इस शुक्रवार को लाहौर की ज़मिया-मरक़ज़-अल-क़सिया
मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद जमात-उद-दावा या लश्करे तैयबा के चीफ हफीज़ सईद ने
कहा, ‘पाकिस्तान और इस्लाम को बचाने के लिए अमेरिका के खिलाफ जेहाद
छेड़ दिया गया है। इसी जेहाद की वज़ह से सोवियत संघ टूट गया था और सबको मालूम है कि
उस मुल्क का क्या हुआ। और अब अमेरिका की शिकस्त हो रही है। मीडिया एक्सपर्ट और जर्नलिस्टों
को अमेरिका की शिकस्त नज़र नहीं आती।’ मस्जिद के दरवाज़े पर बड़ा सा बक्सा रखा था। बहर
जाने वालों से कहा जा रहा था कि जेहाद के लिए पैसा दें। हाल में अमेरिका ने हफीज़ सईद
पर एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा है। शायद उसी वजह से या दिखावे के लिए उसके चारों ओर
हथियारबंद अंगरक्षक तैनात थे।
अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर
पाकिस्तान सरकार अजब स्थिति में फँस गई है। अमेरिकी घोषणा के बाद से देश में अमेरिका-विरोधी
भावनाएं उफान पर हैं। यह विरोध हफीज सईद के बाबत घोषणा के काफी पहले से है। देश की
संसद अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने पर विचार कर रही है। सरकार ने संसद पर
जिम्मेदारी डाल दी है। संसद में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी समिति ने गोलमोल बातें
शुरू कर दी हैं। अफगानिस्तान सीमा पर अमेरिकी फौजी कार्रवाई के बाद से नेटो की सप्लाई
पाकिस्तान के रास्ते बंद पड़ी है। पर यह सप्लाई ग्यारह साल से चल रही थी। पाकिस्तान
के सम्मानित विश्लेषक अयाज़ अमीर ने पूछा है कि क्या पाकिस्तान अमेरिका के साथ अपने
रिश्ते पूरी तरह तोड़ सकता है? और क्या पाकिस्तान की सेना ऐसा चाहेगी? उन्होंने लिखा है कि मेरा ख़याल है कि नहीं।
पाकिस्तान सरकार इतनी ताकतवर
भी नहीं कि वह अमेरिका के साथ रिश्तों को सामान्य बनाने की तोहमत अपने ऊपर ले। अब ऐसा
लगता है कि देश का राजनीतिक वर्ग अमेरिका से रिश्ते तो बनाना चाहता है, पर इस बात को
खुलकर कहने से कतराता है। दिफा-ए-पाकिस्तान काउंसिल नाम से 14 कट्टरपंथी संगठनों के
समूह ने अमेरिकी झंडे जलाकर अपना गुस्सा ज़ाहिर किया है। काउंसिल ने यह भी कहा है कि
राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को अपनी भारत-यात्रा कैंसिल कर देनी चाहिए। अमेरिका-पाक
रिश्तों का क्या भारत-पाक रिश्तों से भी कोई रिश्ता है क्या? ज़रदारी की यात्रा से लगता है कि कोई सम्बन्ध है।
राष्ट्रपति ज़रदारी की यात्रा
यों तो निजी कार्यक्रम था, पर उसका सांकेतिक महत्व भी था। वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
के अतिथि थे और अजमेर शरीफ रवाना होने के पहले उनसे बातचीत भी की। उन्हें
पाकिस्तान यात्रा का औपचारिक निमंत्रण दिया, जिसे मनमोहन सिंह ने औपचारिक रूप से
स्वीकार किया। ज़रदारी साहब के साथ 47 लोग और भी आए। इनमें देश के गृहमंत्री रहमान
मलिक भी थे। सन 2008 के मुम्बई हमले के बाद से भारत-पाकिस्तान के बीच यह सबसे बड़ा
सम्पर्क था। भले ही यह अनौपचारिक है, पर महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान में सन 2013 में
चुनाव होने हैं, पर हालात बताते हैं कि वहाँ इसी साल अक्टूबर-नवम्बर तक चुनाव हो सकते
हैं। संसदीय चुनाव के साथ राष्ट्रपति पद के लिए भी चुनाव होंगे। इन सब बातों का हमारे
लिए क्या संदेश है? ज़रदारी की यात्रा की खबरें लीक होने के बाद से
लगातार उन पर दबाव है कि वे यात्रा पर न जाएं। पाकिस्तान की कट्टरपंथी तबका ताकतवर
होता जा रहा है।
दिफा-ए-पाकिस्तान नाम से जो
नया गठबंधन खड़ा हुआ है, वह धीरे-धीरे अल-कायदा की शक्ल लेता जा रहा है। अमेरिका के
