राजनीतिक सवाल जब देश की रक्षा जैसे संजीदा मामलों पर हावी होने लगे हैं। यह गम्भीर चिंता का मामला है। 16 जनवरी की रात आगरा और हिसार से फौज की दो टुकड़ियों के दिल्ली की मूवमेंट की खबर दिल्ली के एक अखबार ने जिस तरह छापी है उससे कई तरह की चिंताएं एक साथ उजागर होती हैं। पहली चिंता यह है कि सुरक्षा से जुड़े मामलों पर जिस तरह से सार्वजनिक रूप से अब चर्चा हो रही है उसमें व्यक्तिगत मामलों को सार्वजनिक मामलों से जोडा जा रहा है। सेनाध्यक्ष के विरोधी उन्हें टार्गेट करने की कोशिश में तकरीबन वैसी ही हरकतें कर रहे हैं जैसी पिछले साल अन्ना हजारे के सहयोगियों के साथ हुईं थीं। कहना मुश्किल है कि कौन कहाँ पर दोषी है, पर संदेश यह जा रहा है कि एक ईमानदार जनरल जब रक्षा प्रतिष्ठान के भीतर पारदर्शी व्यवस्था कायम करना चाहता है तब स्वार्थी तत्व अनावश्यक वितंडे खड़े कर रहे हैं। हमारे फौजी प्रतिष्ठान की विसंगतियों को लेकर पाकिस्तान और चीन में जो प्रतिक्रिया होगी उसके बारे में भी सोचें।
हालांकि दिल्ली के अखबार में फौजी मूवमेंट की खबर में ऐसा नहीं कहा गया है, पर किसी भी व्यक्ति का पहला निष्कर्ष यही निकलेगा कि यह दबाव की कार्रवाई थी। यह बताने की कोशिश नहीं की गई कि यह सेना के सामान्य अभ्यास का हिस्सा था और इसकी तैयारी काफी पहले से कर ली गई थी। अखबार में यह खबर छपने के 22 दिन पहले सेना ने इसकी ब्रीफिंग भी की थी कि अचानक मालदीव जैसी किसी स्थिति के पैदा होने पर या संकट के समय सेना को तेजी से मूव करने का यह अभ्यास था। इस अभ्यास के बारे में मीडिया में खबरें भी छपी थीं। इस प्रकार के अभ्यास की सार्वजनिक रूप से पहले घोषणा नहीं की जाती। रक्षा मंत्रालय को सूचना देने की ज़रूरत भी नहीं होती। सेना का यह मूवमेंट सड़क के रास्ते शांति से हो रहा था। इसमें आश्यचर्य की बात क्या थी?
क्या इस सूचना को कोई स्पिन दिया गया या वास्तव में सरकार को उस रोज किसी प्रकार की चिंता हुई थी? इस सवाल का जवाब खोजा जाना चाहिए। एक तो इसलिए कि सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के जन्मतिथि मामले को लेकर उस रोज सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। और दूसरे ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार के भीतर उस रोज कुछ अधिकारियों ने इस अभ्यास की ओर ध्यान दिलाया था। महत्वपूर्ण है वह मनोवृत्ति जिसने जनरल सिंह की याचिका को इस गतिविधि से जोड़कर देखा। अपने सेनाध्यक्ष और सेना के प्रति जो आस्था हमारे मन में है क्या उसे इस बात से ठेस नहीं लगी? सेनाध्यक्ष आते-जाते रहेंगे पर भारतीय सेना के अनुशासन और निष्ठा का एक इतिहास है। यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है, जिसका राजनीति से कोई वास्ता नहीं होता। पूरी तरह प्रोफेशनस सेना है। बड़े-बड़े विकसित देशों की सेनाएं इसके मुकाबले हल्की पड़ती हैं। इससे एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि हमारी सेना तो पर्याप्त अनुशासन में है, पर नागरिक प्रशासन का अनुशासन ढीला है।
सरकार ने इस प्रकरण पर सफाई दे दी है, पर इस बात का स्पष्टीकरण नहीं है कि उस रोज पुलिस को टेरर अलर्ट भेजा गया था या नहीं। क्या सड़कों पर बैरीकेड्स लगाने के आदेश दिए गए थे? क्यों? पुलिस की तेजी से यह बात तो समझ में आती ही है कि किसी के दिमाग में खटका था। कौन सरकारी अधिकारी थे, जिन्होंने इस प्रकार की चिंता व्यक्त की? रक्षा सचिव को मलेशिया यात्रा अधूरी छोड़कर वापस क्यों बुलाया गया? क्या उसी रात वे दफ्तर में आए थे और सेना की टुकड़ियों को वापस जाने का सेनाधिकारियों को निर्देश दिया गया था? इस खबर से दो संकेत मिलते हैं। एक यह कि सेना की कोई गतिविधि थी। और दूसरा यह कि उस गतिविधि को सरकार के भीतर बैठे कुछ लोगों ने बगावत के रूप में देखा। फौज को वापस जाने के निर्देश गए तो वह वापस भी चली गई। इसका मतलब है उसने अपने अनुशासन का परिचय दिया, पर उसके मंतव्य पर शंका किसे थी? सेना दिवस(15 जनवरी) से गणतंत्र दिवस(26 जनवरी) तक सेना की भागीदारी अनेक सार्वजनिक कार्यों में होती है। तब इस टुकड़ी को वापस भेजने की ज़रूरत क्यों पड़ी? और ऐसी कल्पना कैसे कर ली गई कि भारतीय सेना व्यक्तिगत कारणों से अनुशासन खो सकती है?
