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Sunday, April 15, 2012

गरीबी का पेचीदा अर्थशास्त्र

गरीबी का अर्थशास्त्र बेहद जटिल और अनेकार्थी है। आँकड़ों का सहारा लेकर आप कई तरह के निष्कर्ष निकाल सकते हैं। योजना आयोग की एक रपट में बताया गया है कि सन 2004-05 के मुकाबले सन 2009-10 में भारत में गरीबों की संख्या 37.2 फीसदी से घटकर 29.8 फीसदी रह गई है। यानी पाँच साल में गरीबों की संख्या 40.7 करोड़ से घटकर 35.5 करोड़ हो गई। यह सब सैम्पल सर्वे के आधार पर कहा गया है, जिनकी विश्वसनीयता को लेकर हमेशा सवाल उठाए जा सकते हैं। पर इसे या इस ट्रेंड को सच मान लें तब भी इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि गरीबी घट रही है। मसलन जिस रोज हम योजना आयोग की रपट के बारे में खबर पढ़ रहे थे उसी रोज यह खबर भी हमारे सामने थी कि खाद्य सामग्रियों की कीमतों में दस फीसदी के इज़ाफे से तकरीबन तीन करोड़ लोग गरीबी के सागर में डूब जाएंगे। घरीबी एक चीज़ है नितांत गरीबी दूसरी चीज़ और असमानता तीसरी चीज़। अक्सर हम इन सब को एक साथ जोड़ लेते हैं।


भारत में गरीबी का मुद्दा राष्ट्रीय आंदोलन के समय से ही उठता रहा है। सन 1936 में कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस ने राष्ट्रीय प्लानिंग कमेटी बनाई जिसके अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू और केटी शाह सचिव थे। इस कमेटी के सामने गरीबी को परिभाषित करने की चुनौती थी। इस कमेटी ने भोजन और आवास को आधार बनाया। आज़ादी के बाद दूसरे मसलों के बीच यह सवाल दबा रहा। सन 1963 में लोकसभा सदस्य बनने के बाद डॉ राम मनोहर लोहिया ने एक पैम्फलेट में जवाहर लाल नेहरू के ऐशो-आराम पर होने वाले खर्च के संदर्भ के तीन आने की आमदनी का मामला उठाया था। उन्होंने कहा कि नेहरू जी के कुत्ते पर हर रोज छह रुपया खर्च होता है, जबकि गरीब आदमी औसतन तीन आने पर गुजारा करता है। तीन आने बनाम पन्द्रह आने की इस बहस ने सरकार को प्रेरित किया कि वह पता लगाए कि गरीब कौन हैं। इस कमेटी ने कहा कि जिन लोगों की आमदनी बीस रुपए प्रतिमास से कम है उन्हें गरीब माना जाए।

सन 1971 में नीलकंठ रथ और वीएम दांडेकर सुझाव दिया कि जिन लोगों के पास दो जून का भोजन जुटाने के साधन नहीं हैं उन्हें गरीब माना जाए। पर दो जून भोजन के माने भी बताने होंगे। नीलकंठ रथ ने ईपीडब्लू में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा है कि लगभग उन्हीं दिनों पीवी सुखात्मे की एक पुस्तक सामने आई जिसमें नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन से प्राप्त डेटा के आधार पर यह निश्चय किया कि औसत भारतीय को 2250 किलोकैलरीज़ (केसीएएल) की प्रति दिन ज़रूरत होती है। इसके बाद भारतीय व्यक्ति के उपभोग को स्थिर करने की कोशिशें शुरू हो गईं। गाँवों के लिए अलग और शहरों के लिए अलग। 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत के बाद योजना आयोग ने डीटी लकड़ावाला की अध्यक्षता में गरीबी की रेखा से जुड़े सवालों पर विचार करने के लिए विशेषज्ञों की समिति बनाई। गरीबी की रेखा तय करने की राह में देश के विविधता भी आड़े आती है। अलग-अलग इलाकों का खान-पान अलग है, आर्थिक गतिविधियों का तना-बाना अलग है। हमारे पास तथ्य संग्रह करने वाली एजेंसियाँ भी नहीं हैं और बाज़ार की कीमतों के डेटा की प्रभावशाली व्यवस्था भी नहीं है।

गरीबी की रेखा का इतिहास बताता है कि वह समय के साथ बदलती रही है। सन 2009 में योजना आयोग ने सुरेश डी तेन्दुलकर की अध्यक्षता में एक और विशेषज्ञ समिति बनाई, जिसने 2004-05 में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में बदलाव कर दिया। अब हम जो आँकड़े देख रहे हैं उनमें 2004-05 की गरीबी की रेखा के आँकड़े बदली परिभाषा से हैं। इसलिए इनके आधार पर बड़े परिणाम निकालने से कोई लाभ नहीं। हमारे पास अर्जुन सेनगुप्ता का रपट भी है, जो कहती है कि देश की 77 फीसदी आबादी की दैनिक आमदनी 20 रुपए से नीचे है। एनसी सक्सेना कमेटी की रपट के अनुसार हमारी पचास फीसदी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे है।