लिए यह परेशानी का नया सबब है। दूसरी ओर एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में इमरान खान
की पाकिस्तान तहरीके इंसाफ नाम की पार्टी इधर बेहद लोकप्रिय हुई है। पाकिस्तान मुस्लिम
लीग (नवाज) लगातार चुनाव के लिए दबाव बना रही है। पिछले तीन महीने से अमेरिका के साथ
किस प्रकार के रिश्ते कायम किए जाएं, इस बात को लेकर एक संसदीय समिति में बात चल रही
है, पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल पा रहा है। कोई भी अमेरिका की पैरवी करने की स्थिति
में नहीं है, पर कोई भी यह नहीं कह सकता कि रिश्ते पूरी तरह तोड़ दो। राष्ट्रपति ज़रदारी
के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दबाव है। आर्थिक स्थिति
खराब है। अमेरिकी आर्थिक मदद जारी न हुई तो हालात और बिगड़ेंगे। बिजली की स्थिति बिगड़ी
हुई है। पेट्रोल और डीजल के दाम प्रति लिटर एक सौ रुपए से ऊपर पहुँच गए हैं। इन हालात
के भीतर ही बदलाव की सम्भावनाएं छिपी हैं। कट्टरपंथी अराजकता के पास देश की माली हालत
सुधारने का कोई फॉर्मूला नहीं है।
कट्टरपंथ के खिलाफ देश के भीतर
से ही कोई ताकत खड़ी होगी, तभी कोई काम हो पाएगा। हालांकि कट्टरपंथियों के हौसले हाल
में बढ़े हैं, पर पिछले एक साल में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधरे हैं। मुम्बई
मामले के बाद से देश में ऐसी कोई घटना नहीं हुई है, जिसमें आईएसआई का हाथ नज़र आता
हो। हाल में उसकी कमान लेफ्टिनेंट जनरल ज़हीरुल इस्लाम के हाथ चली गई है। ऐसा लगता
है कि भारत और अमेरिका पाकिस्तान के भीतर एक ऐसे राजनीति वर्ग और सिविल सोसायटी के
उदय की कामना कर रहे हैं, जो कट्टरपंथ से लड़ सके। हाल में सोल में हुई न्यूक्लियर
समिट में बराक ओबामा, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी और डॉ मनमोहन सिंह
के बीच बातचीत हुई है। ज़रदारी की यात्रा किसी बड़े मकसद से नहीं है, पर उसका प्रतीकात्मक
महत्व ज़रूर है। सन 2005 के बाद से पाकिस्तान के किसी राष्ट्रपति की यह पहली यात्रा
है।
सामने की बातें जो भी
हों, पाकिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति और सेना अमेरिका-विरोधी नहीं है। इस बात का जवाब कोई नहीं देता कि पाकिस्तानी सेना
जिन अमेरिकी हथियारों और साजो-सामान के सहारे देश की रक्षा का दावा करती है, वे अमेरिकी
मदद के बगैर कैसे चलेंगे? पाकिस्तान अमेरिका के मुकाबले चीन को अपना बेहतर
दोस्त मानता है, पर क्या चीन अमेरिका की भरपाई कर देगा? इस्लामी कट्टरवाद के मामले में चीन का रुख भी पाकिस्तान के खिलाफ हैं। पिछले हफ्ते
चीन ने अपने पश्चिमी भूभाग पर सक्रिय उइगुर आतंकवादियों के बारे में विवरण जारी किया
है, जिसके अनुसार उन्हें पाकिस्तान के भीतर से समर्थन और हथियार मिलते हैं। चीन ने
जिन छह व्यक्तियों के दक्षिण एशिया के एक देश में ट्रेनिंग पाने की जानकारी दी है वह
पाकिस्तान ही है। क्या पाकिस्तान उन्हें पकड़वाने में चीन की मदद करेगा? पाकिस्तान ने चीन को अपने विश्वसनीय मित्र के रूप में स्थापित ज़रूर कर लिया है,
पर अमेरिका का सहारा छोड़ने की स्थिति में वह कत्तई नहीं है।
इस वक्त पाकिस्तान की
अमेरिका-नीति के साथ ही भारत-नीति, अफगानिस्तान-नीति और दूसरे शब्दों में कहें तो पूरी
विदेश नीति दाँव पर लगी है। इसके साथ ही सेना और सरकार, सुप्रीम कोर्ट और सरकार तथा
संसदीय राजनीति का भविष्य भी दाँव पर है। इस अनिश्चय और असमंजसों की घड़ी में ज़रदारी
का यह दौरा दक्षिण एशिया को सकारात्मक रास्ते पर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा
सकता है। आगरा के दैनिक सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
इतना अच्छा विश्लेषन के लिए आभार
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