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Friday, January 13, 2012

कसौटी पर पाकिस्तानी लोकतंत्र

इस वक्त भारत के पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और हैं और हम अपने लोकतंत्र के गुण-दोषों को लेकर विमर्श कर रहे हैं, पड़ोसी देश पाकिस्तान से आ रही खबरें हमें इस बातचीत को और व्यापक बनाने को प्रेरित करती हैं। भारत और पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति एक नज़र में एक-दूसरे को प्रभावित करती नज़र नहीं आती, पर व्यापक फलक पर असर डालती है। मसलन भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य हो जाएं तो पाकिस्तान की राजनीतिक संरचना बदल जाएगी। वहाँ की सेना की भूमिका बदल जाएगी। इसी तरह भारत में ‘राष्ट्रवादी’ राजनीति का रूप बदल जाएगा। रिश्ते बिगड़ें या बनें दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। इसीलिए पिछले साल अगस्त में अन्ना हजारे के अनशन के बाद पाकिस्तान में भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की हवाएं चलने लगी थीं। भारत की तरह पाकिस्तान में भी सबसे बड़ा मसला भ्रष्टाचार का है। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक संस्थाएं मुकाबले भारत के अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं और देर से विकसित हो रहीं हैं, पर वहाँ लोकतांत्रिक कामना और जन-भावना नहीं है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। हमारे मीडिया में इन दिनों अपने लोकतंत्र का तमाशा इस कदर हावी है कि हम पाकिस्तान की तरफ ध्यान नहीं दे पाए हैं।



पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तानी लोकतंत्र कम से कम दो कारणों से कसौटी पर है। पहला है सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी को लेकर की गई टिप्पणियाँ और दूसरा है मीमोगेट के कारण सेना और सरकार के बीच बढ़ती तकरार। ऐसा लगता है कि व्यवस्था के तीन प्रमुख अंग सेना, सरकार और सुप्रीम कोर्ट आपस में टकराव की ओर बढ़ रहे हैं। इन तीन अंगों के अलावा पाकिस्तानी व्यवस्था का चौथा अंग अमेरिका है। वह भी इस विवाद में शामिल है। बुधवार को प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी ने अपने रक्षा सचिव सचिव खालिद नईम लोधी को बर्खास्त करके उनका कार्यभार कैबिनेट सेक्रेटरी नर्गिस सेठी को सौंप दिया। यह एक खतरनाक दौर की शुरूआत भी हो सकती है। पाकिस्तानी सेना एक तो खुद को व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग मानती है। दूसरे पाकिस्तानी समाज और संविधान तक उसे महत्वपूर्ण दर्जा देता है।

पाकिस्तान में इन दिनों मीमोगेट और एनआरओ दो शब्द प्रचलने में हैं। 17 नवम्बर 2011 को अमेरिकी वैबसाइट फॉरेन पॉलिसी ने पाकिस्तानी व्यवसायी मंजूर इजाज़ के हवाले से यह जानकारी प्रकाशित की अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसेन हक्कानी चाहते थे कि अमेरिका के पूर्व जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ माइकेल मुलेन तक एक कागज़ पहुँचाया जाए जिसमें प्रार्थना की गई थी कि पाकिस्तान को फिर से सेना के हवनाले होने से रोकने में ओबामा सरकार मदद करे। बगैर दस्तखत के इस पुर्जे की जानकारी से पाकिस्तानी व्यवस्था में भूचाल आ गया। राजदूत हक्कानी को तत्काल हटना पड़ा और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुँच गया है। सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई के दौरान पाकिस्तानी सेना ने सरकार की स्वीकृति के बगैर अदालत के सामने अपना पक्ष रख दिया। इस बात को नापसंद करते हुए प्रधानमंत्री गिलानी का एक वक्तव्य चीन के पीपुल्स डेली में छपा। और इस वक्तव्य के जवाब में सेना का वक्तव्य सेना की वैबसाइट पर प्रकाशित हुआ।

सन 2007 में जब परवेज मुशर्रफ देश में सिविलियन सरकार के लिए रास्ता साफ कर रहे थे, तब उन्होंने एक अध्यादेश जारी किया था जिसका नाम था नेशनल रिकौंसिलिएशन ऑर्डिनेंस(एनआरओ)। इसके तहत कुछ राजनेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में अदालती कार्रवाई से छूट दी गई थी। पाकिस्तान में नागरिक सरकार की बहाली के बाद वहाँ की सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधाश की बहाली हुई थी। उनके नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने सन 2009 में एनआरओ के तहत दी गई छूट खत्म कर दी। अब राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी पर सीधे मुकदमे चलाने का रास्ता साफ हो गया। चूंकि वे राष्ट्रपति पद पर हैं, इसलिए वे मुकदमों से बचे हैं। इसलिए अब हमला उनपर है। और लगता है कि सुप्रीम कोर्ट और सेना दोनों इस मामले में एकमत हैं। इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनें के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है। मीमोगेट, एनआरओ, अफगान सीमा पर पाक फौजियों पर हमला, ओसामा बिन लादेन की हत्या और नए राजनीतिक समीकरण पाकिस्तान के लिए एक मुश्किल दौर की ओर इशारा कर रहे हैं।

