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Thursday, January 12, 2012

ममता बनर्जी की भी दूरगामी राजनीति है


बंगाल में कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी के बजाय मुख्य विपक्षी दल जैसी नज़र आने लगी है। मानस भुनिया से लेकर दीपा दासमुंशी तक शिकायत कर रहे हैं। रायगंज कॉलेज के छात्रसंघ चुनाव में कांग्रेस और तृणमूल कार्यकर्ताओं के बीच बाकायदा संघर्ष हुआ और गिरफ्तारियाँ हुईं। शनिवार को ममता बनर्जी ने सबके सामने साफ कहा कि कांग्रेस चाहे तो बंगाल सरकार से अलग हो जाए। कांग्रेस की प्रतिक्रिया है कि हम जनता की सेवा करने आए हैं, करते रहेंगे। भीतर की कहानी यह है कि इस वक्त कांग्रेस बीजेपी को लेकर उतनी परेशान नहीं है, जितना ममता बनर्जी को लेकर है। लोकपाल बिल पर हुई फजीहत को लेकर कांग्रेस के प्रवक्ता बीजेपी पर गुस्सा उतार रहे हैं, पर निजी बातचीत में स्वीकार कर रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस के साथ समन्वय में कोई चूक हो गई है।
ममता बनर्जी की छवि हमेशा तैश में रहने वाली नेता की है। मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। जनता के पक्ष में लड़ने वाली जुझारू नेता। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम मोर्चा के मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। और यही तथ्य उन्हें लगातार उत्तेजित बनाकर रखता है। वाम मोर्चा अब सत्ता से बाहर है, पर शासन में तमाम तरह की वाम ताकतें अब भी मौजूद हैं। ममता बनर्जी को सरकारी कर्मचारियों पर अविश्वास है। पुलिस का बड़ा तबका वाम मोर्चे का हमदर्द है। वे कोई भी ऐसा मौका छोड़ना नहीं चाहतीं जब वाम मोर्चा उनकी जीती जमीन वापस लेने की कोशिश करे। लोकपाल बिल में संघीय व्यवस्था को लेकर उन्होंने जो विरोध किया उसकी एक वजह यह भी थी कि सीपीएम ने इसे मुद्दा बनाया था। ममता बनर्जी सीपीएम को पैर जमाते नहीं देख सकतीं।
ममता बनर्जी की छवि बनाने वाले उन्हें जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी के रूप में पेश करते हैं। वे उनकी तुलना जयललिता, मायावती और उमा भारती से करते हैं। दो नेताओं की आपसी तुलना उचित नहीं सबकी अपनी अलग पहचान है। अलबत्ता ममता बनर्जी कोरी हवाबाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में बेहद सादगी और ईमानदारी और साहस है। पर वे मुख्यमंत्री भी हैं और सात-आठ मंत्रालयों का काम सम्हालती हैं। यह बात उनकी जीवन शैली से मेल नहीं खाती। फाइलों में समय खपाना उनका शगल नहीं है। उन्होंने सिर्फ अपने बलबूते एक पार्टी खड़ी कर दी, यह बात जहाँ उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है वहीं संगठन के तौर पर पार्टी को कमज़ोर बनाती है। पर यह हमारी राजनीति की विशेषता है। देश के प्रायः सभी क्षेत्रीय दल इसी पैटर्न पर बने हैं। वाम दलों को छोड़ दें तो कांग्रेस पार्टी नेहरू-गांधी परिवार की धुरी से चलती है और बीजेपी संघ परिवार के इशारों से।