इस मामले के निहितार्थ सामने आते रहेंगे, पर दो बातों को समझा जाना चाहिए। पहली यह कि सेना की मंशा या उसके अभ्यास में कोई दोष नहीं था। इसलिए इस सवाल पर ज्यादा विमर्श की ज़रूरत नहीं है। ऐसे सवालों पर निरर्थक चर्चा करने से देश की छवि खराब होती है। पर दूसरा सवाल है कि क्या इस मामले में मीडिया में जो बहस हो रही है वह गलत है? इसके लिए इस बहस में उठाए जा रहे सवालों पर ध्यान देना होगा। अखबार में यह खबर छापने के पीछे मंतव्य सिर्फ सनसनी फैलाना नहीं होना चाहिए। इसलिए जिस तरह सेना के मंतव्य पर संदेह नहीं होना चाहिए उसी तरह मीडिया के मंतव्य पर सवाल भी नहीं किए जाने चाहिए। बेशक उसे सनसनीखेज बनाने या ज़रूरत से ज्यादा फैलाने की कोशिश भी नहीं होनी चाहिए। मीडिया की भूमिका सिर्फ अपने माल को बेचने भर की नहीं है। और न रक्षा से जुड़े मामलों पर बाजीगरों की तरह चिल्ला-चिल्ला कर बहस की जा सकती है। तथ्यों को अच्छी तरह समझकर और जानकर ही उन पर टिप्पणी की जानी चाहिए।
पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि हमारे नागरिक और सैनिक प्रशासन के बीच संवाद में कुछ कमियाँ दिखाई पड़ रही हैं। सेनाध्यक्ष की जन्मतिथि का विवाद सामने ही न आता यदि उचित मंच पर उस पर चर्चा होती। इसे किस तरह दुरुस्त किया जाए यह देखने की जरूरत है। यदि एक मामूली से रक्षा अभ्यास से हमारा नागरिक प्रशासन इतनी जल्दी और इतनी आसानी से हड़बड़ा जाए तो यह देखने की ज़रूरत है कि वह महत्वपूर्ण मामलों पर फैसला किस तरह करता होगा। जनरल सिंह पर सारी तोहमतें सिर्फ इसलिए नहीं लगनी चाहिए कि उन्हें जन्मतिथि के मामले में पीछे हटना पड़ा। वे एक अर्से से भ्रष्टाचार की बातें भी कह रहे हैं। उन बातों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यह सिर्फ संयोग नहीं कि इनके कार्यकाल में आदर्श और सुकना जैसे मामले सामने आए। सेना के भीतर भी भ्रष्टाचार है इसे उठाकर उन्होंने अपने को अलोकप्रिय बनाया। पर यह देखना हमारी जिम्मेदारी है कि उन्हें कम से कम इस मामले में जनता का समर्थन मिले। क्या कोई ऐसी कोशिश कर रहा है कि जनरल को भ्रष्टाचार के मामले में जनता का समर्थन न मिले? सम्भव कुछ भी है, पर इतना सच है कि सनसनीखेज बातों से हमारा ध्यान कहीं और चला जाता है। वास्तव में कोई खतरा था ही नहीं। और वह नहीं था तो सरकार के भीतर किसने उथल-पुथल मचा दी?
