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Sunday, April 15, 2012

यूपीए का इंजन फेल


लोकलुभावन राजनीति की खराबी है कि उसे लम्बा नहीं चलाया जा सकता। दो रुपए किलो गेहूँ दिया भी जा सकता है, किसानों को मुफ्त पानी, बिजली दी जा सकती है, मुफ्त में साइकिलें दी जा सकती हैं, पर यह हमेशा नहीं चलता। इस बार के रेलवे बजट में इस लोकलुभावन नीति पर केन्द्र सरकार ब्रेक लगाने में कामयाब हुई तो शाम होते-होते एक नया राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। पिछले साल तीस्ता के पानी को लेकर बांग्लादेश के साथ समझौता नहीं हो सका, क्योंकि ममता बनर्जी की कुछ आपत्तियाँ थीं। भूमि अधिग्रहण कानून रुका पड़ा है, रिटेल में विदेशी निवेश का फैसला रोक दिया गया है, लोकपाल विधेयक पर राज्यसभा में संशोधनों की बौछार हो गई, नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर पर अड़ंगा लग गया है। सन 1989 के बाद से भारत में केन्द्र सरकार चलाना मुश्किल काम हो गया है। देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक अंतर्विरोधों का इतना जटिल रूप हो सकता है इसके बारे में संविधान निर्माताओं ने सोचा नहीं होगा। यूपीए-1 ने हालांकि पाँच साल पूरे किए, पर न्यूक्लियर बिल पर जिस तरह से राजनीतिक वितंडा हुआ उसकी कल्पना नहीं की गई थी। और अब जो हो रहा है वह आने वाले वक्त की भयावह तस्वीर पेश कर रहा है।

पिछले दिनों जब पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आ रहे थे तब ही समझ में आ रहा था कि राजनीतिक रंगमंच पर कहानी अब कोई दिलचस्प मोड़ लेगी। अभी राज्यसभा के चुनाव बाकी हैं। उसके बाद राष्ट्रपति पद का चुनाव है। संसद में लोकपाल विधेयक पड़ा है। उसे पास कराना है। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में अपने जोशो-खरोश के मुताबिक सफलता हासिल नहीं कर पाई। गोवा और पंजाब में हार ही गई। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद का विवाद शपथ ग्रहण के पहले ही शुरू हो गया। टू-जी को लेकर डीएमके के साथ पहले से ही तना-तनी चल रही थी। लिट्टे पर फौजी विजय के दौरान हुए मानवाधिकार हनन को लेकर श्रीलंका सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है। डीएमके के तेवर इस मामले में तीखे होते जा रहे हैं। सरकार दुविधा में है। यूपीए संकट में है। ममता बनर्जी ने कांग्रेस का आग्रह स्वीकार कर पंजाब और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण में जाने का कार्यक्रम तो त्याग दिया, पर रेलमंत्री को हटाकर संकट को कई गुना बढ़ा दिया है। प्रधानमंत्री के रात्रि भोज में ममता बनर्जी खुद नहीं आईं, बल्कि सबसे जूनियर सांसद को भेजा। पंजाब में उनके तीन प्रतिनिधि गए। उनके ही नहीं एनसीपी के प्रतिनिधि भी पंजाब गए। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संशोधन का संकेत भी पार्टी दे रही है।

हमारी संसदीय व्यवस्था ब्रिटिश प्रणाली पर आधारित है। इसमें मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। किसी एक मंत्रालय की आलोचना पूरी सरकार की आलोचना मानी जाती है। पर पिछले कुछ वर्षों से हम एक मंत्रालय द्वारा दूसरे मंत्रालय पर अक्सर छींटाकशी देख और सुन रहे हैं। प्रधानमंत्री कई बार अपनी और गठबंधन धर्म की मजबूरियों का हवाला दे रहे हैं। एक ओर सरकार जा रही है दूसरी ओर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की सलाहें हैं। भोजन के अधिकार को लेकर सरकार और एनएसी के मतभेद जाहिर हैं। वैश्विक मंदी का खतरा अलग मंडरा रहा है। ऐसे में आर्थिक विकास की कहानी हवा होती जा रही है। आर्थिक उदारीकरण के रथ को आगे बढ़ाने के हौसले खत्म होते नज़र आ रहे हैं।
दिनेश त्रिवेदी एक हफ्ते के भीतर दो कारणों से विवादास्पद हो गए। पहले उन्होंने एक अखबार के कार्यक्रम में कहा कि क्षेत्रीय पार्टियाँ लोकसभा में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए मध्यावधि चुनाव के हालात पैदा कर देंगी। उन्हें अपनी बात को फौरन ही वापस लेना पड़ा। पर रेल बजट में उन्होंने सरकार की बात मानकर जिस तरह से किराया बढ़ाने की घोषणा की उससे भूचाल आ गया। राष्ट्रीय राजनीति में दो बड़े सवाल एक साथ उभर कर आ रहे हैं। क्या कोई नया मोर्चा सामने आने वाला है? गठबंधन सरकारों की रीति-नीति क्या संसदीय राजनीति की मान्य परम्पराओं को ध्वस्त कर देगी? और क्या लोकलुभावन राजनीति का कहीं अंत भी होगा?

