमें रूस भी शामिल होगा, तो क्या इसे इस्लामिक ब्लॉक कहना उचित होगा?  

सऊदी-तुर्की प्रतिद्वंद्विता

अभी संधिकाल है। सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान के रिश्ते कच्चे होते नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ चीन और तुर्की के साथ बेहतर हो रहे हैं। ईरान के साथ अभी तक तनातनी रही है। भविष्य का पता नहीं। पर जो गठजोड़ बन रहा है, उसमें ईरान भी होगायह किस तरह होगा, इसे समझने में थोड़ा समय लगेगा। मोटे तौर पर कहा जा रहा है कि नेता बनने की चाहत में सऊदी अरब और तुर्की की प्रतिद्वंद्विता है।

गत 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर का कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म होने का एक साल पूरा होने पर पाकिस्तान ने शोक दिवस मनाया। उस मौके पर उसके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने एक निजी न्यूज़ चैनल के प्रोग्राम में सऊदी अरब की नीति पर खुल कर नाराजगी ज़ाहिर की। उनके  बयान को लेकर काफी अटकलें लगाई गईं। पहले लगा कि वे गलती कर गए हैं, पर अब लगता है कि वे पाकिस्तानी विदेश-नीति में आए बदलाव को व्यक्त कर रहे थे। पाकिस्तान और सऊदी अरब के रिश्ते काफी गहरी सतह पर हैं, उन्हें खत्म होने में भी समय लगेगा।  

तुर्क पहल

हाल में तुर्की में हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में तब्दील किया गया है। तुर्की अब यूरोप से हटकर पश्चिम एशिया से खुद को जोड़ रहा है। यों भी यूरोपियन यूनियन में उसका प्रवेश अब सम्भव नहीं लगता। शायद तुर्की का सत्ता-प्रतिष्ठान खिलाफत की वापसी चाहता है। बीसवीं सदी के शुरू में जब उस्मानी खिलाफत खत्म हुई, तो वहाँ मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था की स्थापना हुई थी। पर पिछले कुछ वर्षों से रजब तैयब एर्दोगान के नेतृत्व में तुर्की अपने सुनहरे इस्लामी अतीत को याद कर रहा है। पाकिस्तान के जन्मदाता मोहम्मद अली जिन्ना अतातुर्क के प्रशंसक थे।

सन 1947 में स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान के साथ राजनयिक सम्बंध कायम करने वाले शुरुआती देशों में तुर्की भी था। सन 1974 में सायप्रस-अभियान में पाकिस्तान ने तुर्की का समर्थन किया था। अस्सी के दशक तक दोनों देश पश्चिमी नेतृत्व वाले सेंटो के सदस्य थे। इस समय चीन के बाद पाकिस्तानी सेना के शस्त्रास्त्र और उपकरण तुर्की की सहायता से ही विकसित किए जा रहे हैं। पाकिस्तान के एफ-16 विमानों को अपग्रेड तुर्की ने किया है। संयुक्त राष्ट्र में दोनों पारस्परिक सहयोग-समर्थन निभाते हैं। तुर्की की आंतरिक राजनीति में पाकिस्तान ने एर्दोगान का समर्थन किया है।

यह सब अनायास नहीं होता। सन 1997 में तुर्की की पहल पर इस्लामिक देशों के जिस डेवलपिंग-8 या डी-8 ग्रुप का गठन किया गया, उसमें इस गठजोड़ की लकीरें खिंचती हुई देखी जा सकती हैं। इस ग्रुप में बांग्लादेश, मिस्र, नाइजीरिया, इंडोनेशिया, ईरान, मलेशिया, पाकिस्तान और तुर्की शामिल हैं। यह वैश्विक सहयोग संगठन है। इसकी रूपरेखा क्षेत्रीय नहीं है, पर दो बातें स्पष्ट हैं। यह इस्लामिक देशों का संगठन हैइसकी अवधारणा तुर्की से आई है, इसमें अरब देश नहीं हैं।

राजनीतिक विसंगतियाँ

पाकिस्तान के एक तरफ तुर्की से और दूसरी तरफ चीन से रिश्तों में विसंगतियाँ भी हैं। मसलन चीन के वीगुरों का मसला। इस्लामिक देशों को चीन से जोड़ने के लिए साथ ऐसे मसलों के समाधान भी खोजने होंगे। सभी इस्लामिक देशों की समझ एक जैसी है भी नहीं। पश्चिम एशिया के देश जैसा सोचते हैं, वैसा उत्तरी अफ्रीका के देश नहीं सोचते। मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया की परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं हैं। उनकी आर्थिक स्थितियाँ उनकी भौगोलिक स्थितियों पर भी निर्भर करती हैं।

चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान की भौगोलिक स्थितियाँ भावी राजनीति की दिशा तय करेंगी। यही बात भारत, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम वगैरह पर लागू होती है। बातें समय के साथ बदलती भी हैं। इराक में सद्दाम हुसेन की सत्ता को पलटने में ईरान ने परोक्ष रूप से अमेरिका का समर्थन किया, ताकि वहाँ शिया वर्चस्व कायम हो। हासिल क्या हुआ, अराजकता? मुसलमानों के हितों में गठजोड़ बनते हैं, पर ज्यादातर मारकाट मुसलमानों के बीच होती है। वे आर्थिक-सामाजिक विकास में पिछड़ रहे हैं।

कश्मीर मामले में पाकिस्तान को तुर्की का पूरा समर्थन है। समर्थन तो सऊदी अरब और ओआईसी का भी है, पर पिछले कुछ वर्षों से इस्लामी ब्लॉक ने भारत के प्रति नरमी बरती है। ओआईसी विदेश मंत्रियों के उद्घाटन सत्र में पिछले साल भारत को आमंत्रित किया गया। विदेश मंत्रियों की परिषद का यह 46 वां सत्र 1 और 2 मार्च को अबू धाबी में हुआ। भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस सत्र में ‘गेस्ट ऑफ ऑनर’ के तौर पर शरीक हुईं। विरोध में पाक विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया।

बदलता खेल

भारत की उस प्रतीकात्मक उपस्थिति और पाकिस्तान की अनुपस्थिति से कहानी स्पष्ट होती है। अरब देश अपनी अर्थव्यवस्था को पेट्रोलियम-दौर से बाहर निकाल रहे हैं। इस कोशिश में वे भारत को भी सहयोगी के रूप में देख रहे हैं। उनके चीन के साथ भी रिश्ते रहेंगे, पर प्राथमिकताएं बदलेंगी। पाकिस्तान, तुर्की और चीन की दिलचस्पी अफगानिस्तान में भी है, जहाँ से अमेरिका हट रहा है। उधर ईरान और चीन के बीच 25 साल का जो समझौता हो रहा है, वह आर्थिक और सामरिक हितों पर केंद्रित है। नब्बे के दशक के बाद शुरू हुआ वैश्विक सहयोग का दौर हालांकि अभी जारी है, पर राष्ट्रीय हितों का एक नया दौर अब शुरू हो रहा है।

नवजीवन में प्रकाशित

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