हालांकि रक्षा का मामला अलग है और केन्द्रीय जाँच एजेंसियों का मामला अलग है, पर कम से कम कुछ मामलों पर देश की राय एक होनी चाहिए। पहला यह कि सुरक्षा से जुड़े मामलों पर अत्यधिक गोपनीयता की ज़रूरत नहीं है। उन्हें पारदर्शी बनाया जाए। दूसरे भ्रष्टाचार के खिलाफ जाँच करने वाली एजेंसियों को पुख्ता बनाएं। सीवीसी हो या सीबीआई हमारा अनुभव यह है कि सरकारी जकड़बंदी उनके कुशलता से काम करने पर रोक लगाती है। लोकपाल विधेयक पर संसद में चली आ रही बहस किसी न किसी कारण से निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही है, पर बहस पर गौर करें तो पाएंगे कि ज्यादातर लोग मानते हैं कि सीबीआई का दुरुपयोग होता है। जो बात इतनी साफ है तो वह ठीक क्यों नहीं होती? कहीं न कहीं कोई न कोई मामलों को घुमा रहा है। सेनाध्यक्ष और रक्षा विवाद को देखते हुए भी ऐसा लगता है।
हालांकि दिल्ली के अखबार में फौजी मूवमेंट की खबर में ऐसा नहीं कहा गया है, पर किसी भी व्यक्ति का पहला निष्कर्ष यही निकलेगा कि यह दबाव की कार्रवाई थी। यह बताने की कोशिश नहीं की गई कि यह सेना के सामान्य अभ्यास का हिस्सा था और इसकी तैयारी काफी पहले से कर ली गई थी। अखबार में यह खबर छपने के 22 दिन पहले सेना ने इसकी ब्रीफिंग भी की थी कि अचानक मालदीव जैसी किसी स्थिति के पैदा होने पर या संकट के समय सेना को तेजी से मूव करने का यह अभ्यास था। इस अभ्यास के बारे में मीडिया में खबरें भी छपी थीं। इस प्रकार के अभ्यास की सार्वजनिक रूप से पहले घोषणा नहीं की जाती। रक्षा मंत्रालय को सूचना देने की ज़रूरत भी नहीं होती। सेना का यह मूवमेंट सड़क के रास्ते शांति से हो रहा था। इसमें आश्यचर्य की बात क्या थी?
क्या इस सूचना को कोई स्पिन दिया गया या वास्तव में सरकार को उस रोज किसी प्रकार की चिंता हुई थी? इस सवाल का जवाब खोजा जाना चाहिए। एक तो इसलिए कि सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के जन्मतिथि मामले को लेकर उस रोज सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। और दूसरे ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार के भीतर उस रोज कुछ अधिकारियों ने इस अभ्यास की ओर ध्यान दिलाया था। महत्वपूर्ण है वह मनोवृत्ति जिसने जनरल सिंह की याचिका को इस गतिविधि से जोड़कर देखा। अपने सेनाध्यक्ष और सेना के प्रति जो आस्था हमारे मन में है क्या उसे इस बात से ठेस नहीं लगी? सेनाध्यक्ष आते-जाते रहेंगे पर भारतीय सेना के अनुशासन और निष्ठा का एक इतिहास है। यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है, जिसका राजनीति से कोई वास्ता नहीं होता। पूरी तरह प्रोफेशनस सेना है। बड़े-बड़े विकसित देशों की सेनाएं इसके मुकाबले हल्की पड़ती हैं। इससे एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि हमारी सेना तो पर्याप्त अनुशासन में है, पर नागरिक प्रशासन का अनुशासन ढीला है।
सरकार ने इस प्रकरण पर सफाई दे दी है, पर इस बात का स्पष्टीकरण नहीं है कि उस रोज पुलिस को टेरर अलर्ट भेजा गया था या नहीं। क्या सड़कों पर बैरीकेड्स लगाने के आदेश दिए गए थे? क्यों? पुलिस की तेजी से यह बात तो समझ में आती ही है कि किसी के दिमाग में खटका था। कौन सरकारी अधिकारी थे, जिन्होंने इस प्रकार की चिंता व्यक्त की? रक्षा सचिव को मलेशिया यात्रा अधूरी छोड़कर वापस क्यों बुलाया गया? क्या उसी रात वे दफ्तर में आए थे और सेना की टुकड़ियों को वापस जाने का सेनाधिकारियों को निर्देश दिया गया था? इस खबर से दो संकेत मिलते हैं। एक यह कि सेना की कोई गतिविधि थी। और दूसरा यह कि उस गतिविधि को सरकार के भीतर बैठे कुछ लोगों ने बगावत के रूप में देखा। फौज को वापस जाने के निर्देश गए तो वह वापस भी चली गई। इसका मतलब है उसने अपने अनुशासन का परिचय दिया, पर उसके मंतव्य पर शंका किसे थी? सेना दिवस(15 जनवरी) से गणतंत्र दिवस(26 जनवरी) तक सेना की भागीदारी अनेक सार्वजनिक कार्यों में होती है। तब इस टुकड़ी को वापस भेजने की ज़रूरत क्यों पड़ी? और ऐसी कल्पना कैसे कर ली गई कि भारतीय सेना व्यक्तिगत कारणों से अनुशासन खो सकती है?