फिलहाल सवाल है कि क्या कांग्रेस और ममता बनर्जी का दोस्ताना खत्म होने जा रहा है? पर क्यों? क्या ममता बनर्जी यह गठबंधन तोड़ना चाहतीं हैं? या कांग्रेस किसी प्लान बी पर काम कर रही है? ममता बार-बार क्यों कह रही हैं कि कांग्रेस सीपीएम के साथ मिलकर वार कर रही है? सवाल यह भी है कि यह गठबंधन टूटेगा तो कब? बंगाल कांग्रेस ने साफ किया है कि हम सरकार से अलग होना नहीं चाहते। ऐसा लगता है कि ऐसा करनी जरूरी हुआ भी तो केन्द्र सरकार बजट पास कराने के बाद ही टीएमसी से सम्बन्ध विच्छेद करेगी। अभी अंदेशा इस बात का है कि ममता बनर्जी खाद्य सुरक्षा कानून को भी पास नहीं होने देना चाहेंगी। इसकी वजह यह है कि इस कानून के तहत राज्य सरकारों पर भी बोझ पड़ेगा। बंगाल में सरकार की माली हालत अच्छी नहीं है। वहाँ धान की खरीदारी ही शुरू नहीं हो पा रही है। बीस लाख टन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए करीब 840 करोड़ रुपए की जरूरत है। इसमें फूड कॉरपोरेशन का हिस्सा भी है। प्रादेशिक संस्थाओं के पहल न लेने पर फूड कॉरपोरेशन ने भी हाथ खींच रखे हैं। खाद्य सुरक्षा कानून बन जाने के बाद साधन नहीं बढ़े तो सरकार के सामने दिक्कतें खड़ी हो जाएंगी।
ममता बनर्जी के सामने एक ओर बंगाल सरकार की गाड़ी को रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी है दूसरी ओर जनता से जुड़ी राजनीति को आगे बढ़ाने की चुनौती है। उन्हें आने वाले समय की राष्ट्रीय राजनीति भी नज़र आ रही है। देश के क्षेत्रीय दलों में अन्नाद्रमुक, द्रमुक, जदयू, बसपा और सपा के साथ तृणमूल का उभार अगले दो साल में किसी और मुकाम पर जा सकता है। टीएमसी बंगाल में अपने आप में एक ताकत बनना चाहेगी। बंगाल में कांग्रेस की पहचान अब टीएमसी की वजह से है। यह पार्टी दूसरे राज्यों में भी जाना चाहती है। उसने उत्तर प्रदेश के चुनाव में उतरने की घोषणा भी की है। कांग्रेस की भावी राजनीति को भी उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम परिभाषित करेंगे। टीएमसी के 19 सांसद साथ छोड़ेंगे तो कांग्रेस के प्लान बी में समाजवादी पार्टी के 22 सांसदों के लिए जगह है। साथ ही उत्तर प्रदेश में रालोद और सपा के साथ मिलकर सरकार बनाने की उम्मीद भी। क्या मार्च में सपा यूपीए में शामिल हो जाएगी? सवाल यह भी है कि उत्तर प्रदेश में क्या सपा के छोटे भाई के रूप में कांग्रेस रहेगी?
सन 2012 में कुछ औक फैसले भी होने हैं। लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के आसार भी बन सकते हैं। ऐसा होगा या नहीं यह उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा, पर ममता बनर्जी इस दौरान अपने आधार को व्यापक बनाना चाहेंगी। इसमें दो राय नहीं कि वे जनता की नेता हैं। फिलहाल बंगाल के मध्यवर्ग का समर्थन उन्हें मिल रहा है। ममता बनर्जी राष्ट्रीय पहचान वाली क्षेत्रीय नेता के रूप में स्थापित हो चुकी हैं। यह भी जाहिर है कि वे खुद को नेहरू-गांधी वाली कांग्रेस के साथ स्थायी रूप से जोड़ना नहीं चाहतीं। उनकी राजनीति को समझने के लिए हमें अभी दो महीने और इंतज़ार करना होगा।    

1 comment:

  1. well said sir, but i believe according to MISS BANERJEE, Kolkatta is capital and west bengal is INDIA, she threatens UPA everytime for a favor !
    Poor regionalism by regional parties !
    DEEPAK

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