पृष्ठ

Sunday, April 15, 2012

सवाल सुरक्षा का नहीं व्यवस्था का है

हाल में स्टॉकहोम के पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की रपट में बताया गया कि सन 2007 से 2010 के बीच दुनिया में सबसे ज्यादा हथियारों का आयात भारत ने किया। इसका मतलब निकालने के पहले हमें यह देखना चाहिए कि क्या इस बात का सेनाध्यक्ष वीके सिंह और सरकार के विवाद से भी कोई सम्बन्ध है? जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा है। उस पत्र के लीक वगैरह की बातों को छोड़कर उसमें कही गई बातों पर गौर करें तो पता लगेगा कि सेना के पास तमाम उपकरणों की कमी है। इनमें से ज्यादातर उपकरणों की खरीद दूसरे देशों से होगी। यानी हमें और ज्यादा हथियारों का आयात करना होगा।


जनरल वीके सिंह के जन्मतिथि विवाद और पत्र लीक विवाद या अब खुल रहे घूस विवाद के पीछे की बातें धीरे-धीरे सामने आ रहीं हैं। आज भी कहना मुश्किल है कि दोषी कौन है, पर इतना ज़रूर लगता है कि रक्षा के गोपनीय भंडार में जबर्दस्त गड़बड़ी है और इसमें देश के अनेक महत्वपूर्ण लोग शामिल हैं। और शायद यही वजह है कि सन 1995 में जहाँ हम अपनी 70 फीसदी रक्षा जरूरतों को आयात से पूरा करते थे, आज भी हम उस 70 फीसदी पर टिके हैं। स्वाभाविक है भारत जैसा देश जब सारा सामान विदेश से खरीदेगा तो वह सबसे बड़ा आयातक क्यों नहीं होगा? देश में एक ओर रक्षा उद्योग का विकास नहीं हो पाया और दूसरी ओर रक्षा अनुसंधान संस्थान (डीआरडीओ) द्वारा विकसित तकनीक को हमारी सेनाएं खारिज करती रहीं। सन 1995 में तत्कालीन रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार एपीजे अबुल कलाम ने सुझाव दिया था कि सन 2005 तक हमें अपनी ज़रूरत का 70 फीसदी स्वदेशी उद्योगों से प्राप्त करने की योजना बनानी चाहिए। ऐसा नहीं हो पाया अगले दस साल में भी होता नज़र नहीं आता।

जनरल वीके सिंह पहले सेनाध्यक्ष हैं जो इतना मुखर होकर बातें कह रहे हैं। तमाम राजनीतिक नेता उनकी आलोचना कर रहे हैं। कुछ लोगों ने तो उन्हें फौरन बर्खास्त करने की माँग भी कर दी। लालू यादव का कहना है कि वे रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आना चाहते हैं, इसलिए इतना बोल रहे हैं। मानहानि का मुकदमा भी दायर हो गया है और शायद अदालतों में कुछ और मामले जाएं। कुछ महीने पहले ही पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी जिले में सेना की 71 एकड़ ज़मीन को एक निजी शिक्षा ट्रस्ट के नाम स्थानांतरित करने के मामले में दो लेफ्टीनेंट जनरलों के खिलाफ कारवाई हुई थी। सुकना कांड नाम से मशहूर यह मामला सन 2008 से चला आ रहा था। पिछले सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर इसमें नरमी बरतना चाहते थे, पर रक्षा मंत्री के एंटनी ने इसे तार्किक परिणति तक पहुँचाया। जनरल वीके सिंह ने भी इसमें पहल की। मुम्बई का आदर्श सोसायटी प्रकरण भी तकरीबन इसी किस्म की कहानी है। पर कहानी इतनी ही नहीं है।

भारतीय सेनाओं के आधुनिकीकरण का काम चल रहा है। यह काम अभी लम्बे अरसे तक चलेगा। इसमें लाखों करोड़ रुपए की सामग्री खरीदी जाएगी। भारतीय रक्षा उद्योग अभी तैयार नहीं है। शुरू में तो रक्षा उद्योग को गोपनीयता के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र के सिपुर्द कर दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र का उद्योग निजी क्षेत्र को आसानी से घुसने नहीं देना चाहता। इसमे राष्ट्रीय हितों से ज्यादा व्यक्तिगत हित हैं। विदेशों से माल खरीदने का काम भी यही कम्पनियाँ करती हैं। इस खरीद की जिस स्तर पर सार्वजनिक जाँच होनी चाहे, वह नहीं हो पाती। इसे गोपनीयता की चादर में लपेटे रखने का काम सेना के भीतर और बाहर दोनों तरफ से होता है।