टीएमसी संसदीय दल के नेता सुदीप बंद्योपाध्याय का कहना है कि ममता बनर्जी देश में गरीबों की सबसे बड़ी हमराह हैं। इसमें दो राय नहीं कि ममता बनर्जी गरीबों के पक्ष में सबसे जोरदार ढंग से आवाज उठाती रहीं हैं, पर क्या रेल किराए का गरीबों के जीवन से उतना ही गहरा रिश्ता है, जितना समझा जा रहा है? ममता बनर्जी निरंतर वाम दलों के दबाव में भी रहती हैं। उन्हें डर लगता है कि वाममोर्चा किसी मामूली काम से भी राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करेगा। पर रेलमंत्री को हटाने की नाटकीय कार्रवाई से क्या संदेश गया? यह विस्मय की बात है कि उन्हें पता नहीं था कि रेल बजट में क्या है। कम से कम मोटी बातें तो उनकी जानकारी में लाई गई होंगी।

यूपीए के संकट को लेकर जितना सोचा गया था फजीहत उससे ज्यादा हो रही है। रेल मंत्रालय का विवाद क्या शक्ल लेगा यह देखना बाकी है। क्या रेल बजट में घोषित किराया-वृद्धि वापस ली जाएगी? तब बजट का हिसाब-किताब किस तरह संतुलित किया जाएगा? क्या इसकी परिणति अंततः टीएमसी और यूपीए की टूट में होगी? क्या डीएमके भी साथ छोड़ेगी? ऐसा हुआ तो क्या समाजवादी पार्टी और बसपा का यूपीए में प्रवेश होगा? समाजवादी पार्टी यूपीए में शामिल होगी तो क्या तीसरे या चौथे मोर्चे की कहानी खत्म हो जाएगी? क्या एनडीए अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करेगा? टीडीपी, बीजू जनता दल, अद्रमुक, असम गण परिषद वगैरह क्या साथ आने का विचार कर रहे हैं? क्या नीतीश कुमार एनडीए का साथ छोड़कर किसी नए मोर्चे में शामिल होंगे? ऐसे तमाम सवाल सामने आ रहे हैं।
सवाल केवल राजनीतिक नहीं हैं। इस बार के रेल बजट की कई लोगों ने तारीफ की है। इसमें रेलवे सुरक्षा और विकास के कार्यक्रम शामिल किए गए हैं। उसके आधुनिकीकरण की योजनाएं हैं। केवल किराया न बढ़ाने की रट नहीं है। इसे साहस का बजट कहा गया है। वास्तविकता को स्वीकार करने का काम साहस का है, पर हमारी राजनीति में साहस को जन विरोधी क्यों माना जाता है? देश की जनता क्या खुद हालात को नहीं देखती? हम कब तक उसे लॉलीपॉप दिखाकर भरमाते रहेंगे?

पाँच राज्यों के चुनाव आने के बाद हमारे लोकतंत्र के बाबत भी दो एक बातों ने भी ध्यान खींचा है। उत्तर प्रदेश में युवा नेता अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद पर स्थापित करने में दिक्कत नहीं हुई क्योंकि उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने उनका समर्थन किया। पर उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी को नेता खोजने में देर लगी और और उसकी प्रक्रिया तमाम विवादों से घिरी रही। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल जितनी आसानी से अपना मंत्रिमंडल बना सकते हैं, उतनी आसानी से मणिपुर के इबोबी सिंह और उत्तराखंड के विजय बहुगुणा नहीं बना सकते। उन्हें हाई कमान के सामने सूची रखनी होगी। सारी राजनीतिक प्रक्रियाएं अंततः किसी अलोकतांत्रिक रास्ते पर जाती हैं।

दिनेश त्रिवेदी को रेलमंत्री पद से हटाने का फैसला ममता बनर्जी का निजी फैसला है। बादल, ममता, मुलायम, जयललिता, करुणानिधि, चन्द्रबाबू और नवीन पटनायक व्यक्तियों के नाम हैं और पार्टियों के भी। इनके फैसले ही पार्टियों के फैसले हैं। हम पार्टियों को राष्ट्रीय और प्रादेशिक नाम देते हैं, पर प्रवृत्तियाँ सब जगह एक जैसी हैं। हम एक लम्बी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जन प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। जब सरकारें बनती हैं तब फैसले किसी घर और परिवार में होते हैं। यह विडंबना है, पर सचाई भी है। इसे बदला नहीं जा सकता। सन 2014 के चुनाव के पहले राष्ट्रीय क्षितिज पर बदलाव के संकेत हैं। यह तय है कि सरकार जो भी आएगी वह गठबंधन की होगी। और गठबंधन व्यक्तिगत पूर्वग्रहों से बनेंगे और बिगड़ेंगे। विषम स्थिति है, पर हम इससे भागकर कहीं जा भी नहीं सकते।

जनवाणी में प्रकाशित

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