गरीबी की बहस कई स्तरों पर है। एक बहस है गणना पद्धति को लेकर। हम तेन्दुलकर पद्धति को मानें या लकड़ावाला पद्धति को। गरीबों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं कैलोरी को किस तरह एक जगह पर लाएं। व्यक्ति प्रतिदिन कितने रुपए अनाज,दाल, दूध, तेल और सब्जी पर खर्च कर रहा है। उसके पास पहनने के लिए कपड़े और जूते हैं या नहीं, बच्चों की पढ़ाई के पैसे हैं या नहीं, इलाज का इंतज़ाम है या नहीं। इसमें मुद्दरास्फीति की क्या भूमिका है? ऐसी तमाम बातें सैद्धांतिक पेचों में फँसी हैं। सवाल गरीबी की रेखा का नहीं है। सरकार की दिलचस्पी सस्ते राशन, गैस सिलेंडर एक बत्ती कनेक्शन, शिक्षा और स्वास्थ्य के खर्चों को लेकर है। पिछले दिनों दिनों योजना आयोग की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे को लेकर सवाल उठ चुके हैं। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि कितनी आमदनी वाले को गरीब माना जाए। ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि सरकार किन लोगों की मदद के लिए साधनों का इंतजाम करे। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के कुछ सदस्य मानते हैं कि गरीबी रेखा के जो मानक बनाए गए हैं वे न केवल भ्रामक हैं, बल्कि गरीबों के साथ धोखा हैं।

गरीबी के इन आँकड़ों को भी मानें तो ये योजना आयोग के लक्ष्यों से पीछे हैं। योजना आयोग का लक्ष्य गरीबों की संख्या में दस फीसदी की गिरावट का था, जबकि कमी करीब साढ़े सात फीसदी की है। इसका अर्थ यह है कि एक ओर गरीबी-रेखा की परिभाषा बदलने के बावजूद परिणाम बेहतर नहीं आए हैं। इसका एक राजनीतिक अर्थ भी है। गरीबी में जो भी कमी है वह हिमाचल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, सिक्किम, तमिलनाडु, कर्नाटक, और उत्तराखंड में है। बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में मामूली सुधार है। पर असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम और नगालैंड में गरीबी बढ़ी है। इसका अर्थ है कि गैर-कांग्रेसी राज्यों का प्रदर्शन मुकाबले कांग्रेस शासित राज्यों से बेहतर रहा। आने वाले वक्त में गरीबी और विकास से जुड़े सवाल राजनीतिक शक्ल लेंगे। खासतौर से जब राज्यों में ऐसी सरकारें होंगी, जिनका केन्द्र सरकार से गठजोड़ नहीं होगा। आज भी प्रदेश सरकारें कहती रहती हैं कि केन्द्रीय मदद हमें नहीं मिलती। इसलिए अब ऐसी माँग भी उठेगी कि योजना आयोग के मार्फत साधनों का आबंटन नहीं होना चाहिए। अंततः योजना आयोग एक राजनीतिक संस्था है। उसकी जगह वित्त आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को यह काम करना चाहिए।

गरीबी के आँकड़ों का मनरेगा, पीडीएस और मिड डे मील जैसे कार्यक्रमों से कैसा रिश्ता रहा यह देखने की ज़रूरत भी है। आमतौर पर देश में मनरेगा के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आर्थिक क्षमता बेहतर हुई है और वे बाजार से ज़रूरी चीजें खरीद रहे हैं, जिससे आर्थिक क्रिया-कलाप बढ़े हैं। खास तौर से ग्रामीण इलाकों में। शायद इसी लिए ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी-निवारण का काम बेहतर हुआ है। पर बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिमोत्तर के प्रदेशों में मनरेगा का काम धीमा है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में किसी किस्म का सुधार नहीं है। इसका असर आँकड़ों में नज़र आ रहा है।

एक आश्चर्यजनक परिणाम शहरी और ग्रामीँ गरीबी के आँकड़ों की तुलना करने पर भी मिलता है। ग्रामीण गरीबी 41.8 फीसदी से गिरकर 33.8 फीसदी हो गई है यानी 8 फीसदी की कमी। इसके मुकाबले शहरी गरीबी 25.7 से गिरकर 20.9 रह गई है। यानी 4.8 फीसदी की गिरावट। इसका अर्थ क्या है? हमारा आर्थिक विकास तो शहरों में हुआ है। ग्रामीण क्षेत्र में तो आर्थिक गतिविधियाँ हुई ही नहीं। पर शहरी गरीबी उस हद तक दूर नहीं हुई। इसका कारण क्या है? यह सच है कि गाँवों से जबर्दस्त पलायन हो रहा है। पर शहर अभी उतने आकर्षक नहीं है, जितने नज़र आते हैं।

जनवाणी में प्रकाशित

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