इस मामले के निहितार्थ सामने आते रहेंगे, पर दो बातों को समझा जाना चाहिए। पहली यह कि सेना की मंशा या उसके अभ्यास में कोई दोष नहीं था। इसलिए इस सवाल पर ज्यादा विमर्श की ज़रूरत नहीं है। ऐसे सवालों पर निरर्थक चर्चा करने से देश की छवि खराब होती है। पर दूसरा सवाल है कि क्या इस मामले में मीडिया में जो बहस हो रही है वह गलत है? इसके लिए इस बहस में उठाए जा रहे सवालों पर ध्यान देना होगा। अखबार में यह खबर छापने के पीछे मंतव्य सिर्फ सनसनी फैलाना नहीं होना चाहिए। इसलिए जिस तरह सेना के मंतव्य पर संदेह नहीं होना चाहिए उसी तरह मीडिया के मंतव्य पर सवाल भी नहीं किए जाने चाहिए। बेशक उसे सनसनीखेज बनाने या ज़रूरत से ज्यादा फैलाने की कोशिश भी नहीं होनी चाहिए। मीडिया की भूमिका सिर्फ अपने माल को बेचने भर की नहीं है। और न रक्षा से जुड़े मामलों पर बाजीगरों की तरह चिल्ला-चिल्ला कर बहस की जा सकती है। तथ्यों को अच्छी तरह समझकर और जानकर ही उन पर टिप्पणी की जानी चाहिए।
पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि हमारे नागरिक और सैनिक प्रशासन के बीच संवाद में कुछ कमियाँ दिखाई पड़ रही हैं। सेनाध्यक्ष की जन्मतिथि का विवाद सामने ही न आता यदि उचित मंच पर उस पर चर्चा होती। इसे किस तरह दुरुस्त किया जाए यह देखने की जरूरत है। यदि एक मामूली से रक्षा अभ्यास से हमारा नागरिक प्रशासन इतनी जल्दी और इतनी आसानी से हड़बड़ा जाए तो यह देखने की ज़रूरत है कि वह महत्वपूर्ण मामलों पर फैसला किस तरह करता होगा। जनरल सिंह पर सारी तोहमतें सिर्फ इसलिए नहीं लगनी चाहिए कि उन्हें जन्मतिथि के मामले में पीछे हटना पड़ा। वे एक अर्से से भ्रष्टाचार की बातें भी कह रहे हैं। उन बातों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यह सिर्फ संयोग नहीं कि इनके कार्यकाल में आदर्श और सुकना जैसे मामले सामने आए। सेना के भीतर भी भ्रष्टाचार है इसे उठाकर उन्होंने अपने को अलोकप्रिय बनाया। पर यह देखना हमारी जिम्मेदारी है कि उन्हें कम से कम इस मामले में जनता का समर्थन मिले। क्या कोई ऐसी कोशिश कर रहा है कि जनरल को भ्रष्टाचार के मामले में जनता का समर्थन न मिले? सम्भव कुछ भी है, पर इतना सच है कि सनसनीखेज बातों से हमारा ध्यान कहीं और चला जाता है। वास्तव में कोई खतरा था ही नहीं। और वह नहीं था तो सरकार के भीतर किसने उथल-पुथल मचा दी?
हालांकि रक्षा का मामला अलग है और केन्द्रीय जाँच एजेंसियों का मामला अलग है, पर कम से कम कुछ मामलों पर देश की राय एक होनी चाहिए। पहला यह कि सुरक्षा से जुड़े मामलों पर अत्यधिक गोपनीयता की ज़रूरत नहीं है। उन्हें पारदर्शी बनाया जाए। दूसरे भ्रष्टाचार के खिलाफ जाँच करने वाली एजेंसियों को पुख्ता बनाएं। सीवीसी हो या सीबीआई हमारा अनुभव यह है कि सरकारी जकड़बंदी उनके कुशलता से काम करने पर रोक लगाती है। लोकपाल विधेयक पर संसद में चली आ रही बहस किसी न किसी कारण से निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही है, पर बहस पर गौर करें तो पाएंगे कि ज्यादातर लोग मानते हैं कि सीबीआई का दुरुपयोग होता है। जो बात इतनी साफ है तो वह ठीक क्यों नहीं होती? कहीं न कहीं कोई न कोई मामलों को घुमा रहा है। सेनाध्यक्ष और रक्षा विवाद को देखते हुए भी ऐसा लगता है।
जनवाणी में प्रकाशित
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