पाकिस्तानी संविधान के अनुसार वहाँ की सुप्रीम कोर्ट चाहे तो सेना को सत्ता सौंप सकती है। यों भी सेना अपने आप कई बार सत्ता पर कब्जा कर चुकी है। पर क्या इस बार पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाए रखेगी? देश की वर्तमान संसद का कार्यकाल 17 मार्च 2013 तक है। राष्ट्रपति ज़रदारी का कार्यकाल भी 2013 तक है। बुधवार को सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की सभा में ज़रदारी ने कहा कि सब लोग कहें तो मैं पद से हटने को तैयार हूँ। बाद में उनके इस वक्तव्य को वापस ले लिया गया। सवाल अपनी जगह पर है, क्या पाकिस्तान में फिर से चुनाव होंगे। या सेना फिर से सत्ता सम्हालेगी? एक ओर तालिबानी कट्टरपंथ और दूसरी ओर आर्थिक बदहाली से घिरे पाकिस्तान की परीक्षा की घड़ी है।

क्यों है पाकिस्तान इस हद तक कट्टरपंथी? क्यों विफल है वहाँ लोकतंत्र? किसने बना रखा है वहाँ खौफ का माहौल? पाकिस्तानी मीडिया और सियासत पर नज़र डालें तो हमें दो बातें दिखाई पड़ेगी। एक तरफ चीज़ों को अंधे कट्टरपंथ की ओर धकेलने की कोशिशें हो रहीं हैं वहीं करीब पचास साल से चली आ रही एक धारा में बदलाव की गुंजाइश भी नज़र आती है। भारत की तरह पाकिस्तान में भी संविधान सभा बनी थी, जिसने 12 मार्च 1949 को संविधान के उद्देश्यों और लक्ष्यों का प्रस्ताव तो पास किया, पर संविधान नहीं बन पाया। इन उद्देश्यों पर चली पाँच दिन की बहस में संविधान सभा के हिन्दू सदस्य श्रीश चन्द्र चट्टोपाध्याय, विराट चन्द्र मंडल और भूपेन्द्र चन्द्र दत्त ने कहा कि यह कायदे आज़म मुहम्मद अली ज़िन्ना और लियाकत अली का पाकिस्तान नहीं है। उनकी परिकल्पना तो सेक्युलर पाकिस्तान की थी। नौ साल की कबायद के बाद 1956 में पाकिस्तान अपना संविधान बनाने में कामयाब हो पाया। यह बात साफ कर दी गई कि पाकिस्तान इस्लामिक रिपब्लिक होगा। 23 मार्च 1956 को इस्कंदर मिर्ज़ा राष्ट्रपति बनाए गए। उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया था, पर 7 अक्तूबर 1958 को उन्होंने अपनी लोकतांत्रिक सरकार ही बर्खास्त कर दी और मार्शललॉ लागू कर दिया। उनकी राय में पाकिस्तान के लिए लोकतंत्र मुफीद नहीं था। जिस देश में साक्षरता की दर 15 फीसदी हो वहां लोकतंत्र नहीं चल सकता।

पाकिस्तान का संशय 1947 में उसकी स्थापना के साथ शुरू हो गया था। दुनिया का अपने किस्म का यह पहला देश है, जिसकी स्थापना धार्मिक आधार पर हुई थी, भौगोलिक आधार पर नहीं। पाकिस्तान के उद्देश्यों का प्रस्ताव रखते हुए 1949 में प्रधानमंत्री लियाकत अली ने कहा था कि इस भूखंड के मुसलमान दुनिया को बताना चाहते हैं कि इंसानियत को लगी तमाम बीमारियों का इलाज़ इस्लाम के पास है। विडंबना देखिए कि इस्कंदर मिर्जा ने जिन जनरल अयूब खां को चीफ मार्शललॉ प्रशासक बनाया उन्होंने 20 दिन बाद 27 अक्तूबर को सरकार का तख्ता पलट कर मिर्ज़ा साहब को बाहर किया और खुद राष्ट्रपति बन बैठे।

पाकिस्तान का अतर्द्वंद दो बातों में है। एक, उसे निरंतर डराया जाता है कि तुम खतरे में हो। तुम्हें कोई खा जाएगा। दूसरी ओर सत्ता पर सेना का कब्ज़ा है, जिसका लोकतंत्र से वास्ता नहीं है। उसकी ज़वाबदेही देश की जनता के प्रति नहीं है। देश के राजनीतिक दल एक-दूसरे की खाल खींचने में लगे हैं। उनकी दिलचस्पी लोकतंत्र का नाम लेने भर में है। यह सच है कि वहाँ लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टाचार को बोलबाला रहा। पर लोकतंत्र को बदनाम करने की एक सुनियोजित साजिश भी चलती रही। सेना के भ्रष्टाचार का जिक्र करने की हिम्मत किसी में नहीं है। इस वक्त पाकिस्तान दोराहे पर है। क्या वहाँ की सेना अपने आपको नागरिक सरकार के अधीन करेगी? क्या सुप्रीम कोर्ट नरम कार्रवाई करते हुए जनता पर सारा मामला छोड़ेगी? वहाँ लोकतंत्र कायम रहेगा या नहीं? ऐसे कुछ सवालों के जवाब अगले कुछ दिनों में मिलेंगे।
जनवाणी में प्रकाशित

1 comment:

  1. सर मैने एक ब्लाग लिखना शुरू किया है ’ट्रेन टू पाकिस्तान’ उसमे पाकिस्तान के हालात का जायजा लेता हूं आप चाहे तो रेफ़ेरेंस के लिये देख सकते है। उम्दा लेखन तो नही पर पाकिस्तान मे चल रही गतिविधियो की जानकारी आपको मिल सकती है।

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