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Monday, January 16, 2012

सिर्फ दो महीने का सदाचार क्यों?

पत्रकार अम्बरीष कुमार ने फेसबुक पर लिखा है,’ इस बार कहीं भी सार्वजनिक रूप से न तो खिचड़ी का भंडारा हुआ और न लखनऊ में जगह जगह होने वाला तहरी भोज का आयोजन हुआ। न ही नव वर्ष और मकर संक्रांति के मौके पर किसी की शुभकामनाओं के बोर्ड और होर्डिंग। वजह सिर्फ चुनाव आयोग की सख्ती। भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा-जब एक एक प्याली चाय का खर्चा उम्मीदवारों के खर्च में जोड़ दिया जा रहा है तो तहरी भोज जिसमे हजारों की संख्या में लोग आते है उसका खर्च चुनाव खर्च में जुड़वाने का जोखम कौन मोल लेगा।’ इस बार के चुनाव में प्रतिमाएं ढकने का प्रकरण सबसे ज्यादा चर्चा में है। मुसलमानों को आरक्षण देने की योजना और कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और चुनाव आयोग के बीच अधिकार को लेकर छोटी सी चर्चा ने भी मामले को रोचक बना दिया।


चुनाव के दौरान आयोग की महत्ता को व्यवस्था ने मंजूर कर लिया है। पर, बदलाव चुनाव प्रणाली से नहीं पूरी राजनीतिक व्यवस्था से ताल्लुक रखते हैं। चुनाव के दौरान इन बदलावों पर ध्यान कुछ ज्यादा ही जाता है। बदलाव करने वाले वही हैं जिसमें बदलाव होना है, इसलिए विसंगतियों की भरमार है। शिक्षा का प्रसार पर्याप्त नहीं है। जानकारी के माध्यमों की दशा खराब है। वोटर को प्रशिक्षित करने वालों की तादाद बेहद कम है। एनजीओ-संस्कृति भी मीडिया-कारोबार की तरह कमाई-केन्द्रित है। फिर भी बदलाव हुआ है। 1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, सन 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इन्द्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, सन 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, सन 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और सन 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि बदलाव की काफी गुंजाइश मौजूद है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने भी इस प्रक्रिया को तेज किया है। संविधान के 91 वें संशोधन के बाद केन्द्र और राज्यों में मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या निम्न सदन के सदस्योंकी कुल संख्या के 15 फीसदी तक करने का निर्णय इस राजनीतिक सुधार प्रक्रिया का हिस्सा ही था। अन्यथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में मंत्रियों की संख्या सैकड़ा पार करने जा रही थी।

इन दिनों रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों, होटलों वगैरह में बड़ी नकदी लाने ले जाने वालों पर नज़र है। चुनाव आयोग चाहता है कि प्रत्याशियों के ज्यादातर भुगतान चेक से हों। पर हमारी व्यवस्था नकदी पर चलती है। काला धन ही नहीं सफेद धन भी नकदी के रूप में चलता है। छोटे व्यापारी अपनी खरीद-फरोख्त और भुगतान नकद राशि में करते हैं। जमान-जायदाद के काफी सौदे नकदी में होते हैं। शादी का मौसम आ रहा है। लोग नकदी लेकर चलेंगे। छोटे किसान के पास बैंक अकाउंट है ही नहीं। ऐसे में चुनाव की नकदी और सामान्य नकदी में फर्क करना मुश्किल होगा। परेशानी आम नागरिक को होगी।

प्रतिमाओं को ढकने का आदेश अटपटा और निरर्थक लगता है। चुनाव आयोग से सन 2009 में शिकायत की गई थी कि सरकार जनता के पैसे से ऐसी प्रतिमाएं बनवा रही है, जिनका राजनीतिक अर्थ है। याचिका में माँग की गई थी कि हाथी का चुनाव निशान फ्रीज कर दिया जाए। आयोग ने तब ऐसा नहीं किया बल्कि आश्वासन दिया कि चुनाव के समय ऐसे उपयुक्त कदम उठाए जाएंगे जिनसे इन प्रतिमाओं का फायदा न मिल सके। सन 2004 के चुनाव में चुनाव आयोग ने राजमार्गों पर लगे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के होर्डिंग्स को इसी तरह ढकवाया था। यह काम हास्यास्पद लगता है, पर यह हमारी राजनीति की एक सचाई है। जनता के पैसे से राजनेताओं का प्रचार होना चाहिए या नहीं यह जनता चुनाव में तय करेगी और उसके प्रतिनिधि उपयुक्त फोरम पर। तभी इसका समाधान होगा।

धनबल और बाहुबल भी चिन्ता के विषय हैं। इसका समाधान जनता को करना है। पार्टियों को चुनाव जीतने के लिए मसल पावर चाहिए और पैसा भी। प्रत्याशियों के हलफनामे इसी दिशा में कदम है। हलफनामों की व्यवस्था भी राजनीतिक शक्तियों के विरोध के बावजूद अदालतों की सक्रियता से हासिल हुई है। अभी तक गलत विवरण देने पर कठोर सजा की व्यवस्था नहीं है। अब जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 125 ए में बदलाव की ज़रूरत है। क्या एक प्रत्याशी को एक से ज्यादा जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए? सन 1998 में हुई सर्वदलीय बैठक में राय थी कि फिलहाल जो व्यवस्था चल रही है उसे चलते देना चाहिए।

एग्ज़िट पोल पर रोक लग चुकी है, पर ओपीनियन पोल अभी जारी हैं। इनका सम्बंध अभिव्यक्ति के अधिकार से भी है। इसके बहाने स्वार्थी तत्व अपनी राय वोटर के मन में डालते हैं। मीडिया-प्रवृत्तियों का निरंतर ह्रास इसके लिए जिम्मेदार है। मीडिया हाउस नैतिकता के प्रश्नों पर बातचीत नहीं करते। सरोगेट विज्ञापन और पेड न्यूज़ के मसले भी ऐसे ही हैं। इस बार पेड न्यूज़ पर भी आयोग की नज़र है। पर आयोग इसे प्रत्याशी के खर्च का मामला मानता है। उसके आगे उसकी दिलचस्पी नहीं। एक पत्रकार और पाठक के लिए यह साख को बेचने का मामला है। इसलिए पेड न्यूज की तमाम उन शक्लों पर भी विचार करने की ज़रूरत है जो चुनाव की परिधि से बाहर हैं।
सन 2009 के चुनावों के ठीक पहले मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी ने एक चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सलाह दी थी। उस वक्त चुनाव आयोग की नियुक्तियों को लेकर बहस छिड़ी थी जो अभी तक जारी है। सन 2006 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त बीबी टंडन ने राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम को सुझाव दिया था कि चुनाव आयोग की नियुक्ति के लिए सात सदस्यों की कमेटी बनानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा उप सभापति, लोक सभा और राज्यसभा में नेता विपक्ष, विधि मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की संस्तुति से नियुक्त एक न्यायाधीश हों। यह मामला अभी विमर्श का विषय है।

चुनाव के दौरान जो आचार संहिता लागू होती है, वह बाकी पाँच साल तक लागू क्यों नहीं हो सकती? राजनीति को दो महीने मॉनीटर करने वाली व्यवस्था पाँचों साल भी तो काम कर सकती है। आप इस पर भी विचार करें। जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित


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