इतना साफ है कि जनरल सिंह और उनके पूर्ववर्ती अधिकारियों के बीच अनेक प्रश्नों पर असहमतियाँ थीं। उनकी जन्मतिथि का मामला कहीं न कहीं सेना के भीतर की रस्सा-कशी का परिणाम था। एक दैनिक अखबार में प्रकाशित इंटरव्यू में जनरल सिंह ने आरोप लगाया कि सेना के भीतर और बाहर के तमाम लोग उनके खिलाफ प्रचार करने में जुटे हैं और उन्होंने पैसे खर्च करके मीडिया का इस्तेमाल भी किया। इसमें उन्होंने आदर्श लॉबी का नाम लिया और कई अन्य लॉबियों की ओर संकेत किया। फौजी साजो-सामान की खरीद की लिस्ट काफी बड़ी है। जनरल वीके सिंह ने एक रिटायर सेनाधिकारी पर 14 करोड़ की घूस की पेशकश का आरोप लगाया। इसके बाबत तमाम तथ्य अभी रहस्य के घेरे में हैं और मानहानि का एक मामला अदालत में चला गया है। पर जिस ट्रक की खरीद को लेकर यह बात कही जा रही है उसकी कहानी भी रोचक है।

कहा जा रहा है कि जनरल सिंह ने 788 ट्रकों की खरीद का ऑर्डर रोक दिया। पर बीईएमएल के अध्यक्ष का कहना है कि यह सौदा हो गया। उनका यह भी कहना है कि इस खरीद में सेनाध्यक्ष की कोई भूमिका नहीं है। उनकी भूमिका नहीं है तो किस चीज़ की फाइल को मंजूरी देने के लिए 14 कोड़ की पेशकश की गई? बहरहाल कहा जा रहा है कि सन 2010 में सेनाध्यक्ष ने ट्रकों की खरीद पर आपत्ति की थी। जनरल सिंह का कहना था कि इस ट्रक की कीमत बहुत ज्यादा लगाई गई थी और इसका जरूरी भारतीयकरण भी नहीं हुआ था। पिछले पच्चीस साल में भारतीय सेना ने तकरीबन 7000 ट्रक खरीदे हैं और किसी ने इस पर आपत्ति नहीं उठाई।

चेकोस्लोवाकिया में बने इस टैट्रा ट्रक का जब 1986-87 में सौदा हुआ था तब इसे चेकोस्लोवाकिया की एक कम्पनी से खरीदा गया। 1992 में चेकोस्लोवाकिया का विभाजन होने के बाद इसकी खरीद सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी बीईएमएल ने लंदन की एक कम्पनी के मार्फत इसे खरीदना शुरू कर दिया। जनरल सिंह का कहना है कि यह ट्रक पूर्वी युरोप में तकरीबन पचास लाख रुपए में मिलता है। इसे हम एक करोड़ रुपए में खरीदते हैं। इसे यदि भारत की अशोक लेलैंड या टाटा मोटर्स से खरीदें तो शायद 16 से 18 लाख में मिल जाए। हालांकि बीईएमएल को इसके निर्माण का लाइसेंस मिला है, पर भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप इसमें आज तक बदलाव नहीं किया गया है। पच्चीस साल से यह लेफ्टहैंड ड्राइव है और अबतक इसमें बदलाव नहीं किया गया है।

रक्षा सामग्री की खरीद से जुड़े लोगों की सूची में सेनाधिकारियों के अलावा राजनेताओं के बेटे और दामादों के नाम मिलेंगे। टैट्रा ट्रक की जगह किसी दूसरी कम्पनी से ट्रक खरीदने के लिए भारतीय कम्पनियों के नाम भी डाले गए हैं, पर कोई फैसला अभी तक नहीं हो पाया है। इधर सेनाध्यक्ष का प्रधानमंत्री के नाम पत्र चर्चा में आया है। इस पत्र में लिखी गई बातें काफी पहले से भारतीय मीडिया में आती रहीं हैं। भारतीय पत्रकार इस ओर इशारा करते रहे हैं कि हवाई हमलों से बचाव के लिए एंटी एयरक्राफ्ट गनों से लेकर 155 मिलीमीटर हॉविट्ज़र, राइफिलों, हेल्मेटों, तोपों और गोलों की कमी है। मुख्य युद्धक टैंक अर्जुन में जरूरी बदलाव का काम नहीं हो पा रहा है।

जनरल वीके सिंह की प्रतिक्रियाओं को देककर लगता है कि वे अपनी जन्मतिथि के मामले के कारण अब इन सारी बातों को उठा रहे हैं। इसमें क्या सुकना और आदर्श मामलों की कोई भूमिका भी है? यह बात सच भी हो सकती है, पर इससे कौन इनकार करेगा कि भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान पर गोपनीयता की चादर पड़ी है। सुरक्षा के नाम पर तमाम बातें जानकारी में नहीं आ पातीं। दूसरे यह देखना चाहिए कि सेना के आधुनिकीकरण में किस बात की बाधा है। पैसे की कमी बाधा नहीं है, बल्कि हमारी निर्णय क्षमता में दोष है। कई प्रकार की शक्तियों की दिलचस्पी इसमें रहती है। बोफोर्स के वक्त से रक्षा खरीद को दलालों से मुक्त करने की बातें होती रहीं, पर लगता है दलालों का चंगुल बढ़ता जा रहा है। सेनाधिकारियों पर लगातार लगते आरोपों को देखते हुए आशंका इस बात की है विवाद बजाय सुलझने के अभी और बढ़ेंगे। फिलहाल इस मामले में प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष तीनों को एक जगह आना चाहिए। ऐसा नहीं लगना चाहिए कि तीनों के हित अलग-अलग हैं।

जनवाणी में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment